देश का सामाजिक परिदृश्य इन दिनों मध्ययुगीन काली परछाइयों से घिरा नजर आ रहा है। 21 वीं सदी के पानी में 18 वीं या 19 वीं शताब्दी के बुलबुले उठ रहे हैं। वह राजनीति जो आजादी के बाद जात-पांत को पीछे छोड़ने का संकल्प जताते हुए नहीं अघाती थी, वही राजनीति आज जात-पांत का पल्ला पकड़कर, येन केन कुर्सी हथियाने के सारे जतन कर रही है।
यह संयोग ही है कि 11 जनवरी, यानी स्वामी विवेकानंद के जन्मदिवस के ठीक एक दिन पहले, देश के इसी जाति और वर्णगत परिदृश्य को उद्घाटित करने वाली दो टिप्पणियां मीडिया में आई हैं। वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने देश के कई अखबारों में छपने वाले अपने कॉलम का विषय ही ‘देश की राजनीति में बदलाव और संघर्ष के इस दौर’ को बनाया है।
राजदीप का कॉलम इसी ‘पुनश्च‘ भाव के साथ समाप्त हुआ है कि- ‘’जो (लोग) राजनीति में जातिगत समीकरणों की बातों से खफा हो जाते हैं, उनके लिए अखबारों के वैवाहिकी के विज्ञापनों का विश्लेषण कैसा रहेगा, जिनमें इतने स्पष्ट रूप से सामाजिक पूर्वग्रह जाहिर होते हैं? जहां तक हम पत्रकारों की बात है तो हमें भी अपने भीतर झांककर यह असुविधाजनक प्रश्न पूछना होगा कि कितने दलित, ओबीसी और आदिवासी संपादक भारतीय न्यूज रूम्स में हैं?’’
दूसरी टिप्पणी बिहार के वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर ने अपनी फेसबुक वॉल पर पोस्ट की है। हिन्दी के चर्चित दैनिक ‘आज’ के तत्कालीन संपादक पारसनाथ सिंह का संदर्भ देते हुए उन्होंने लिखा- ‘’आज ज्वाइन करते ही मैंने देखा के ‘आज’ में हर जगह ब्राह्मण भरे हुए हैं। मैंने पारस बाबू से इस संबंध में पूछा और सामाजिक न्याय की चर्चा की। उन्होंने जो कुछ कहा, उसका मेरे जीवन पर भारी असर पड़ा। ऋषितुल्य पारस बाबू ने कहा कि आप जिस पृष्ठभूमि से आए हैं, उसमें यह सवाल स्वाभाविक है। पर यह कोई लोहियावादी पार्टी का दफ्तर नहीं है।‘’
‘’यदि यहां ब्राह्मण भरे पड़े हैं तो यह अकारण नहीं है। ब्राह्मण विनयी और विद्याव्यसनी होते हैं। ये बातें पत्रकारिता के पेशे के अनुकूल हैं। यदि आपको पत्रकारिता में रहना हो तो ब्राह्मणों के इन गुणों को अपने आप में विकसित कीजिए। अन्यथा, पहले आप जो करते थे, फिर वही करिए।‘’
अब एक तरफ राजदीप सरदेसाई का यह सवाल है कि हमारे न्यूज रूम में कितने दलित, ओबीसी और आदिवासी संपादक हैं और दूसरी तरफ सुरेंद्र किशोर का यह जवाब है कि पत्रकारिता में रहना है तो विनयी और विद्याव्यसनी होने का ‘ब्राह्मणों’ वाला गुण विकसित करना होगा। मुझे लगता है भारतीय समाज को भी अपने भीतर चल रहे अंतर्द्वंद्व (या संघर्ष) का जवाब इन्हीं दो उदाहरणों के बीच ढूंढना होगा।
