पिछले साल दिसंबर माह में मध्यप्रदेश के बड़वानी जिला अस्पताल में लगाए गए आई कैम्प में लापरवाही के चलते जब करीब 40 लोगों की आंखें चली गई थीं, तो बहुत हो हल्ला मचा था। वह घटना इस बात का सबसे बड़ा सबूत थी कि प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाएं किस गंभीर स्थिति से गुजर रही हैं। उस घटना ने जो चेतावनी दी थी, वह किसी भी संवदेनशील सरकार और व्यवस्था के लिए, खुद को सुधारने की दिशा में तत्काल कदम उठाने को बाध्य करने वाली थी। उसके बाद फौरी तौर पर हरकत हुई और सरकार एवं प्रशासनिक मशीनरी थोड़ी हिलती डुलती नजर आई। उस घटना पर विधानसभा में सरकार ने कहा था कि प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं को चाकचौबंद बनाया जाएगा और ऐसी घटनाएं दुबारा नहीं होने दी जाएंगी। लेकिन जैसाकि होता आया है बाद में ढाक के पत्ते तीन ही निकले।
पिछले एक सप्ताह के भीतर प्रदेश के दो शहरों में हुए हादसों ने साबित कर दिया है कि बड़ी से बड़ी घटनाएं भी सिस्टम को बहुत ज्यादा सुधार नहीं पातीं। घटनाओं के बाद चिंता के तौर पर की जाने वाली हरकतें सिर्फ दिखावा होती हैं। हाल ही में हुई घटनाओं में से पहली घटना देखिए। सबसे आधुनिक, सबसे जागरूक और सुविधा संपन्न कहे जाने वाले इंदौर शहर के सबसे बड़ी सरकारी अस्पताल महाराजा यशवंतराव चिकित्सालय में दो बच्चों को सिर्फ इसलिए जान गंवानी पड़ी, क्योंकि उन्हें ऑक्सीजन के बजाय बेहोश करने वाली गैस सुंघा दी गई। पता चला कि जीवन देने और चेतना लाने वाली हवा की लाइन गलती से चेतनाशून्य करने वाली लाइन से जोड़ दी गई थी। यह घटना इस पूरी व्यवस्था पर ही फिट बैठती है। ऐसा लगता है कि चेतना लाने वाली सारी लाइनें चेतनाशून्य कर देने वाले नियंताओं के हाथ में दे दी गई हैं।
दूसरी घटना मुरैना जिले की है। वहां भी जिला अस्पताल में बच्चों पर ही कहर टूटा। नवजात शिशुओं की जीवन रक्षा के लिए बनाए गए विशेष वार्ड में आग लग गई। वो तो भला हो अस्पताल में काम करने वालों का, वहां मौजूद लोगों का, जिन्होंने जान पर खेलकर 35 बच्चों को वहां निकाल लिया वरना मुरैना का अस्पताल इस प्रदेश के माथे पर ऐसा कलंक लगा देता, जो शायद ही कभी मिट पाता। हालांकि लाख प्रयासों के बावजूद मुरैना कांड में भी एक बच्चे को नहीं बचाया जा सका।
इससे पहले एक और घटना सागर में हो चुकी है। वह भी एक बच्चे से ही जुड़ी है। वहां एक प्रसूता को प्रसव के लिए जिला अस्पताल और मेडिकल कॉलेज के डॉक्टरों ने एक जगह से दूसरी जगह तक इतने टप्पे खिलवाए कि बेचारी महिला ने अंतत: बगैर किसी चिकित्सा सुविधा के जिला अस्पताल के परिसर में ही बच्चे को जन्म दे दिया और उस नवजात की भी मौत हो गई।
ये प्रसंग इसलिए भी और ज्यादा गंभीर हैं कि बच्चों की जान लेने वाली ये तीनों घटनाएं उन स्थानों पर हुई हैं जो संभागीय मुख्यालय हैं। मुरैना को छोड़ दें तो सागर और इंदौर में मेडिकल कॉलेज जैसे चिकित्सा संस्थान हैं। लेकिन ऐसे स्थानों पर भी न तो प्रसव की सुविधा मिल पाती है और न ही इतनी सावधानी बरती जाती कि बच्चों को कौनसी गैस सुंघाई जा रही है, कम से कम यह तो देख लिया जाए।
बुनियादी रूप से प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं की हालत लगातार बिगड़ती जा रही है। सरकारी अस्पतालों और स्वास्थ्य तंत्र में डॉक्टरों की भारी कमी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में डॉक्टरों की सेवानिवृत्ति आयु पूरे देश में 65 वर्ष करने का ऐलान भले ही कर दिया हो, लेकिन सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को पर्याप्त मात्रा में डॉक्टर उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं। हालत यह है कि मध्यप्रदेश में सरकार, स्वास्थ्य सुविधाओं को निजी हाथों में सौंपने का प्रयोग कर रही है।
लेकिन सवाल उठता है कि सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं, निजी क्षेत्र के हाथों में सौंप देने से क्या समस्या का निदान हो जाएगा? क्या निजीकरण ही सारी समस्याओं का हल है? ठीक है कि शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों पर दबाव इतना अधिक है कि सिर्फ और सिर्फ सरकारी तंत्र ही लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता। निजी क्षेत्र का सहयोग लेना सरकार की मजबूरी है। लेकिन निजी क्षेत्र की सेवाओं का खर्च वहन करना हर किसी के बूते की बात नहीं है। एक खास वर्ग निजी अस्पतालों में जाकर इलाज करवा सकता है, लेकिन ज्यादातर गरीब आबादी तो सरकारी अस्पतालों और सरकारी स्वास्थ्य तंत्र पर ही निर्भर है। ऐसे में जो लोग बड़ी उम्मीद से सरकारी अस्पतालों में जाते हैं, क्या उन्हें वहां सेहत और उनकी या उनके परिजनों की जान माल की सुरक्षा नहीं मिलनी चाहिए? ऐसी लापरवाहियों का हम क्या करें जो इंदौर,मुरैना या सागर जैसे शहरों में होती हैं। और मामला केवल इन तीन शहरों का ही नहीं है, ये तो वे मामले हैं जो संगीन होने के कारण मीडिया की नजर में आ गए। ऐसे दर्जनों छोटे बड़ हादसे प्रदेश के सरकारी स्वास्थ्य तंत्र में रोज होते हैं, उनका शिकार होने वालों का कोई धनी धोरी है या नहीं? ठीक है कि हमने प्रदेश पर चस्पा ‘बीमारू’ राज्य होने का टैग निकाल दिया है। लेकिन बीमारों पर चिपका बीमार होने का टैग निकालने लायक व्यवस्था हम कब बना पाएंगे?
गिरीश उपाध्याय