कोई प्रार्थना धर्मनिरपेक्ष कैसे हो सकती है?

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अजय बोकिल

देश के एक हजार से ज्यादा केन्द्रीय विद्यालयों में बीते 53 सालों से हो रही स्कूली प्रार्थना पर पहली बार गंभीर ऐतराज उठा है। केन्द्रीय विद्यालय के ही एक पूर्व छात्र रहे और वकील विनायक शाह की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने इसे संजीदा संवैधानिक मुद्दा मानते हुए केन्द्र सरकार और केन्द्रीय विद्यालयों को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है। यह भी पूछा है कि क्या स्कूलों में कोई सर्वधर्म समभाव प्रार्थना हो सकती है?

पहली नजर में यह मुददा सही लगता है कि जब केन्द्रीय विद्यालयों में सभी धर्मों और प्रांतों के बच्चे पढ़ते हैं तो स्कूल की एसेम्बली में ऐसी प्रार्थना क्यों गाई जाए, जिससे परोक्ष रूप से भी किसी एक धर्म के प्रति झुकाव महसूस हो। याचिकाकर्ता का कहना है कि स्कूलों में जो प्रार्थना अभी गाई जाती है, वह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 व 28 की भावना के खिलाफ है और राज्य के धर्मनिरपेक्ष होने की गारंटी को नकारती है।

याचिकाकर्ता के अनुसार स्कूलों में प्रार्थना होने से बच्चों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित नहीं हो पाता। उनके जीवन में संघर्ष और स्वावलंबी होने का माद्दा बाधित होता है। उनमें हर मुश्किल में भगवान को याद करने और उससे मदद की भीख मांगने की वृत्ति घर कर लेती है। ऐसी प्रार्थना गैर हिंदुओं और नास्तिकों पर अपने धार्मिक आग्रह थोपने जैसा है। याचिका के मुताबिक संविधान का अनुच्छेद 28 (1) कहता है कि किसी भी ऐसे‍ शिक्षण संस्थान में धार्मिक आदेश नहीं दिए जा सकते, जो पूरी तरह सरकार के खर्चे से चलता हो।

इस याचिका के पीछे नीयत जो भी हो, लेकिन इससे जो सवाल उठ रहे हैं, उन पर गंभीर विमर्श जरूरी है। साथ ही इस प्रश्न का उत्तर पाना भी आवश्यक है कि क्‍या सर्वधर्म समभाव वाली भी कोई प्रार्थना है, यदि है तो वह कैसी होगी या ऐसी कोई प्रार्थना हो भी सकती है?

पहली बात तो यह कि केन्द्रीय विद्यालयों में जो प्रार्थना गाई जाती है, वह स्काउट-गाइड की भी प्रार्थना है। जब इसे लागू किया गया था तब देश में ‘धर्म निरपेक्ष’ सरकार ही थी। उसे इस प्रार्थना में कभी खोट नजर नहीं आया। इस प्रार्थना के तहत जो संस्कृत श्लोक बोले जाते हैं वो कई सांस्कृतिक आयोजनों में भी बोले जाते हैं। याचिकाकर्ता को आपत्ति जिन श्लोकों पर है, उसमें पहला है- ॐ असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय।  मृत्योर्माऽमृतं गमय। ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥ अर्थात मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो। मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मुझे मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो।

इस श्लोक में कहीं किसी धर्म, आराधना पद्धति अथवा किसी देवता का नाम नहीं है। यह अज्ञान से ज्ञान की ओर ले चलने की प्रार्थना है। यही भाव हर धर्म में अलग अलग ढंग से अभिव्यक्त किया गया है। फिर भी अगर यह ‘हिंदू’ है तो सिर्फ इसलिए कि इसे वृहदारण्यक उपनिषद से लिया गया है।

इसी प्रकार दूसरा श्लोक है- ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सहवीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥ अर्थात  हम एक दूसरे को सुरक्षा प्रदान करें। हम साथ मिलकर भोगें। हम अपनी ऊर्जा मिलाकर कार्य करें। हम मिलकर अध्ययन करें और इससे यश प्राप्त करें। हमारे बीच द्वेष के लिए स्थान न हो। इस मंत्र के भी ‘हिंदू’ होने का आधार इतना है कि इसे कृष्ण यजुर्वेद तैत्ति‍रीय उपनिषद से लिया गया है। यह श्लोक भी सामूहिकता की पैरवी करता है, जो मानवता की रक्षा और उसके सशक्तिकरण से जुड़ा है।

