देश में कुछ घटनाएं सरेआम हो रही हैं, तो कुछ बहुत चुपचाप। और दोनों तरह की घटनाओं से समाज का तानाबाना बदल रहा है। यह बदलाव समाज को किस दिशा में ले जाएगा या फिर यह समाज अथवा देश के लिए कितना हितकर होगा और कितना अहितकर, यह अभी कहना मुश्किल है। ऐसा इसलिए है क्योंकि देश का राजनीतिक मानस बदल रहा है। समाज में हो रहा बदलाव राजनीतिक मानस बदलने के कारण है या फिर समाज के मानस में बदलाव के कारण राजनीतिक स्थितियां बदल रही हैं, यह समाजशास्त्रियों और राजनीति शास्त्र के विद्वानों, दोनों के लिए शोध का विषय है।
मेरी बात को कुछ सार्वजनिक और कुछ व्यक्तिगत घटनाओं से समझिए। सार्वजनिक घटनाओं में एक घटना अलवर की है। कथित गोरक्षकों द्वारा की गई पिटाई के कारण एक मुस्लिम की मौत का यह ताजा मामला संसद से लेकर सड़क तक गरमाया हुआ है। मेरे हिसाब से इस मामले में जो तथ्य अनदेखा हो रहा है वो पीडि़त पक्ष का यह कहना है कि वे दूध का व्यवसाय करने के लिए गायें खरीदकर ले जा रहे थे न कि उन्हें मारने के लिए। क्या समाज यह स्वीकार करने को भी तैयार नहीं है कि मुस्लिम सिर्फ मांस का ही व्यवसाय नहीं करते वे दूध के धंधे में भी हैं।
शुक्रवार को झारखंड से खबर आई कि राज्य के गुमला जिले में 20 साल के एक मुस्लिम युवक को गांव वालों ने पेड़ से बांधकर पीटा जिससे उसकी मौत हो गई। यह युवक गांव की ही एक हिन्दू महिला के साथ रिलेशनशिप में था। (स्रोत- हिन्दुस्तान टाइम्स डॉट कॉम 7 अप्रैल 2017)
शुक्रवार को ही एक और खबर छपी कि उत्तरप्रदेश के बागपत जिले के फौलादनगर गांव की एक मुस्लिम युवती तीन तलाक की प्रथा से इतनी ज्यादा डर गई कि उसने न सिर्फ अपना धर्म बदला बल्कि गांव के ही एक हिन्दू युवक के साथ आर्य समाज मंदिर में फेरे भी ले लिए। युवती ने पुलिस की मौजूदगी में मीडिया से कहा- ‘’सात जन्मों का रिश्ता तीन बार तलाक बोलकर झटके में खत्म कर दिया जाता है। मैं तीन तलाक को लेकर हमेशा भयभीत रहती थी। इसलिए मैंने हिन्दू धर्म अपना लिया क्योंकि यहां गृहस्थी सुरक्षित है।‘’ (स्रोत- नवदुनिया, भोपाल 7 अप्रैल 2017)
मैंने 6 अप्रैल को इसी कॉलम में भोपाल की एक घटना का जिक्र किया था। यह घटना अंतर्राष्ट्रीय वेबसाइट हफिंगटन पोस्ट ने एक खबर के रूप में जारी की थी। खबर के मुताबिक भोपाल में एक मुस्लिम दंपति को फ्लैट बेचने से यह कहते हुए इनकार कर दिया गया कि उस काम्प्लैक्स में मुस्लिमों को मकान नहीं दिया जाता। संबंधित महिला ने इसे सांप्रदायिक आधार पर पक्षपात बताते हुए अपने मौलिक अधिकारों का हनन कहा और मानवाधिकार आयोग तथा पुलिस को शिकायत की।
मेरे उस कॉलम पर भी कई प्रतिक्रियाएं आई हैं। उनमें से दो प्रतिक्रियाओं का मैं यहां जिक्र करना चाहूंगा। पहली प्रतिक्रिया देवास से सुबह सवेरे के नियमित पाठक और लेखक ओम वर्मा की है। उन्होंने कहा कि–‘’किसी भी सोसायटी के संचालकों को यह कानूनी अधिकार न भी हो, तो भी यह नैतिक अधिकार तो होना ही चाहिए कि वे अपना मकान किसे बेचें या किराये पर दें। ऐसे हर प्रकरण को सांप्रदायिक नज़रिए से नहीं देखा जाना चाहिए।‘’
अपने परिवार का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि मैं न तो सांप्रदायिक हूं, न ही मुस्लिम विरोधी, लेकिन उसके बावजूद जब हमें अपना पैतृक मकान बेचना था तो हमने तय किया कि उसी को बेचेंगे जो शाकाहारी हो और पीने वाला न हो। इस शर्त के चलते न सिर्फ कई मुस्लिम बल्कि कई हिंदू खरीदार भी लौट गए। अंतत: हमने मकान अपनी शर्तों पर ही बेचा। हमने यह इसलिए भी किया क्योंकि हमारे दोनों पड़ोसी शुद्ध शाकाहारी थे। हम उनके लिए समस्या छोड़कर कैसे जा सकते थे।
कुछ ऐसी ही प्रतिक्रिया भोपाल के जाने माने वास्तुविद अमोघ गुप्ता की भी थी। उन्होंने कहा कि ऐसे मामलों में हमें दो चीजों को अलग करके देखना पड़ेगा। हमारे यहां दो तरह के अधिकार हैं। एक है संवैधानिक अधिकार और दूसरा व्यक्तिगत अधिकार। संवैधानिक अधिकार के हिसाब से भोपाल की शिकायतकर्ता महिला की बात ठीक हो सकती है, लेकिन व्यक्तिगत अधिकार के लिहाज से नहीं। आप किसी को इस बात के लिए बाध्य नहीं कर सकते कि वह अपना मकान किसे बेचे या किसे न बेचे या फिर किसे किराये पर दे या न दे। यह उसके अधिकार क्षेत्र का मामला है।
अमोघ गुप्ता का यह भी कहना था कि यह व्यक्ति के साथ साथ उसके आसपास रहने वालों के सुखाधिकार का भी मामला है। कई बार रहन सहन के तौर तरीके या खान पान की आदतों के कारण दूसरे लोगों को दिक्कत होती है। यह उनके व्यक्तिगत अधिकारों का हनन है। इसे कैसे भुलाया जा सकता है। जरा कल्पना कीजिए कि किसी सात्विक और शाकाहारी परिवार के ठीक बगल में रोज मांसाहार होने लगे तो उस पर क्या बीतेगी? एक बार किसी के पड़ोस में आ जाने के बाद क्या उससे कहा जा सकता है कि वह क्या खाए और क्या न खाए?
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इन सभी घटनाओं और प्रतिक्रियाओं के बाद मैं खुद तय नहीं कर पा रहा हूं कि कौनसा पक्ष सही है और कौनसा गलत। फिर सोचता हूं, हमारी मूल समस्या ही ऐसे मामलों को सही या गलत की तराजू पर तौलने की है। बेहतर यही होगा कि हम इन्हें आपसी समझ की तराजू पर तौलें। इस बात को समझना बहुत जरूरी है कि कोई भी व्यक्ति चाहे वह किसी भी धर्म या संप्रदाय का हो, यदि दूसरे व्यक्ति की निजता में हस्तक्षेप करेगा या स्वयं को थोपने का प्रयास करेगा तो वह किसी सूरत में स्वीकार्य नहीं होगा…।