अजय बोकिल
इसे ‘अच्छे दिनों’ के आईने में न भी देखें तो संयुक्त राष्ट्र संघ की जो ताजा वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट (वैश्विक आनंद रिपोर्ट) आई है, उसमें भारत एक साल में आगे बढ़ने के बजाए 11 अंक और नीचे चला गया है। इस जले पर नमक यह कि जिस पाकिस्तान को हम रात-दिन गाली देकर खुश रहते हैं, वह तमाम बदहाली के बाद भी पिछले साल की तुलना में 5 अंक आगे बढ़ गया है। मतलब कि बुरे हालात में भी पाकिस्तान के लोग हमसे ज्यादा खुश हैं, जबकि वहां न तो कोई ढंग की सरकार है और न ही अच्छे और खुशहाल दिनों की गाजर लटकाने वाला कोई धांसू नेता।
हमसे आगे तो नेपाल, भूटान, श्रीलंका, बांगलादेश भी हैं। खुशहाली में भारत से नीचे ज्यादातर वो देश हैं, जो गृहयुद्ध में फंसे हुए हैं और जिनका अर्थ तंत्र पूरी तरह लड़खड़ा गया है। वैसे इस रिपोर्ट में टॉप फाइव में अभी भी स्केंडेनेवियाई देश ही बने हुए हैं। फर्क इतना है कि पिछले साल की रिपोर्ट में नार्वे अगर अव्वल नंबर पर था तो इस बार उसकी जगह फिनलैंड ने ले ली है। फिनलैंड पिछली रिपोर्ट में पांचवे नंबर पर था। दुनिया का सबसे दुखी और त्रस्त देश अफ्रीका का बुरूंडी है।
वैश्विक खुशहाली रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र (यूएन) हर साल जारी करता है। ताजा रिपोर्ट 14 मार्च को आई है। इसमें विश्व के 156 देशों को शामिल किया गया है। यूएन ने ऐसी रिपोर्ट बनाने और उसे जारी करने का काम 2012 से शुरू किया। इसके पहले 2011 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में प्रस्ताव पारित हुआ था। जिसका उद्देश्य खुशहाली के मकसद से विकास की समग्र परिभाषा तैयार करना था।
यह रिपोर्ट तैयार करने के लिए अर्थशास्त्रियों, मनोवैज्ञानिकों, विभिन्न सर्वेक्षणों और राष्ट्रों की सांख्यिकी की मदद ली गई। आंकड़े गैलप वर्ल्ड पोल से लिए गए। साथ ही वैश्विक मूल्य (वैल्यू) सर्वेक्षण की सहायता भी ली गई। इनके आधार पर कुछ मानक तय हुए। ये हैं- किसी देश का सकल घरेलू उत्पादन तथा प्रति व्यक्ति आय ( जीडीपी एंड परकैपिटा इनकम), सोशल रिपोर्ट, स्वास्थ्य और जीविता, पसंदीदा जीवन जीने की आजादी, सदाशयता, विश्वास और बचत। इन मानकों पर तैयार आंकड़ों के हिसाब से देशों के क्रम में ऊंच-नीच होती रहती है। मसलन वेनेजुएला कभी खुशहाली में ऊपर था, अब नीचे चला गया है। अमेरिका भी इस सूचकांक में बहुत आगे नहीं है। चीन भी पाकिस्तान से पीछे ही है।
यह तो हुई खुशहाल देशों की क्रमिक स्थिति। लेकिन किसी देश विशेष को खुशहाल कैसे माना जाए? कोई आनंदित कैसे कहलाता है? इन सवालों का जवाब यह है कि खुशहाली की तलाश और उसे पाने के लिए दुनिया भर में तमाम राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक उपक्रम सदियों से किए जा रहे हैं, लेकिन ये खटकरम वास्तव में आनंद में ट्रांसलेट कैसे और कहां होते हैं, इसका कोई ठोस उत्तर नहीं है।
