गिरीश उपाध्याय
मध्यप्रदेश सरकार ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण आदेश जारी करते हुए यह साफ किया है कि राज्य में भ्रष्टाचार के मामलों में सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों पर कार्रवाई किए जाते समय विभाग की पूर्व अनुमति लेना आवश्यक नहीं होगा। दरअसल सरकार के इस कदम से एक बहुत बड़ी भ्रम की स्थिति साफ हुई है। भ्रम यह था कि संभवत: सरकार अपने कर्मचारियों और अधिकारियों को उनके द्वारा किए जाने वाले भ्रष्टाचार से बचाना चाहती है।
इस मामले की शुरुआत सामान्य प्रशासन विभाग की ओर से दिसंबर 2020 में जारी एक आदेश से हुई थी जिससे यह ध्वनि निकल रही थी कि अब सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले को लेकर की जाने वाली कार्रवाई से पहले जांच एजेंसियों को संबंधित विभाग को अवगत कराना होगा और संबंधित विभाग की पूर्व अनुमति के बाद ही कोई मामला दर्ज किया जा सकेगा या कोई मुकदमा चलाया जा सकेगा।
इस आदेश से माना यह गया था कि ऐसा सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों को, उनके भ्रष्टाचार को लेकर की जाने वाली शिकायतों से, सुरक्षा प्रदान करने की दृष्टि से किया गया है। आरोप यह भी लगा कि जब किसी विभाग के कर्मचारी और अधिकारी स्वयं भ्रष्टाचार के मामलों में लिप्त होंगे तब संबंधित विभाग उनके खिलाफ अनुमति कैसे और क्यों देगा? क्या वह उन अधिकारियों और कर्मचारियों को बचाने का प्रयास नहीं करेगा और यदि ऐसा होता है तो क्या इससे भ्रष्टाचार के खिलाफ होने वाली कार्रवाई में अड़चन नहीं आएगी?
ये ऐसे सवाल थे जो सरकार की मंशा पर उंगली उठा रहे थे या उंगली उठाने का मौका दे रहे थे। अच्छा ही हुआ कि सरकार ने बात बढ़ती उससे पहले ही इस बारे में सारी स्थिति को स्पष्ट करते हुए नया निर्देश जारी किया है जो कहता है कि इस तरह की कोई भी पूर्व अनुमति भ्रष्टाचार के किसी भी मामले की जांच के लिए जरूरी नहीं होगी।
मध्यप्रदेश में भ्रष्टाचार एक बहुत बड़ा मुद्दा रहा है। पिछले दिनों हमने देखा कि राज्य के अधिकारियों और कर्मचारियों के यहां पड़े छापों में करोड़ों रुपए की संपत्तियां बरामद होने के बारे में लगातार खबरें आई हैं। ऐसी संपत्तियों के बारे में माना जा रहा है कि ये गैर आनुपातिक संपत्तियां हैं जो संभवत: भ्रष्ट तरीके से अर्जित की गई हैं। ऐसे मामले लगातार बढ़ते जाना चिंता का विषय है। किसी भी राज्य सरकार के लिए अपने शासन प्रशासन की साख बनाए रखने की दृष्टि से यह बहुत जरूरी होता है कि उसके कर्मचारी और अफसर ईमानदार रहें और जनता को पारदर्शी प्रशासन दें।