और यहीं प्रासंगिक हो जाते हैं स्वामी विवेकानंद, जिनकी आज जयंती है। भारतीय समाज में ऊंच-नीच का भाव स्वामीजी के समय भी था। बल्कि आज के समय से कहीं ज्यादा गहरा, ज्यादा गंभीर और ज्यादा व्यापक था। लेकिन स्वामी जी ने उसका उपाय राजदीप सरदेसाई द्वारा पूछे गए सवाल जैसा कोई सवाल पूछ कर नहीं ढूंढा।
स्वामीजी ने तत्कालीन उच्च वर्ग से साफ कहा कि आज यदि तुम वंचित वर्ग की मदद करते हो तो आगे चलकर यही वंचित वर्ग तुम्हारे साथ कंधे से कंधा मिलाकर राष्ट्र के निर्माण में भागीदार होगा। यदि तुम मदद नहीं करते तो इसमें नुकसान तुम्हारा ही है, क्योंकि अपनी असीम क्षमताओं के चलते इस वर्ग को कभी न कभी तो ऊपर आना ही है।
देखिए, विवेकानंद कितनी समन्वयकारी बात कर रहे हैं। वे कहते हैं कि यदि उच्च वर्ग ने सदाशयता दिखाते हुए निम्न वर्ग को ऊपर उठाने की कोशिश की, तो निम्न वर्ग की आने वाली पीढि़यों में उच्च वर्ग के प्रति सौहार्द और कृतज्ञता का भाव होगा। इससे सामाजिक सद्भाव को ही बढ़ावा मिलेगा, लेकिन यदि ऐसा नहीं हुआ तो अपनी मेहनत और पुरुषार्थ के बल पर आगे आने वाले निम्न वर्ग में, उच्च वर्ग के प्रति यह वैमनस्य भाव सदैव बना रहेगा कि ये ही वे लोग थे जिन्होंने हमारी राह में कांटे बिछाए थे।
मत भूलिये कि यह बात आज से करीब सवा सौ साल पहले कही जा रही है। उस समय की भारतीय मनीषा, समस्या का हल सामंजस्य,समरसता और सद्भाव में खोज रही है न कि समाज को बांटने वाले सवाल पूछकर। आज चाहे राजनीति हो या पत्रकारिता, दोनों ही अपना फायदा समाज को बांटने वाली गतिविधियों में देख रहे हैं। तभी तो राजदीप सरदेसाई भी पूछ बैठते हैं कि न्यूज रूम में कितने दलित,ओबीसी और आदिवासी संपादक हैं?
आज राजनीति या पत्रकारिता में कोई यह नहीं पूछता कि कितने काबिल, कितने ईमानदार, कितने निष्ठावान, कितने सच्चे, कितने कर्तव्यपरायण लोग हमारे आसपास हैं। हम बस यह पूछते नजर आते हैं कि कितने दलित हैं, कितने आदिवासी हैं, कितने ओबीसी हैं या कितने ब्राह्मण अथवा कितने ठाकुर हैं। और जब इनकी गणना पूरी हो जाए तो हम उनकी उपजातियों और गोत्र तक उतर आते हैं।
हमारे लिए महापुरुष अब केवल भाषणों और मूर्तियों तक ही सीमित रह गए हैं। मूर्तियों का शौकीन भारतीय समाज उन लोगों के कर्म के बारे में शायद ही कभी सोचता विचारता हो। विवेकानंद जयंती पर इस ‘शौकीन’ समाज से यही गुजारिश की जा सकती है कि वो अपने महापुरुषों को इन मूर्तियों और फालतू टाइप के किस्से कहानियों से बाहर निकाले। यथार्थ के धरातल पर उनसे कुछ सीखने और उनकी सीख को अमल में लाने की कोशिश करे। भारत को समग्र रूप से एक राष्ट्र के रूप में पहचाने और सभी भारतीयों को उसकी संतान के रूप में। स्वामी विवेकानंद के शब्दों में कहें तो हमारा ‘एकमात्र जाग्रत देवता’, जिसकी पूजा ही हमारा लक्ष्य हो…