सुनो! क्या तुम बता सकते हो… इस डाल से फुदक कर, उस डाल पर जाते हुए… बीच में पड़ने वाले तार पर, किसी कुशल नटनी की तरह… ठुमकते हुए, उस गिलहरी को, आखिरी बार तुमने कब देखा था…? क्या तुमने गौर किया कि वह गिलहरी कहां गई?
क्या तुम्हें याद है, अपने मुंह में छोटा-छोटा सा, कुछ-कु़छ दबाए हुए… कतार में जाने कहां से आतीं और जाने कहां को जातीं, वे चींटियां, जिन्हें पकड़ने की कोशिश में, तुम्हारी नन्हीं उंगलियों पर, उन्होंने काट लिया था और तुम चीखते हुए आ लिपटे थे, मां के आंचल से…
क्या तुम्हारा ध्यान जाता है उस पेड़ पर, जो हर साल पतझड़ में नंगा हो जाता है, जैसे बचपन में तुम हो जाया करते थे… और थोड़े दिनों बाद, पहले नन्ही कोंपलों और फिर नाजुक से हरे पत्तों से, ढंक जाता है उसका बदन। ठीक वैसे ही जैसे मां तुम्हें नहलाने के बाद, कोरे कपड़े पहना दिया करती थीं…
क्या तुम पता दे सकते हो उस चिडि़या का, जो हर साल तुम्हारी खिड़की के ऊपर वाले रोशनदान पर, अपना घोसला बनाने के लिए, जुटाए गए तिनकों से, तुम्हारी पढ़ने की टेबल पर ढेर सारा कचरा फैला देती थी और तुम हुश.. हुश.. कर उसे कमरे से बाहर करते थे…
किसी स्टूल या टेबल पर चढ़कर, क्या कभी आज भी तुम झांकते हो उस रोशनदान की सतह पर, जहां उस चिडि़या के अंडे रखे होते थे और उन अंडों में से निकलने वाले चीं चीं करते चिडि़या के बच्चों को तुम अपने पास सुलाने की जिद किया करते थे…
शायद इनमें से कोई भी बात तुम्हें अब याद नहीं होगी। मुझे भी ये बातें इसलिए याद आईं क्योंकि मंगलवार की सुबह सारे अखबार धरती को बचाने, पर्यावरण की सुध लेने, जलस्रोतों के सूखते जाने और हवा के जहरीला होने की खबरों से भरे पड़े थे।
अपने सामने चारों तरफ फैली पड़ी कुदरत की चिंता की उन खबरों के बीच मैं सोचता रहा कि हम समस्याओं पर या तो रोते हैं या फिर उन पर चिंता जताते हैं। हम किसी के न होने पर बिसूरते हैं, पर उसके होने पर उसे महसूस तक नहीं करते।
ऊपर मैंने पेड़ की, चिडि़या की, गिलहरी की, चींटी की बात की… ये केवल उनका जिक्र भर नहीं है। ये हमारे आसपास और भी जिंदा चीजों के होने का सबूत है लेकिन हम ये सारे सबूत या तो नष्ट करते जा रहे हैं या फिर उनके होने का अहसास ही भूलते जा रहे हैं।
फूल अब हमारे लिए या तो खुशी के मौकों पर दिया जाने वाला गुलदस्ता बनकर रह गए हैं या फिर अर्थी पर चढ़ाए जाने वाले हार बनकर। वे असल में इस प्रकृति का श्रृंगार हैं, इसका अहसास अब हम कहां कर पाते हैं।
अब हम न नदी पहाड़ को महसूस करते हैं और न ही गलियों और सड़कों को। हमें तो अब याद ही नहीं होगा कि किसी ठंडी सुनसान सड़क पर बदन से लिपटते हुए कोहरे को हमने कब महसूस किया था। हमारी जिंदगी भी इन सड़कों की तरह हो गई है… बस दिन रात वही शोर, वही आपाधापी…
गुलजार ने लिखा है-
इन उम्र से लम्बी सड़कों को, मन्ज़िल पे पहुँचते देखा नहीं
