डर की जंजीरों में जकड़ाते हिन्‍दू पर्व

अतुल तारे 

देश के प्रत्येक राज्य में और राज्य के प्रत्येक शहर में ऐसे क्षेत्र चिन्हित किए जाते रहे हैं, किए जाते हैं कि यह क्षेत्र मुस्लिम बहुल क्षेत्र है। लिखने का यह आशय कतई नहीं कि देश के सभी मुस्लिम देश के प्रति आस्थावान नहीं हैं, पर इन क्षेत्रों की आबोहवा, आपको अपने ही देश में कई बार यह अनुभव करा देती है कि आप भारत में नहीं हैं किसी मुस्लिम देश में हैं। देश का बहुसंख्यक माना जाने वाला हिंदू समाज धीरे-धीरे या तो वहाँ से अपना ठिकाना बदलता है और अगर विवशता में नहीं बदलता तो वह ‘डर’ कर रहने लगता है। यह बात अलग है कि वह अमीर खानों या शबानाओं जैसे यह नहीं कहता कि उसे भारत में ‘डर’ लगता है। वह यह दो कारणों से नहीं कहता, एक उसे अपने देश से बेइंतहा प्यार है या फिर वह यह भी जानता है कि भारत में ही अगर वह सुरक्षित नहीं है, तो जाए कहाँ?

यह प्रश्न अचानक आज नहीं जन्मा है? घाटी को पंडितों से खाली हुए दशकों हो गए, पर देश के हर हिस्सों में ऐसी घाटियाँ बन रहीं हैं, बढ़ रही हैं। पर शांतिप्रिय हिन्दू समाज ने इसे आज दिनांक तक सहन किया और कर रहा है। देश में राष्ट्रीय चेतना की लहर ने इन सवालों को फिर एक बार सबके सामने उपस्थित किया है। विधर्मी शक्तियाँ यह आरोप लगा रही हैं कि करौली (राजस्थान) में या खरगोन (म.प्र) में वर्ष प्रतिपदा या रामनवमी पर हिंदू समाज ने अपनी शोभा यात्रा मुस्लिम बहुल क्षेत्रों से क्‍यों निकाली। क्या अर्थ समझा जाए इन आरोपों का? रामनवमी भारत में कब, कहाँ और कैसे मनाना है, यह तय करने का हक भी क्‍या हिन्दू समाज को नहीं है? क्या देश में पूजा-पद्धति के आधार पर क्षेत्र को इस प्रकार मान्यता दी जाएगी।

आज भोपाल जो प्रदेश की राजधानी है, वहाँ प्रशासन को शोभा यात्रा का मार्ग बदलना पड़ा। क्या यह प्रशासन की विफलता से अधिक सामाजिक स्तर पर एक वर्ग विशेष में कितना जहर है, यह सोचने का विषय नहीं है? खरगोन और करौली सहित देश के दंगाइयों को यह प्रमाण पत्र देना कि उन्हें उत्तेजित किया गया, क्‍या उनके अपराध को मान्यता देना नहीं है? मुस्लिमों में नाराजगी हुई और उन्होंने प्रतिक्रिया स्वरूप पत्थर फेंके। क्या बकवास है? सालों से हर साल मुस्लिम समाज के दो एक बार जुलूस शहर को अस्त-व्यस्त करते हुए निकलते रहे हैं। सड़कें जाम हुई हैं। गाड़ियों के सायलेंसर निकाल कर कान फटने की हद तक शोर हुआ है। हथियार लहराए गए हैं और देश की पुलिस इन शांति दूतों के पीछे-पीछे उन्हें सुरक्षा देती हुई निकलती हम सबने देखी है। कभी कहीं से आवाज नहीं आई कि आप तो अपने ही मोहल्लों में जुलूस निकालो शेष जगह हिन्दू समाज रहता है।

ग्वालियर ही नहीं देश के हर हिस्‍से में नमाज के नाम पर जगह-जगह सड़क जाम करने के दृश्य आज भी देखे जाते हैं। ‘शाहीन बागों’ का यह विस्तार एक हकीकत बन चुका है। पर प्रशासन ने इस पर कोई संज्ञान लिया हो, ऐसा दिखाई नहीं दिया न ही करौली और खरगोन पर शांतिदूतों के पैरोकारों ने कभी ज्ञान दिया कि भाई तुम ऐसा क्यों करते हो? आज जब ग्वालियर में एक चिन्हित क्षेत्र में एक संगठन ने हनुमान जयंती पर शोभा यात्रा का मन बनाया तो प्रशासन के हाथ पांव फूल गए। हिंदू समाज कण-कण में ईश्वर का वास मानता है। वह जिद्दी नहीं है। वह संकल्पवान है। वह इतने वर्षों से यह कह भी नहीं रहा था, सोच भी नहीं रहा था। हिन्दू समाज तो जड़ में भी संवेदना का अनुभव करता है। उसके लिए आवश्यक है भी नहीं कि वह किसी ऐसे ही क्षेत्र से शोभा यात्रा निकाले जिससे कोई आहत हो? पर प्रश्न यह है कि यह आहत होने का भाव है ही क्यों? और कौन इन तत्वों को खाद-पानी दे रहा है? अगर समय रहते इन पर रोक नहीं लगी तो वह दिन दूर नहीं कि भारत में रह कर ही भारतीय पर्व मनाना एक सपना हो जाए या शायद कोई अपराध?(मध्यमत)
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