प्रणव मुखर्जी :सच्चे भारत रत्न को विदाई

-स्मृति शेष-

राकेश अचल
भारत रत्न पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को कोरोना ने हमसे छीन लिया। कोरोनाकाल में देश की वे एक अपूरणीय क्षति हैं। प्रणव मुखर्जी सबके लिए प्रणव दा थे, वे प्रगतिशीलता और परंपरा का ऐसा अद्भुत मिश्रण थे जो कम ही देखने को मिलता है। जब से पत्रकारिता में आया हूँ तभी से प्रणव दा के लिए मन में एक ख़ास किस्म का आकर्षण और आदर रहा है। ये वो जमाना था जब देश के पास चौबीसों घंटे चीख-पुकार मचाने वाले टीवी चैनल नहीं थे। हम पत्रकारों को केंद्रीय नेताओं की तस्वीरें सूचना मंत्रालय से मिलती थीं, वे भी श्वेत-श्याम। मैं जिन तस्वीरों को सहेज कर रखता था उनमें प्रमुख थे प्रणव दा।

प्रणव दा को आप एक तरफ पूरी तरह आंग्ल संस्कृति में देख सकते थे तो दूसरी तरफ खालिस भारतीय वेश-भूषा में। ख़ास बंगाली धोती में। नाटे कद के प्रणव दा देश के सर्वोच्च पद तक पहुंचे और ये उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि रही। उनका राजनीतिक जीवन आधी सदी की कहानी और इतिहास दोनों है। 1969 में कांग्रेस पार्टी के राज्यसभा सदस्य के रूप में अपनी राजनितिक यात्रा करने वाले प्रणव दा 1975, 1981, 1993 और 1999 में फिर से चुने गये। आपातकाल लागू होने से कुछ साल पहले शायद 1973 में वे औद्योगिक विकास विभाग के केंद्रीय उप मन्त्री के रूप में मन्त्रिमण्डल में शामिल हुए थे।

प्रणव दा कांग्रेस में इंदिरा गाँधी और बाद में राजीव गांधी के मंत्रिमंडलों में कैबिनेट मंत्री रहे, लेकिन वे प्रधानमंत्री की दौड़ में कभी शामिल नहीं हो पाए, नाम चला भी लेकिन आगे नहीं बढ़ा। वे 1984 में भारत के वित्त मंत्री बने। सन 1984 में,  यूरोमनी पत्रिका के एक सर्वेक्षण में उनका विश्व के सबसे अच्छे वित्त मंत्री के रूप में मूल्यांकन किया गया। उनका कार्यकाल भारत के अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के ऋण की 1.1 अरब अमरीकी डॉलर की आखिरी किस्त नहीं अदा कर पाने के लिए चर्चित भी रहा। वित्त मंत्री के रूप में प्रणव के कार्यकाल के दौरान डॉ. मनमोहन सिंह भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर थे।

तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव के बाद प्रणव दा राजीव गांधी की टीम के कथित षड्यन्त्र के शिकार हुए। उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया। कुछ समय के लिए उन्हें कांग्रेस पार्टी से निकाल दिया गया। उस दौरान उन्होंने अपने राजनीतिक दल राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस का गठन किया,  लेकिन सन 1989 में राजीव गांधी के साथ समझौता होने के बाद उन्होंने अपने दल का कांग्रेस पार्टी में विलय कर दिया। शायद पार्टी चलाना उनके बस की बात भी नहीं थी।

