तानसेन समारोह और ग्वालियर मेले पर ग्रहण

राकेश अचल 

मध्यप्रदेश की शिवराज सिंह चौहान सरकार की ऊर्जा अब पहले जैसी नहीं रही, अब सरकार बहुत धीमी गति से चल रही है। उसकी फुर्ती केवल सियासी मुद्दों में ही दिखाई देती है। उपचुनावों के नतीजे आने के बाद सरकार को जिन जरूरी मुद्दों पर फैसला करना है, उन पर उसने मौन साध रखा है, हाँ लव-जिहाद जैसे अप्रयोज्य मुद्दों पर क़ानून बनाने की चिंता हमारी सरकार को हर वक्त रहती है। सरकार के इस रवैये के चलते तानसेन समारोह और ग्वालियर मेले के भविष्य पर ग्रहण लग चुका है।

उपचुनाव के नतीजे आने के बाद न तो अभी नए चुने विधायकों की शपथ विधि के लिए विधानसभा के सत्र की कोई तिथि तय की गयी है और न ही मंत्रिमंडल का पुनर्गठन किया गया है। सरकार को इन दोनों मामलों में कोई जल्दी नहीं है। शपथ विधि एक औपचारिकता है, उसे समय रहते निभा लिया जाएगा और मंत्रिमंडल के पुनर्गठन की कोई जरूरत सरकार अभी अनुभव नहीं करती, क्योंकि सरकार को जैसे खरामा-खरामा चलना चाहिए, वो चल रही है। लगातार उधार का घी पी रही सरकार के सामने फिलहाल न कोई एजेण्डा है और न चुनौती। लेकिन बहुत से काम हैं जिनकी ओर सरकार का ध्यान नहीं है।

मध्यप्रदेश में सिंहस्थ के बाद लगने वाले सबसे बड़े ग्वालियर व्यापार मेले को लेकर सरकार पूरी तरह उदासीन है। इस मेले के लिए बने प्राधिकरण के अध्यक्ष और संचालक मंडल का मनोनयन अधर में होने के साथ ही ये भी पता नहीं है कि इस बार ग्वालियर मेला लगाया भी जाएगा या नहीं? आशंका ये है कि सरकार कोरोना की ओट लेकर ग्वालियर व्यापार मेले को स्थगित न कर दे। इस मेले के लिए 90 फीसदी दुकानों की अग्रिम बुकिंग हो चुकी है। मेले में हर साल 500 से लेकर 600 करोड़ तक का कारोबार होता है।

ग्वालियर का ये मेला 116 साल पुराना है और अभी तक निर्बाध आयोजित किया जाता है। ग्वालियर व्यापार मेले के पास अपनी स्थायी अधोसंरचना है, ऐसी अधोसंरचना प्रदेश में किसी भी मेले के पास नहीं है। हां, प्रगति मैदान दिल्ली के पास जरूर ऐसी संरचना है। शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने बीते आठ महीने में इस मेले के बारे में एक बार भी नहीं सोचा। सरकार पहले कोरोना से जूझी, फिर उप चुनावों से। ग्वालियर के भाग्यविधाताओं ने भी इस बारे में अभी कोई बात नहीं की है।

ग्वालियर व्यापार मेले के अलावा, प्रदेश का ही नहीं बल्कि देश का दूसरा महत्वपूर्ण आयोजन है तानसेन समारोह। इस समारोह के बारे में भी सरकार अभी तक गुड़ खाकर बैठी है, जबकि हर साल दिसंबर के पहले ही इस समारोह की तिथियां घोषित कर दी जाती थीं। इस साल तानसेन समारोह भी आयोजित किया जाएगा या नहीं, ये कोई नहीं जानता, क्योंकि इस बारे में अभी तक कोई हलचल है ही नहीं। ये दोनों आयोजन ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ को कायम रखते हुए पूरे किये जा सकते हैं, लेकिन लग रहा है कि सरकार कोविड की आड़ में इन दोनों आयोजनों को टाल देना चाहती है। तानसेन समारोह में तीन दिवसीय संगीत समारोह के साथ ही तानसेन अलंकरण समारोह भी होता है।

ग्वालियर व्यापार मेला 1904 में तत्कालीन सिंधिया रियासत की ओर से एक पशु मेले के रूप में शुरू किया गया था जो कालांतर में एक व्यापार मेला बन चुका है। मेले के आयोजन के लिए एक स्थायी प्राधिकरण है, मेला बिना किसी सरकारी सहायता के आयोजित होता है। उद्योग विभाग के तहत संचालित इस प्राधिकरण में हमेशा से राजनितिक नियुक्तियां होती आई हैं, लेकिन इस बार राजनीतिक उठापटक के कारण ये काम एक बार पिछड़ा तो पिछड़ता ही चला गया। राज्यसभा सदस्य ज्योतिरादित्य सिंधिया और प्रदेश सरकार में मंत्री श्रीमती यशोधराराजे सिंधिया ने भी अब तक मेले को लेकर अपना मौन नहीं तोड़ा है।

ग्वालियर व्यापार मेला और तानसेन समारोह ग्वालियर की सांस्कृतिक पहचान का अभिन्न अंग हैं। स्थानीय जनता का इन दोनों आयोजनों से एक मानसिक जुड़ाव है। इसलिए इन आयोजनों को लेकर सरकार की उदासीनता से स्थानीय जनता के मन में खिन्नता है। चैंबर ऑफ कॉमर्स ने इस बाबत सरकार से पत्राचार भी किया, लेकिन उसका भी कोई नतीजा नहीं निकला। ख़ास बात ये है कि इसी मेला परिसर में लगने वाले दीपावली के आतिशबाजी मेले और हस्तशिल्प के मेलों का आयोजन सरकार तथा स्थानीय प्रशासन करा चुका है।

ग्वालियर का मेला कितना अहम है, इस बात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बड़ी संख्या में कश्मीरियों के साथ ही हरियाणा, पंजाब, उप्र, महाराष्ट्र, बंगाल, हिमाचल समेत अन्य कई राज्यों के 520 व्यापारी लॉकडाउन से पहले ही 2021 के मेले के लिए दुकानें बुक करा चुके हैं। मेला मैदान में 1200 पक्की दुकानें हैं। चबूतरे व फुटपाथ मिलाकर ढाई हजार से अधिक दुकानें मेला प्राधिकरण द्वारा आवंटित कराई जाती हैं। छोटी-बड़ी दुकानें, फुटपाथ व पथकर विक्रेताओं को मिलाकर करीब साढ़े 6 हजार लोग मेले में व्यापार करते हैं।

व्यापारियों का कहना है कि मेले में 3 महीने का व्यापार करने को मिलता है। बड़े दुकानदार-शोरूमों पर 50 से 100 कर्मचारियों को काम मिल जाता हैं। खानाबदोश (घुमक्कड़ प्रजाति) परिवार तो मेले में ही डेरा जमा लेते हैं। ये मेले पर ही आश्रित होते हैं। मेला अपने समय पर जरूर लगना चाहिए, क्योंकि झूला, कपड़ा, बर्तन समेत तमाम वर्गों के व्यापारी मेले से बड़ी आस रखते हैं। जब बड़े राजनीतिक कार्यक्रम आयोजित हो सकते हैं, तो मेला आयोजित होने में भी कोई परेशानी नहीं होगी। मास्क, सैनिटाइजर आदि के लिए सख्ती रखी जाए।

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