माना जाता है कि देश की सामूहिक खुशहाली का सबसे पहले जिक्र भूटान के नरेश जिग्मे सिंघये वांग्चुक ने किया। उन्होंने एक सवाल के जवाब में कहा था कि भूटान जीडीपी के बजाए जीएनएच (सकल राष्ट्रीय आंनद) में भरोसा करता है। भूटान ने इसका भी एक सूचकांक तैयार किया, जिसमें आवास, आमदनी, काम (वर्क), सामुदायिकता, नागरिक अनुबंध, जीवन से संतुष्टि, सुरक्षा तथा कार्य संतुलन को आधार बनाया गया। इसी बुनियाद पर माना गया कि भूटान के लोग अत्यंत आनंदी हैं। इस पर जो अध्ययन हुआ, उसमें पाया गया कि भूटानियों का आध्यात्मिक और भौतिक जीवन में संतुलन, संचार के प्रचलित साधनों से दूरी, सुरम्य प्राकृतिक वातावरण में निवास और राजा तथा प्रजा के जीवन स्तर में बहुत ज्यादा फर्क न होना आनंद का मुख्य कारण हैं।
अब सवाल यह कि भारत जैसे देश में, जहां आध्यात्मिक आनंद से लेकर भौतिक आनंद के तमाम साधन, नुस्खे और दावे मौजूद हों, उसी भारत मां के लाल इतने नाखुश और परेशान क्यों हैं कि हमे वैश्विक आनंद की सूची में पहले पचास में भी जगह नहीं मिले? हो सकता है कुछ लोग तर्क दें कि जो दुनिया विश्व गुरु होने की हमारी हैसियत को नहीं पहचानती, उसके सूचकांकों को हमे भला क्यों स्वीकार करना चाहिए? खुशहाली की हमारी अपनी परिभाषा, पैमाने और मैकेनिज्म है। आनंद को भी हम उसी मुताबिक मापेंगे।
क्योंकि भारत में इंसान अंबानी होकर तो खुश है ही, फकीर होकर उससे भी ज्यादा खुश हो सकता है। वह राज सिंहासन पर बैठकर भी सेवक होने की खुशफहमी पालकर आनंदित हो सकता है, तो सेवक होकर भी मालिक का गुमान पाल सकता है। वह देश के लिए मिटकर भी खुश हो सकता है और भाई को मिटा कर भी आसुरी आनंद ले सकता है। वह सर्वस्व त्यागकर भी आत्मिक आंनद भोग सकता है तो हर कुछ भोगकर ऐश भी कर सकता है।
दरअसल खुश होने को शब्दों में ठीक से व्यक्त करना असंभव ही है। वह कुछ-कुछ रोमांटिक अहसास है। वह एक आतंरिक और सामूहिक अनुभूति है। आनंद एक ऐसा ‘फील’ है, जिससे जीवन धन्य हुआ महसूस हो। इसके लिए जरूरी नहीं कि आप के पास पैसा, गाड़ी बंगला हो, रुतबा और राजदंड हो ही। सरल और सहज जीवन भी आपको सच्ची खुशी दे सकता है और आपको एक तृप्त नागरिक बना सकता है।
लेकिन हम भारतीयों का आनंद मूलत: विरोधाभासों के संघर्ष का आनंद है। हम बांटने को पुण्य मानते हैं और छीनने को अधिकार। हम त्याग में मोक्ष ढूंढते हैं और भोग में सुख तलाशते हैं। हमारी संस्कृति सहजीवन की है और आचार परजीवी का। स्नेह हमारी घुट्टी में है और नीयत विद्वेष की है। गरज भारतीयता की है, सपना अमेरिका का है। आग्रह संतुलन का है, कार्य शैली असंतुलन की है। हम भारतीय हैं,लेकिन अस्मिता जातीय और प्रांतीय है। हम लोकतंत्र के आग्रही हैं, लेकिन ठोकतंत्र को परिणाममूलक मानते हैं।
जाहिर है कि इतनी विसंगतियों के बाद भारतीय खुशहाली का कोई सर्वमान्य मानक तैयार करना ‘वलर्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट’ बनाने वालों के बूते का नहीं है। सो उन्होंने हमे जनरल मानकों पर ही कसा है। यूं मध्यप्रदेश में एक पहल ‘आनंद विभाग’ की शुरुआत से हुई है, लेकिन वह सरकारी आनंद का एक नया प्रकार है, जिसका जनमानस के आनंद से दूर का रिश्ता है।
(सुबह सवेरे से साभर)