बार-बार ‘लॉकडाउन’ की मजबूरी

राकेश अचल

मध्यप्रदेश के ग्वालियर शहर समेत देश के अनेक शहरों में प्रशासन को दोबारा ‘लॉकडाउन’ लागू करने के लिए विवश होना पड़ रहा है। इस मजबूरी के पीछे कोरोना का रह-रह कर होने वाला विस्फोट है, लेकिन सवाल ये है कि क्या हम बिना ‘लॉकडाउन’ के कोरोना विस्फोट को नहीं रोक सकते? कोरोना के प्रसार को रोकने की कोई और तकनीक हम पिछले चार महीने में ईजाद नहीं कर सके हैं? क्या ‘लॉकडाउन’ ही इस महामारी से मुकाबले का पहला और आखरी हथियार है?

महाराष्ट्र समेत देश के अधिकांश हिस्सों में जैसे-जैसे ‘अनलॉक’ की प्रक्रिया शुरू हुई वैसे-वैसे कोरोना की वापसी भी तेज गति से हुई। इसका सीधा-सीधा मतलब है कि कोरोना को न गरमी मार पा रही है और न बरसात। दवाएं तो हैं ही नहीं, इम्युनिटी बढ़ाने वाली दवाओं के सहारे भी कोरोना को रोका जाना आसान काम नहीं रह गया है। ‘अनलॉक-1’ और 2 के तहत देश में जैसी गतिविधियां होना थीं वैसी नहीं हुईं। न सार्वजनिक यातायात के लिए सड़कें खुलीं और न रेलें चलीं। हवाई जहाज सेवा भी चलकर लड़खड़ा गयी, लेकिन इस बीच सबसे ज्यादा गतिविधियां राजनीतिक चलीं और शायद इसी के कारण कोरोना को वापस लौटने का रास्ता मिल गया।

मध्यप्रदेश में मंत्रिमंडल के पुनर्गठन और 25 सीटों के लिए उपचुनाव के कारण राजनीतिक गतिविधियां तमाम प्रतिबंधों को धता बताते हुए जारी हैं। राजस्थान में कांग्रेस की सरकार को गिराने का खेल चल ही रहा है। बिहार में विधानसभा चुनाव को लेकर सभी राजनीतिक दल सड़कों पर हैं। यही हाल बंगाल का है। दिल्ली तो इन राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र रहता ही है। पहले ये राजनीतिक गतिविधियां ‘वर्चुअल’ थीं लेकिन अब ‘एक्चुअल’ हो गयीं हैं। नेताओं को जनता के जीवन की रक्षा की कोई फ़िक्र है नहीं और जनता तो ठहरी ही बावली है ।

अपने शहर ग्वालियर की बात करूं तो यहाँ एक दिन में सौ से लेकर 190 तक कोरोना के नए मरीज सामने आ रहे हैं। आसपास के जिलों का भी यही हाल है। कमोबेश यही स्थिति समूचे देश की है। कहीं कम तो कहीं ज्यादा। मुंबई में सात पहरों के बीच रहने वाले लोग भी कोरोना के शिकार बन रहे हैं। जाहिर है कि कोरोना किसी के बस में नहीं है। ऐसे में प्रशासन के पास एक बार फिर ‘लॉकडाउन’ का सहारा लेने के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचा है। एक बार फिर जिलों और राज्यों की सीमाएं सील करने की नौबत आ गयी है, लेकिन हम सुधरने को राजी नहीं हैं।

कोरोना आपदा को अवसर में बदलने वाले लोग शातिर हैं, उन्होंने कोरोना से आतंकित अवाम को जो बेचना था वो बेच लिया है और जो बेचना चाहते हैं वो बेचने में लगे हैं। असहाय जनता को कुछ भी पता नहीं। सब अँधेरे में या किसी अंधी सुरंग में दौड़े जा रहे हैं। अगर कोई सजग है तो केवल नेता हैं, उन्हें अपनी कुर्सी की फ़िक्र है, जनता की नहीं। जनता कल भी भगवान के भरोसे थी और आज भी है। कल भी उसने नेताओं के कहने पर थाली और ताली बजाई थी और आज भी वो सब कुछ करने को तैयार है, लेकिन अब नेताओं के पास शायद कोई टोटका शेष बचा नहीं है।