एक बार फिर राजीव गांधी की हत्या के बाद प्रणव दा का भाग्य जागा। प्रधानमंत्री बने पी.वी. नरसिंह राव ने पहले उन्हें योजना आयोग के उपाध्यक्ष के रूप में और बाद में कैबिनेट मन्त्री के तौर पर नियुक्त करने का फैसला किया। उन्होंने राव के मंत्रिमंडल में 1995 से 1996 तक पहली बार विदेश मन्त्री के रूप में कार्य किया। 1997 में उन्हें उत्कृष्ट सांसद चुना गया। सन 2004 में,  जब कांग्रेस ने गठबन्धन सरकार के अगुआ के रूप में सरकार बनायी,  तो कांग्रेस के प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह सिर्फ एक राज्यसभा सांसद थे। इसलिए जंगीपुर (लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र) से पहली बार लोकसभा चुनाव जीतने वाले प्रणव मुखर्जी को लोकसभा में सदन का नेता बनाया गया। उन्हें रक्षा,  वित्त,  विदेश,  राजस्व,  नौवहन,  परिवहन,  संचार,  आर्थिक मामले,  वाणिज्य और उद्योग,  समेत कई महत्वपूर्ण मन्त्रालयों के मन्त्री होने का गौरव भी हासिल है।

प्रणव दा हर मोर्चे पर खरे उतरे। वे कांग्रेस संसदीय दल और कांग्रेस विधायक दल के नेता रहे, लोकसभा में सदन के नेता,  बंगाल प्रदेश कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष,  कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की मंत्रिपरिषद में केन्द्रीय वित्त मन्त्री भी रहे। लोकसभा चुनावों से पहले जब प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने अपनी बाई-पास सर्जरी कराई,  प्रणव दा विदेश मन्त्रालय में केन्द्रीय मंत्री होने के बावजूद राजनैतिक मामलों की कैबिनेट समिति के अध्यक्ष और वित्त मन्त्रालय में केन्द्रीय मन्त्री का अतिरिक्त प्रभार लेकर मन्त्रिमण्डल के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे।

मुझे स्मरण है कि जब सोनिया गांधी बेमन से राजनीति में शामिल होने के लिए राजी हुईं तब प्रणव उनके प्रमुख परामर्शदाताओं में से रहे,  जिन्होंने कठिन परिस्थितियों में उन्हें उदाहरणों के जरिये बताया कि उनकी सास इंदिरा गांधी इस तरह के हालात से कैसे निपटती थीं। मुखर्जी की असंदिग्ध  निष्ठा और योग्यता ने ही उन्हें यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी और प्रधान मन्त्री मनमोहन सिंह के करीब रखा और इसी वजह से जब 2004 में कांग्रेस पार्टी सत्ता में आयी तो उन्हें भारत के रक्षा मंत्री के प्रतिष्ठित पद पर पहुँचने में मदद मिली।

किस्मत का खेल देखिये कि जो प्रणव दा कभी प्रधानमंत्री की दौड़ में हमेशा पिछड़ते रहे उन्हें राष्ट्रपति पद तक पहुँचने में सफलता मिली। धुर कांग्रेसी होने के बावजूद प्रणव दा ने केंद्र में भाजपा गठबंधन की सरकार बनने के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के मुख्यालय पहुंचकर भी सबको चौंकाया। प्रणव दा राजनीति में अपने बच्चों को ज्यादा स्थापित नहीं कर पाए लेकिन उनका बेटा और बेटियां अपने ढंग से राजनीति में उपस्थिति बनाये हुए हैं।

पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले में किरनाहर शहर के निकट स्थित मिराती गाँव के एक ब्राह्मण परिवार में कामदा किंकर मुखर्जी और राजलक्ष्मी मुखर्जी के यहाँ 11 दिसंबर 1935 को जन्मे प्रणव दा एक दिन भारतरत्न भी बनेंगे ये किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। कांग्रेस ने उन्हें 2008 में पद्मभूषण माना तो 2019 में भाजपा ने उन्हें भारत रत्न बना दिया। आज की घृणित राजनीति में प्रणव दा का न होना एक बड़ा शून्य पैदा कर गया है। आज किसी भी दल के पास उन जैसा प्रकांड और धीर-गंभीर नेता नहीं है। प्रणव दा से दो बार मिलने का अवसर मिला, उनकी स्मृत्यों को सादर नमन।

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