कश्‍मीर में नई जमीन तैयार कर रहे गुलाम नबी 

सतीश जोशी

कांग्रेस नेतृत्व ने क्या सोचा है कि ये गुलाम नबी आजाद ऐसी मुहिम का नेतृत्व क्यों करने लगे? क्या वे जम्मू-कश्मीर में नई भूमिका के लिए अपनी जमीन तैयार करने में लगे हैं।  राजनीति और रणनीति का घालमेल नहीं हो सकता। पहले रणनीति बनती है फिर उस बिसात पर पांसे चले जाते हैं।  पत्र कांड में अचानक कपिल सिब्बल से ज्यादा आक्रामक और  मुखर क्यों हुए आजाद? कैसे हुए अचानक असंतुष्ट?

ये सवाल इसलिए क्योंकि राज्य सभा सांसदों की मीटिंग में निशाने पर मनमोहन सिंह जरूर आये थे लेकिन सीधे सीधे राजीव सातव के हमले तो कपिल सिब्बल ही झेल रहे थे। बाद में शशि थरूर, मनीष तिवारी और मिलिंद देवड़ा ने विरोध जरूर प्रकट किया था। फिर अचानक गुलाम नबी आजाद कैसे असंतुष्टों के नेता बन गये। पहली बात तो ये है कि गुलाम नबी आजाद को लगा होगा कि जो लोग भी सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखने वाले हैं वे सभी पार्टी के हित में मुद्दे उठा रहे हैं। मुश्किल ये रही होगी कि बिल्ली के गले घंटी बांधे तो कौन?
गुलाम नबी के पास है विकल्प!
अपनी तरफ से गुलाम नबी आजाद ने वे सारी बातें बता दी हैं, लेकिन कोई ये नहीं समझ रहा है कि आजाद कांग्रेस छोड़ना चाहें तो उनके पास क्या विकल्प हो सकता है? आखिर एसएम कृष्णा और टॉम वडक्कन जैसे नेता कांग्रेस छोड़ कर बीजेपी में गये हैं कि नहीं। फिर गुलाम नबी आजाद क्यों नहीं जा सकते? अगर गुलाम नबी आजाद बीजेपी न भी ज्वाइन करना चाहें तो जम्मू-कश्मीर की राजनीति में केंद्र सरकार को ऐसे नेताओं की सख्त जरूरत है जो बदले माहौल में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकें। मनोज सिन्हा को जम्मू-कश्मीर का उप राज्यपाल बनाये जाने के बाद से ऐसी कोशिशें तेज हो चली हैं।
राजनीतिक संवाद की प्रक्रिया
शाह फैसल का राजनीति छोड़ना और फिर से उनके आईएएस ज्वाइन करने की संभावना इसीलिए जतायी गयी है। हाल ही में बीजेपी नेताओं ने मनोज सिन्हा से मुलाकात कर राजनीतिक संवाद तेज करने की सलाह दी है। ये राजनीतिक संवाद जम्मू-कश्मीर में उन सभी नेताओं के साथ करने की कोशिश हो रही है जो नये माहौल में शाह फैसल की तरह नयी सच्चाई मान कर चल रहे हैं। उमर अब्दुल्ला जैसे नेताओं की उसमें फिलहाल कोई जगह नहीं है जिनका कहना है कि जब तक जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा वापस नहीं दिया जाता वो चुनाव नहीं लड़ने वाले हैं।
याद है ना शाह की बात!
बीजेपी की तरफ से भी बार बार ये याद दिलाने की कोशिश हो रही है कि अगर अमित शाह ने संसद में मौजूदा व्यवस्था को अस्थाई बताया है तो वो इसे पुराने स्वरूप में लाने की कोशिश भी करेंगे, लेकिन उसका वक्त तय नहीं है। ऐसा क्यों मान कर चलना चाहिये कि गुलाम नबी आजाद नयी व्यवस्था में फिट नहीं हो सकते? अगर कश्मीर के लोगों के लिए कुछ करने का मौका आया तो वो भला पीछे क्यों हटना चाहेंगे?
और अंत में …
अगर ये सब जानते हुए भी कांग्रेस नेतृत्व गुलाम नबी आजाद को हलके में ले रहा है, फिर तो वो ठीक ही कह रहे हैं कि पार्टी को 50 साल तक विपक्ष में बैठने के लिए तैयार हो जाना चाहिये।

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