ग्‍वालियर : एक बीमार शहर में हम और आप

राकेश अचल

पाकिस्तान में बोलने से भारत का अपमान हो सकता है, इस खतरे के बावजूद मै अपने शहर में अपने ही शहर के खिलाफ लिख रहा हूँ, यानि ‘आ बैल मोहे मार’ वाली कहावत चरितार्थ कर रहा हूँ। आप इस आलेख के साथ जो तस्वीर देख रहे हैं एक दशक से ज्यादा पुरानी है। यहां किसी जमाने में एक पुस्तकालय था लेकिन इस इमारत को तत्कालीन प्रशासन ने अतिक्रमण और यातायात में बाधक बताकर नियमों को बलाए-ताक रखकर भग्न कर दिया था।

इस पुस्तकालय का नाम शायद, शायद क्या… सचमुच माधव पुस्तकालय था। एक पार्क के कोने की जमीन पर जब ये पुस्तकालय बना तब किसी ने इसका विरोध नहीं किया था। वर्षों यहां लोग आते-जाते, बैठते, पढ़ते-लिखते रहे, लेकिन अचानक प्रशासन की वक्रदृष्टि इस इमारत पर पड़ी और ये इमारत बाबरी मस्जिद की तरह ढहा दी गयी। लेकिन अब शहर की उदासीनता देखिये की किसी ने भी इस भग्न इमारत को दोबारा बनाने का साहस नहीं दिखाया। प्रशासन भी इस इमारत को भग्न कर सब कुछ भूल गया। यदि ये इमारत अवैध थी तो इसे जमींदोज किया जाना था और यदि नहीं थी तो इसे दोबारा यथास्थिति में पहुंचाया जाना था, लेकिन ये दोनों ही काम नहीं हुए।

समय के साथ प्रशासन बदल गया। नए कलेक्टर आये और चले गए। किसी को ये भग्न इमारत नजर नहीं आई। माधव पुस्तकालय चलाने वाले लोग या तो मर-खप गए या उन्होंने अपने आपको मृत मान लिया। एक सतीश सचेती के जाने के बाद कोई दूसरा सचेती पैदा नहीं हुआ, जो इस भग्न इमारत को नवजीवन दे सकता। अदालतों में जाता, इन्साफ की गुहार करता। किसी बीमार शहर में यदि ऐसे हादसे होते हैं तो शायद ऐसा ही होता होगा, जैसा हमारे शहर ग्वालियर में हुआ है।

ग्वालियर शहर ऐतिहासिक शहर है, इसलिए यहां हर काम ऐतिहासिक होता है। राजनीति में हो, चाहे राजनीति से हटकर। इस भग्न इमारत की फ़िक्र न यहां की नगर निगम को है, न यहाँ के सांसद और विधायक को। बेचारे पार्षद की तो कोई हैसियत ही नहीं होती। शहर को स्मार्ट बनाने की योजना में भी इस इमारत को शुमार नहीं किया जा सका। कौन करता इस भग्न इमारत की चिंता?आज के वर्चुअल युग में पुस्तकालयों की चिंता कौन करता है। ये इमारत जिस संस्‍थान के नाम थी वो ही संस्था दहीमंडी में भी एक पुस्तकालय चलाती थी, अब उसका भी आता-पता नहीं है। यानि एक साजिश के तहत सब कुछ किया जा रहा है, लेकिन शहर है कि कुम्भकर्णी नींद में सो रहा है। यदि ये मामला विवादास्पद भी है तो क्यों नहीं इसका निराकरण हो रहा? कौन जिम्मेदार है इसके लिए?

हमारे शहर में ये लापरवाही, उदासीनता या निकम्मेपन का पहला और आखरी उदाहरण नहीं है। दर्जनों उदाहरण हैं। हमने युगों पहले अपना टाउन हाल गंवा दिया था। एक दशक से उसे सवांरा जा रहा है लेकिन काम पूरा नहीं हो रहा। हमने विक्टोरिया की याद में बनी एक इमारत को दशक पहले आग से जला दिया था। उसका जीर्णोद्धार भी हुआ लेकिन इसे भी दोबारा जनता वापस हासिल नहीं कर पायी। यहां स्थानीय भाग्यविधाता एक संग्रहालय बनाना चाहते हैं, लेकिन ये कब बनेगा कोई नहीं जानता। यानि हम एक बार जो खो देते हैं उसे दोबारा हासिल नहीं करना चाहते। ये सब तब होता है जब हमारे शहर पर शिवराज और महाराज की कृपा हमेशा से बरसती आई है।

हमने कहा न कि हमारा शहर ऐतिहासिक शहर है। यहां झांसी की एक रानी की शहादत का स्मारक है, लेकिन ये राष्ट्रीय स्मारक सिर्फ राजनीति के काम आता है। एक परिवार को गरिआने के लिए ही इसका सबसे ज्यादा इस्तेमाल हुआ है। इस स्मारक को हम आज तक राष्ट्रीय स्मारक का दर्जा नहीं दे पाए। सरकारें आयीं-गयीं लेकिन इस स्मारक के विस्तार की योजनाओं को अमली जामा नहीं पहनाया जा सका। हमारी सरकार के पास पैसे की कोई कमी नहीं है, लेकिन दुर्भाग्य इस स्मारक का है। पांच महीने अपने कर्मचारियों को वेतन न बाँट पाने वाले नगर निगम के पास इस स्मारक की देखभाल का जिम्मा है। इस स्मारक की आड़ में गाली खाने वाले लोग भी इसकी परवाह नहीं करते।

हमारी इच्छाशक्ति का ये हाल है कि हमारे शहर में स्थित एक किले पर चढ़ने के लिए हम तीन दशकों में एक रोप-वे नहीं बना पाए। जबकि इन तीन दशकों में भोपाल, सतना और न जाने कहाँ-कहाँ छोटे-छोटे ठिकानों पर रोप-वे बन गए, लेकिन हमारे पास बहाने ही बहाने हैं। रोप-वे का शिलान्यास करने वाले महापौर अब सांसद बन गए लेकिन रोप-वे नहीं बनना था सो नहीं बना, क्योंकि हम इसे बनाना ही नहीं चाहते। यथास्थिति में ही हम सब खुश हैं। हमारे भागयविधाताओं को प्रगति मंजूर ही नहीं है। जनता भी शायद विकास से कोई वास्ता नहीं रखना चाहती, उसे तो लमलेट होने वाले जनसेवक चाहिए।

मुझे लगता है कि मैं अपने शहर की उपेक्षा को लेकर बेकार गागरोनी गाए जा रहा हूँ। शायद दूसरे शहरों का भी ऐसा ही हाल होगा, लेकिन दूसरे शहरों के लोग बताते हैं कि नहीं भाई हमारे शहर में तो विकास हो रहा है। अब सब आपके ऊपर छोड़ रहा हूँ। ग्‍वालियर वाले जानें कि उन्हें क्या चाहिए? ग्वालियर में अभी चुनाव हो रहा है। थोपा हुआ चुनाव है, लेकिन इस चुनाव में भी यदि शहर जाग जाये तो इन भग्न इमारतों को शहर की शर्म बनने से रोका सकता है।

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