राकेश अचल
भारतीय जनजीवन और अर्थ व्यवस्था का मेरुदंड झुका ही नहीं अपितु टूटा हुआ है, लेकिन कोरोना से संघर्ष कर रही हमारी सरकार इसे तब तक सीधा नहीं होने देना चाहती जब तक कि ये पूरी तरह से दम न तोड़ दे। जी हाँ, मैं भारतीय रेल की बात कर रहा हूँ। जिस देश में रोजाना 8702 यात्री ट्रेनें चलती हों उस देश में लॉकडाउन के सात माह बाद भी कुछ सैकड़ा रेलें चलाकर सरकार ऊँट के मुंह में जीरा डालने का काम कर रही है।
रेलों की बदहाली पर नजर डालने के लिए आपको उन आंकड़ों से गुजरना होगा जो किसी से छिपे हुए नहीं हैं। भारत में रेलवे की कुल लंबाई 67415 किलोमीटर है। भारतीय रेलवे रोजाना 231 लाख यात्रियों और 33 लाख टन माल ढोती है। भारतीय रेलवे में 12147 लोकोमोटिव, 74003 यात्री कोच और 289185 वैगन हैं और 8702 यात्री ट्रेनों के साथ प्रतिदिन कुल 13523 ट्रेनें चलती हैं। भारतीय रेलवे में 300 रेलवे यार्ड, 2300 माल ढुलाई और 700 मरम्मत केंद्र हैं। यह दुनिया की चौथी सबसे बड़ी रेलवे सेवा है। 12.27 लाख कर्मचारियों के साथ, भारतीय रेलवे दुनिया की आठवीं सबसे बड़ी व्यावसायिक इकाई है।
अंदरखाने की बात ये है कि कोरोना के बहाने हमारी व्यापार करने वाली सरकार धीरे-धीरे इस सबसे बड़े सरकारी उपक्रम को निजी हाथों में सौंपने की तैयारी में लगी है। इसीलिए जानबूझकर रेल सेवाओं को बाधित कर जनता को परेशान किया जा रहा है। आपको याद होगा कि देश में कोरोना वायरस को फैलने से रोकने के लिए 22 मार्च से पैसेंजर ट्रेनों और मेल/एक्सप्रेस ट्रेनों का परिचालन बंद है। हालांकि देश में अलग-अलग जगहों पर फंसे प्रवासी मजदूरों को उनके घरों तक पहुंचाने के लिए 1 मई से श्रमिक स्पेशल ट्रेनें चलाई गई थीं।
उसके बाद 12 मई से राजधानी के मार्ग पर कुछ स्पेशल ट्रेनें चलाई गईं और फिर 1 जून से 100 जोड़ी ट्रेनें शुरू की गई थीं। 25 जून को रेलवे बोर्ड ने सभी नियमित मेल, एक्सप्रेस और यात्री ट्रेन सेवाओं के साथ उपनगरीय ट्रेनों को 12 अगस्त तक के लिए रद्द किया था। बड़ी मुश्किल से मेट्रो और स्थानीय उपनगरीय रेलों का परिचालन शुरू हुआ लेकिन बाक़ी अब भी बंद हैं और ये कब तक बंद रहेंगी कोई नहीं जानता।
भारतीय रेल के 166 साल के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ था कि जब पूरी रेल सेवा को बंद किया गया था। लेकिन अब ये भी पहली बार हो रहा कि भारतीय रेल को निजी हाथों में देने की तैयारी की जा रही है। मौजूदा सरकार से सार्वजनिक उपक्रमों का संचालन जैसे हो ही नहीं पा रहा है। तमाम सार्वजनिक उपक्रमों को ठिकाने लगाकर अब सरकार की नजर भारतीय रेल पर है। दुर्भाग्य ये है कि कोरोना के नाम पर इस खौफनाक योजना के खिलाफ किसी को मुंह खोलने की न इजाजत है और न अवसर।
