शेक्सपियर ने कहा है कि नाम में क्या रखा है। गुलाब का नाम कुछ भी रख दो पर गुलाब, गुलाब ही रहेगा। कुछ ऐसा ही प्रसंग डा. भीमराव आंबेडकर के बारे में भी है। लोग उनको आंबेडकर जी के नाम से जानते जरूर हैं लेकिन वे मूल रूप से आंबेडकर थे ही नहीं। ये सरनेम उन्हें कहां से मिला, इसकी जानकारी शायद कम ही लोगों को है। तथ्य यह है कि बाबासाहब के जीवन पर दो ब्राम्हण शिक्षकों का जबरदस्त प्रभाव रहा है। उन्हीं से एक महादेव आंबेडकर ने अपना उपनाम उन्हें दिया।
भारत रत्न बाबासाहब आंबेडकर का 126 वां जन्म दिन अभी 14 अप्रैल को मना है। मध्यप्रदेश की महू सैनिक छावनी में सूबेदार रामजी मालो जी और भीमा बाई की 14वीं और अंतिम संतान के रूप में वर्ष 1891 को जन्मे बच्चे का नाम मां-पिता के संयुक्त नाम से ‘भीमराव’ रखा गया। लेकिन उन्हें आंबेडकर सरनेम कहां से मिला यह जानकारी खुद बाबासाहब द्वारा और उन पर प्रकाशित पुस्तकों में भी खोजने पर नहीं मिलती। कुछ संदर्भों से यह पुष्टि होती है कि यह नाम उनसे अत्यन्त स्नेह रखने वाले उनके एक शिक्षक, महादेव आंबेडकर ने उन्हें दिया, जो स्वयं ब्राह्मण थे।
जातीय भेदभाव की विषमताओं से उबर कर देश के जाने माने न्यायविद, अर्थशास्त्री, राजनेता और समाज सुधार के हिमालयी व्यक्तित्व बनने वाले डॉ. भीमराव अम्बावडेकर के उपनाम का संबंध उनके परिवार के मूल गांव महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले के गांव अम्बावडेकर से था। इसे उनके गुरु रहे महादेव आंबेडकर ने आंबेडकर में बदल दिया।
यह वह समय था जब छुआछूत चरम पर थी। यहां तक कि दलित विद्यार्थी कक्षा के अंदर भी नहीं बैठ सकते थे और बाहर से ही पढ़ाई करते थे। प्यास लगने पर पानी और उस बर्तन को छूने की उन्हें इजाजत नहीं थी। पानी जब दिया जाता तब ऊंचाई से उसकी धार छोड़ी जाती थी। यह कार्य स्कूल का चपरासी करता था। उसके छुट्टी पर रहने की दशा में प्यासा रहना ही तब ऐसे बच्चों की नियति थी। इसी व्यवस्था पर आधारित एक पुस्तक स्वयं डॉ. आंबेडकर ने लिखी है। इसका शीर्षक है-‘नो प्यून-नो वाटर’। इस पृष्ठभूमि में आंबेडकर नाम देने वाले प्रारंभिक गुरु महादेव आंबेडकर के बारे में और शोध की आवश्यकता अवश्य है।
पुणे विश्वविद्यालय के प्राध्यापक भालचंद फड़के के अनुसार एक दिन उनसे बहुत स्नेह रखने वाले आंबेडकर गुरू जी ने उनसे कहा कि ‘अंबावडेकर नाम का उच्चारण कठिन है। इसमें सहजता नहीं है। ऐसा करो आगे से तुम मेरा उपनाम नाम लो। इस प्रकार उन्हें आंबेडकर, नाम मिला। उन दिनों उनका घर स्कूल से काफी दूर था। आंबेडकर गुरू जी के ध्यान में यह बात आई कि यह बच्चा इतनी दूर पैदल खाना खाने जाने जाता है। तब उन्होंने कहा मेरे साथ बैठकर रोटी खाओ। इतनी दूर जाने की जरूरत नहीं है।
भीमराव के स्कूली जीवन में आंबेडकर और पेंडसे ये दो ऐसे शिक्षक थे, जिन्होंने उन्हें प्रेम और आत्मीयता का स्पर्श दिया। ये दोनों शिक्षक ब्राम्हण थे। बालक भीमराव के मन मे कहीं न कहीं आस्था के दीप इससे जले। प्राध्यापक फड़के दलितों के पक्ष में लिखने वाले महाराष्ट्र के उन पहले सवर्ण बुद्धिजीवियों में गिने जाते हैं जिन्होंने व्यक्तिगत तकलीफें झेलकर भी यह पक्ष सशक्तता से रखा। उन्होंने बाबासाहब की जीवनी भी लिखी है।
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