कोरोना काल में हम कितने आत्मनिर्भर हुए हैं हमें पता नहीं। हमारे लिए घोषित किये गए विशेष पैकेज का हमारे ऊपर क्या असर पड़ा है, हमें पता नहीं, क्योंकि हमारी जिंदगी कोरोना के आने के बाद जैसी थी आज भी वैसी ही है। हमारे रोजगार जाने थे सो गए, वे आज तक लौटकर नहीं आये। जो लोग करोड़ों की संख्या में शहरों से जान बचाकर गांवों की ओर लौटे थे वे ‘न घर के रहे और न घाट के।‘ अब गांवों में भी मौत की गश्त शुरू हो गयी है।

हम उन 80 करोड़ लोगों के बारे में कुछ नहीं लिख सकते जिन्हें प्रधानमंत्री अन्नपूर्णा योजना के तहत मुफ्त का राशन मिलने का दावा किया जा रहा है। हमें नहीं मालूम कि केवल मुफ्त के अनाज से जीवन कैसे चल सकता है? क्या उसे नौन, तेल, लकड़ी के अलावा कपड़े और दवाओं की जरूरत नहीं पड़ती?

आज मैं आलोचना के लिए कुछ भी नहीं लिख रहा। मैं पूरी तरह ‘पॉजिटिव’ हूँ, मेरा तो मानना है कि यदि इस समय तरीके से देश की जनता और अर्थव्यवस्था की जांच करा ली जाये तो सबके सब ‘पॉजिटिव’ ही निकलेंगे। निगेटिव केवल वे ही लोग हैं जो स्पेशल हैं, जिनके हाथ में सत्ता है, व्यवस्था है, अस्पताल हैं। हमारे-आपके हाथ में कोरोना के सिवाय क्या है भला? अगर आपके पास कुछ हो तो आप सौभाग्यशाली हैं। इसके लिए आपको ईश्वर का आभार मानना चाहिए।

एक हकीकत और है, जिसे सरकार तो तस्लीम नहीं करेगी लेकिन समाज को करना चाहिए। वो ये है कि बीते चार महीने में कोरोना ने हमारी संवेदनाओं का भी कत्ल कर दिया है। हमारे हाथ से आने-जाने के साधन पहले ही छीन लिए गए हैं। हम अपने नाते-रिश्तेदारों की तो छोड़िये आस-पड़ोस के मित्रों से भी मिलने से कतरा रहे हैं। लोग मर रहे हैं लेकिन कोई मातमपुर्सी के लिए नहीं निकल रहा।

हमारी खुशियों को न जाने किसकी नजर लाग गयी है। सबसे करीब का रिश्ता माँ-बाप का होता है, लोग अब इस रिश्ते का निर्वाह करने के लिए भी तरस रहे हैं। कहीं सीमाएं सील हैं तो कहीं इलाके कन्‍टेनमेंट जोन बने हुए हैं, और यदि कुछ नहीं है तो जाने-आने पर कोरंटीन रहने की मजबूरी तो है ही।

हाथ की कलाई पर बंधी घड़ी हो या आपके मोबाइल सब कोरोना मीटर के जरिये आंकड़े दे-देकर थक गए। लेकिन कोई चेतने को राजी नहीं है। आज की तारीख में दुनिया के सवा करोड़ से अधिक लोग कोरोना की चपेट में हैं, 575525 अपनी जान गंवा चुके हैं। यद्यपि 76  लाख से ज्यादा ठीक भी हुए हैं। भारत में भी संक्रमितों का आंकड़ा 9  लाख को पार कर चुका है, 23  हजार से ज्यादा अपनी जान से हाथ धो चुके हैं।

अब सवाल यही है कि इस कोरोना से लॉकडाउन के जरिये निबटा जाये या जान हथेली पर रखकर ही जिया जाये। मान लिया जाये कि- ‘जिसकी आ गयी है वो जाएगा ही’ चाहे उसे कोई सड़क दुर्घटना ले जाये या कोरोना! तय आपको करना है। सरकार की चिंताएं कुर्सी की पहले हैं, आपकी बाद में। यही परम सत्य है।

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