बस दौड़ती फिरती रहती हैं, हम ने तो ठहरते देखा नहीं
अब हमारे जीवन के मुहावरे कुदरत से नहीं बनते, कुदरत के कहर से बनते हैं। कुदरत से मुहावरे बनाना और उन मुहावरों से जिंदगी को सीखना, समझना हमने कभी का छोड़ दिया। मुझे याद है बचपन में मुझे एक मुहावरा बताया गया- ‘पलक झपकते’। यानी बहुत तेजी से किसी काम का हो जाना।
लेकिन उस समय मुझे यकीन ही नहीं हुआ कि जितनी देर में हम पलक झपकते हैं उतनी सी देर में कोई काम कैसे हो सकता है। एक दिन पिताजी ने अचानक मुझे घर की छत पर बुलाया। बोले उस गिलहरी को बस चुपचाप देखते रहना। मैंने देखा वह गिलहरी एक पतले से तार के सहारे एक मुंडेर से दूसरी मुंडेर पर जाने की कोशिश कर रही थी।
वह थोड़ी दूर जाती और आधे रास्ते से लौट आती। मैंने कहा ये तो जा ही नहीं पा रही है। मुझे चुप रहने का इशारा करते हुए पिताजी बोले, वो छोड़ो तुम ये देखो कि आधी दूरी से ही जब वह लौटती है तो कितनी तेजी से उस तार पर मुड़ जाती है। तब ध्यान गया कि अरे हां, वो तो इतनी तेजी से मुड़ती है कि पता ही नहीं चलता। पिताजी ने कहा- इसे कहते हैं पलक झपकते मुड़ जाना…
और उसके बाद वह मुहावरा मैं कभी नहीं भूला। यह बात अलग है कि अब चीजें पलक झपकते नहीं होतीं, क्योंकि अब तो हमारे पास पलकें झपकाने तक की फुरसत नहीं है। हर कोई एकटक बस नाक की सीध में दौड़ा जा रहा है। शायद उसे लगता है कि यदि जरा भी पलक झपकाई तो वह दूसरों से पीछे छूट जाएगा।
खैर… जो बात मैं कहना चाहता हूं वो ये है कि हम पर्यावरण के संरक्षण की बात जरूर करते हैं, लेकिन कुदरत को महसूस करना, उसका अहसास करना भूलते जा रहे हैं। हम साल दर साल बस रोना रोते हैं। क्या कभी हमने पानी को, हवा को, बादलों को, घटाओं को, बसंत को, फूलों की खुशबू को, चिडि़यों की चिकचिक को दिल से महसूस करने की कोशिश की है?
गुलजार ने लिखा है- हमने देखी है उन आंखों की महकती खुशबू, हाथ से छू के इन्हें रिश्तों का इलजाम न दो, सिर्फ अहसास है ये, रूह से महसूस करो, प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो… तो पर्यावरण को बचाने से पहले हमें प्रकृति को रूह से महसूस करना सीखना होगा।
आजकल तो कविताओं के विषय और उनका स्वरूप बहुत बदल गया है। लेकिन आपको यदि मनुष्य और प्रकृति के संबंधों को समझना हो तो किसी दिन एकांत में, इसी प्रकृति के सान्निध्य में जरा सुमित्रानंदन पंत की ‘यह धरती कितना देती है’ कविता को पढ़ लीजिएगा। उसमें आपको आज के लालची मन की भी बात मिलेगी और कुदरत से होने वाले एक बच्चे के संवाद की भी…
उस कविता को पढ़ने के बाद यदि आपके पास थोड़ा सा भी ‘मन’ है…(याद रखिए मैंने ‘मन’ कहा है ‘दिमाग’ नहीं) और इत्ता सा भी उस मन के कोने में कुदरत के होने का अहसास है, तो आप जान जाएंगे कि इस धरती और इस पर्यावरण को बचाने के लिए आपको क्या करना है और क्या नहीं…