लेकिन जब सरकारी दफ्तरों में सेवाएं देने के एवज में पैसा वसूला जाने लगे, काम कराने के लिए रिश्वत का लेन-देन हो, या फिर सरकार के द्वारा कराए जाने वाले निर्माण कार्यों के टेंडर मंजूर किए जाने से लेकर बिलों के भुगतान तक में कमीशनखोरी होने लगे तब पूरे सिस्टम पर सवाल उठता है और शासन व्यवस्था में भ्रष्टाचार की जड़े जमने जैसे आरोप लगना शुरू हो जाते हैं। ऐसे आरोपों से छाने वाली धुंध को छांटने और लोगों को निर्बाध ईमानदार एवं स्वच्छ प्रशासन देने के लिए आवश्यक हो जाता है कि भ्रष्टाचार जैसे मामलों में सख्त कार्रवाई हो। इस दिशा में न केवल राजनीतिक नेतृत्व को बल्कि संबंधित विभागों के प्रशासनिक नेतृत्व को भी गंभीरता से ध्यान देना होगा, क्योंकि यह ऐसा मामला है जो करता तो व्यक्ति है लेकिन बदनाम पूरी संस्था या सरकार होती है।
सरकारी अफसरों व कर्मचारियों पर भ्रष्टाचार के मामले में कार्रवाई करने से पहले पूर्वानुमति लेने संबंधी कथित सर्कुलर को लेकर जो भ्रम की स्थिति बनी थी उसके बारे में एक बात यह भी कही जा रही है कि राज्य के लोकायुक्त संगठन ने भी उस पर आपत्ति जताई थी और इस मामले में सरकार और लोकायुक्त संगठन के बीच खिंचाव पैदा हुआ था। अब जिस तरह से सरकार ने सफाई दे दी है उसके बाद यह माना जाना चाहिए कि कथित पूर्वानुमति की आड़ लेकर बचने का कोई रास्ता दोषियों को नहीं मिल सकेगा। यहां इस बात को रेखांकित करना भी जरूरी है कि लोकायुक्त संगठन को भी अपने आपको और अधिक सक्रिय करना होगा। छोटे मोटे छापे मारकर छुटपुट कार्रवाई करते हुए कुछ संपत्तियां बरामद कर लेने भर से ही उसके काम की इतिश्री नहीं हो जाती।
लोकायुक्त संगठन का गठन ही भ्रष्टाचार उन्मूलन या भ्रष्टाचार के मामलों की जांच और कार्रवाई के लिए किया गया है। यह संगठन सिर्फ कागजों या छापों की दिखावटी कार्रवाई तक ही सीमित न रहे। मूल प्रश्न यह है कि ऐसे छापों या बरामदगी के बाद दर्ज होने वाले केस अपने अंजाम तक पहुंचते हैं या नहीं। ऐसे मामलों में दोषियों को सजा मिलती है या नहीं… यदि बात केवल छापों की संख्या गिनाने और जप्त संपत्ति की कीमत का आंकड़ा बताने तक ही सीमित रहेगी तो लोकायुक्त जैसे संस्थानों से लोग डरना ही छोड़ देंगे।
एक मामला समाज की मानसिकता का भी है। आज हालत यह है कि लोग छोटे से छोटा काम भी ले देकर निपटाने के लिए आतुर बैठे हैं। हाल ही में एक खबर मीडिया में प्रमुखता से आई थी कि कॉलेज की एक प्रोफेसर ने अपने तबादले के लिए उच्च शिक्षा मंत्री के फर्जी पीए को कथित रूप से 75 हजार रुपये दे दिए। ऐसे ही दो प्राचार्यों ने भी तबादले के लिए 40-40 हजार रुपये दे डाले। खबरों में इन लोगों को पीडि़त के रूप में प्रस्तुत किया गया जबकि सही अर्थों में देखें तो कार्रवाई उन लोगों पर भी होनी चाहिए, क्योंकि रिश्वत लेना यदि अपराध है तो रिश्वत देना भी। हमें मूल रूप से उस मानसिकता पर चोट करनी होगी जहां रिश्वत को अपराध नहीं बल्कि दस्तूर मान लिया गया है। तबादलों के लिए भी ऐसा मैकेनिज्म बनाना होगा कि वास्तविक अर्थों में पीडि़त या जरूरतमंद व्यक्ति को अपने वाजिब काम के लिए ऐसे जालसाजों का शिकार न होना पड़े।(मध्यमत)
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