भारत की रेल प्रतिदिन कम से कम 143 करोड़ रुपये कमाती है, यानी अब तक भारतीय रेल कम से कम 30709 करोड़ रूपये का घाटा उठा चुकी है। जबकि उसके खर्चे में शामिल वेतन का नियमित भुगतान आज भी जारी है। भारतीय रेल कुप्रबंधन की वजह से पहले से घाटे में चल रही है। आंकड़ों में जाएँ तो पता चलेगा कि भारतीय रेल को साल 2019-20 की अप्रैल-जून तिमाही में यात्री किराये से 13,398.92 करोड़ रुपये की कमाई हुई थी, जुलाई-सितंबर तिमाही में यह घटकर 13,243.81 करोड़ रुपये रह गई। अक्टूबर-दिसंबर तिमाही में यात्री किराये से रेलवे की कमाई और गिरकर 12844.37 करोड़ रुपये पर पहुंच गई।
अराजकता और अनिश्चय के इस दौर में भारत सरकार ने 151 रेलों का परिचालन निजी हाथों में देने की तैयारी कर ली है। सवाल ये है कि इसकी जरूरत क्या है। सरकार रेलों के प्रबंधन को तकनीक के जरिये उन्नत करने के बजाय इसे निजी हाथों में सौंपने पर आमादा क्यों है? जिस देश में गरीब जनता के आवागमन का सबसे बड़ा और सस्ता साधन रेल है उसे निजी हाथों में देकर आखिर सरकार करना क्या चाहती है?
रेल मंत्रालय दिल्ली, मुंबई समेत करीब 50 रेलवे स्टेशनों को पीपीपी मॉडल के तहत निजी हाथों में सौंपने की तैयारी कर रहा है। यही नहीं बड़े रेलवे स्टेशनों को हवाई अड्डों की तर्ज पर विकसित किया जाएगा। सुविधा के नाम पर यात्रियों से यूजर्स चार्जेस के तौर पर पैसे वसूलने की शुरुआत कर भी चुका है। रेल यूनियन इसे निजीकरण बताकर विरोध कर रहा है। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पांच लाख यात्री रोज आते हैं। अब इस रेलवे स्टेशन को पीपीपी मॉडल के जरिए बदलने की योजना है। कनॉट प्लेस से लगे होने के कारण रेलवे की बेशकीमती जमीन पर मॉल से लेकर होटल तक बनेंगे। इसी तरह मुंबई के छत्रपति शिवाजी टर्मिनस की हेरीटेज बिल्डिंग से सटी जमीन को विकसित किया जाएगा।
रेल को निजी कंपनियों को 60 साल के लिए लीज पर देने के प्रस्ताव के चलते अडानी, जीएमआर से लेकर सिंगापुर तक की कंपनियों ने इसमें दिलचस्पी दिखाई है। खास बात ये है कि इसकी पर्यावरण एनओसी भी रेलवे मंत्रालय ही लेकर देगी। नीति आयोग के चेयरमैन अमिताभ कांत ने रेलवे के फैसले को लेकर बड़े अजीब तर्क देते हुए कहते हैं कि ”ऐसे ही जब प्राइवेट बैंक आए तो क्या भारतीय स्टेट बैंक बंद हो गया? नई तकनीक आएगी, ग्रोथ बढ़ाएंगे।‘’ कोई उनसे पूछे कि निजी बैंकों को सरकार ने अपनी संरचनाएं इस्तेमाल के लिए कभी नहीं दीं और फिर रेल बैंक नहीं है।
बहरहाल अब जरूरत इस बात की है कि जनता खुद अपने इस साधन को बचाये, अपने-अपने सांसदों को घेरे, मजबूर करे कि वे सरकार पर रेलों का निजीकरण रोकने का दबाव डालने के साथ ही रेलों का पूरी क्षमता से परिचालन शुरू करायें। कोरोना से युद्ध भी जारी रहे और रेलें भी चलती रहें तो कोई ख़ास फर्क पड़ने वाला नहीं है, लेकिन रेलों के बंद होने से देश की रीढ़ टूट रही है, बेरोजगारी बढ़ रही है, कारोबार प्रभावित हो रहा है और सबसे बड़ी बात भारत की साख को बट्टा लग रहा है।