दूसरी आपत्ति जिस मुख्य प्रार्थना से है, वह है- ‘दया कर दान विद्या का हमे परमात्मा देना…।‘ इस प्रार्थना में ईश्वर से विद्या दान, धर्म, ईमान और देशभक्ति का शऊर सिखाने की याचना  है। यह भी किसी धर्म अथवा ईश्वर के किसी विशिष्ट रूप को लेकर सम्बोधित नहीं है। और न ही यह किसी धर्म विशेष की पैरवी अथवा श्रेष्ठता का गुणगान करती है।

लगता है कि याचिकाकर्ता की मुख्य आपत्ति ईश्वर के अस्तित्व को मान्य करने और उससे याचक की तरह कुछ मांगने अथवा उसकी दया पर आश्रित हो जाने के भाव को लेकर है। याचिकाकर्ता का तर्क है कि भारतीय संविधान में धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार अनुच्छेद 25-28 में निहित है, जो सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करता है और भारत में धर्मनिरपेक्ष राज्य सुनिश्चित करता है। इसके मुताबिक भारत गणराज्य में कोई आधिकारिक राज्य धर्म नहीं है और राज्य द्वारा सभी धर्मों के साथ निष्पक्षता और तटस्थता से व्यवहार किया जाना चाहिए। ठीक है।

लेकिन केन्द्रीय विद्यालयों में जो प्रार्थनाए गाई जाती हैं, उनसे तो ऐसी कोई ध्वनि नहीं निकलती कि इसे गाने वाला स्वयं को हिंदू मानने लगे या उसे गाकर किसी विद्यार्थी का मानस बदल जाए। माना कि प्रार्थना अक्सर कमजोर क्षणों में की जाने वाली  आध्यात्मिक क्रिया है, लेकिन यह मनुष्य के आत्मविश्वास को कमजोर करती है, ऐसा मानना दुराग्रह है। बल्कि कई बार वह मनुष्य को और बलवान बनाती है। क्योंकि प्रार्थना कोई भिक्षागीत नहीं है, वह मनुष्य की आत्मा से ‍निकले मानव मात्र के कल्याण के स्वर  हैं।

फिर ये श्लोक और प्रार्थना गीत भारतीय संस्कृ‍ति का हिस्सा हैं। किसी भी देश में कोई भी प्रार्थना उसकी मूल संस्कृति और विरासत से काट कर कैसे हो सकती है। तीनो प्रार्थनाओं में मनुष्य के ज्ञानात्मक, भावनात्मक और नैतिक रूप से बलवान होने की ही याचना है और यह किसी भी धर्म के लिए हो सकती है। कोर्ट ने पूछा है कि क्या कोई सर्वधर्म समभाव वाली प्रार्थना भी हो सकती है? अर्थात कोर्ट ने यह तो माना ही कि प्रार्थना में धर्म का भाव तो होना ही चाहिए।

अब सवाल यह है कि धर्म और ईश्वर को माइनस कर भी कोई प्रार्थना हो सकती है? अगर ऐसी कोई प्रार्थना होगी तो वह नास्तिक की होगी और कोई नास्तिक प्रार्थना क्यों और किससे करेगा? वैसे भी प्रार्थना अपने से बेहतर और शक्तिशाली से ही की जाती है। यदि किसी का ईश्वर अथवा किसी भी अदृश्य महाशक्ति में यकीन नहीं है तो फिर स्कूलों में प्रार्थना का आग्रह ही क्यों? हो सकता है दुनिया में नास्तिकों की संख्या बढ़ रही हो, लेकिन अभी ऐसी स्थिति नहीं है कि दुनिया का हवाई जहाज ऑटो मोड में डाल दिया जाए। ईश्वर की कल्पना भी मनुष्य ने ही गढ़ी है और वह उसे पूजता भी अपने कल्याण के लिए ही है।

(सुबह सवेरे से साभार)

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