मैंने सोचा भी नहीं था कि कर्नाटक पर लिखते लिखते मुझे भोपाल पर लिखने का इतना अच्छा क्लू मिल जाएगा। कल मेरे कॉलम की इसी जगह पर, कॉलम के बजाय जो खबर छपी है, उसने आज के मेरे विषय चयन की मुश्किल आसान कर दी। वरना रोज लिखने वालों के लिए विषय को चुनना ही बहुत कठिन होता है।
आपको याद होगा कर्नाटक चुनाव के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने एक कार्यक्रम में सवाल जवाब के दौरान यह कह दिया था कि अगले लोकसभा चुनाव में गठबंधन दलों के साथ चुनाव लड़ने के दौरान यदि कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी तो वे प्रधानमंत्री पद संभालने को तैयार हैं।
राहुल गांधी की इस दावेदारी का मखौल उड़ाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कर्नाटक की एक सभा में कहा था कि जलसंकट वाले इलाकों में पानी का टैंकर आने से पहले गांव के लोग अपनी अपनी बाल्टियां कतार में लगा लेते हैं। लेकिन जैसे ही टैंकर आता है, गांव का दबंग ऐन वक्त पर छाती चौड़ी करता हुआ आता है और बाकी बाल्टियों को एकतरफ कर सबसे आगे अपनी बाल्टी लगाकर पानी ले लेता है।
प्रधानमंत्री ने कर्नाटक में जो बात राजनीतिक कटाक्ष के रूप में कही थी वह अपने मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में यथार्थ के रूप में घटित हो रही है। खासियत यह है कि यहां के दबंग प्रधानमंत्री की कल्पना से भी दो कदम आगे निकल गए हैं।
भोपाल के दबंग टैंकर वैंकर आने के इंतजार और लाइन में अपनी बाल्टी आदि लगाने के झंझट में नहीं पडते। उन्होंने उससे भी ऊंचा रास्ता निकाल लिया है। वे अब सरकारी ट्यूबवेलों पर ही कब्जा करके बैठ जाते हैं। और हालत यह है कि पानी के लिए तरसते उस बस्ती के लोग ऐसे दबंगों के रहमोकरम पर जीने को मजबूर हैं।
बुधवार को खुद भोपाल के महापौर आलोक शर्मा इन हालात से रूबरू हुए और उन्होंने मंगलवारा इलाके में लगवाए गए सार्वजनिक बोरवेल को शम्सुल हसन उर्फ बल्ली नाम के एक दबंग के कब्जे से मुक्त कराया। इस कार्रवाई को अंजाम देने के लिए महापौर, निगम के अमले और भारी पुलिस फोर्स के साथ इलाके में पहुंचे थे।
डेढ़ साल पुराने इस बोरवेल को जिस दबंग ने अपने कब्जे में ले लिया था, वह खुद के अलावा अपने आसपास के चार पांच घरों को ही पानी देता था। बस्ती के बाकी लोग तरसते ही रहते थे। महापौर ने बल्ली के घर के सामने ही कुर्सी पर बैठकर अपने हाथ से लोगों के बर्तनों में पानी भरा।
महापौर की इस पहल को सराहा जा सकता है। ऐसी खबर छपने के बाद उनकी वाहवाही भी की जा सकती है। लेकिन असली मुद्दा इससे दब नहीं जाता। आखिर ऐसे हालात बनते ही क्यों हैं कि कोई सरेआम इस तरह की दादागिरी करने में कामयाब हो जाए। आखिर वह सार्वजनिक बोरवेल था। उस पर जब डेढ़ साल से एक दबंग अपना कब्जा जमाए रहा तो निगम का अमला क्या इस दौरान सोता रहा।
और यह प्रदेश के किसी सुदूर इलाके की कहानी नहीं है, जहां कोई देखने सुनने वाला न हो। यह भोपाल के भी किसी बाहरी इलाके का मामला नहीं है, जहां निगम या प्रशासन का अमला कभी कभार ही पहुंचता है। यह ठीक भोपाल के बीचोबीच की बस्ती का मामला है। वहां यदि यह हाल है तो सोचिए सुदूर इलाकों में लोग किन किन मुसीबतों को नहीं झेल रहे होंगे।
भोपाल ने स्वच्छता के मामले में तो लगातार दूसरी बार देश में दूसरा नंबर हासिल कर लिया है, लेकिन शहरी जलप्रबंधन की कोई स्पर्धा हो तो शायद इसका नंबर सबसे निचली पायदानों में शुमार होगा। हर साल गरमी में यहां पानी की किल्लत या पानी सप्लाई में लापरवाही की ढेरों शिकायतें मिलती हैं। लेकिन इसका कोई स्थायी समाधान आज तक नहीं निकल पाया है।
दूसरी सबसे बड़ी समस्या पानी की पाइपलाइनों के रखरखाव और दर्जनों जगहों पर होने वाले रिसाव से जुड़ी है। पाइपलाइन फूट जाने या लगातार उनमें से रिसाव होने के कारण हजारों लाखों लीटर पानी हर साल यूं ही बरबाद हो जाता है। उसके बावजूद ऐसा कोई पुख्ता इंतजाम नहीं हो पाया है जो पानी की इस बरबादी को रोक सके।
पाइप लाइनों की मरम्मत और रखरखाव की इस समस्या के चलते हाल ही में चार पांच दिनों तक भोपाल के अधिकांश इलाकों में पानी की सप्लाई नहीं हो सकी थी और इस भीषण गरमी में लोगों को बिना पानी के ही गुजारा करना पड़ा था। लोगों की यह शिकायत भी आम है कि जब भी ऐसे मौके आते हैं पानी सप्लाई से जुड़े हुए अधिकारी या तो नदारद हो जाते हैं या फिर वे अपने फोन ही नहीं उठाते।
पाइप लाइन से नियमित पानी सप्लाई न होने पर लोगों के पास सार्वजनिक बोरवेल और टैंकरों का ही सहारा होता है। लेकिन उन पर भी या तो मोहल्ले के दबंगों का कब्जा है या फिर खुद नगर निगम में काम करने वाले दबंगों का। दोनों ही सूरत में आम आदमी की किस्मत में पानी के लिए तरसना ही लिखा है।
ऐसा नहीं है कि भोपाल में बारिश नहीं होती। लेकिन समस्या यह है कि यहां जलप्रबंधन पर कभी गंभीरता से काम किया ही नहीं गया। शहर लगातार बढ़ रहा है, लेकिन उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति कैसे होगी इस पर कोई सुनियोजित काम आज भी नहीं हो रहा। कहने को शहर को नर्मदा से, कोलार से और बडे़ तालाब से पानी सप्लाई किया जाता है लेकिन इस वितरण व्यवस्था में भी आपस में कोई तालमेल नहीं है।
शहर में बारिश के पानी को सहेजने के भी प्रभावी इंतजाम नहीं हो पा रहे हैं। हाल ही में एक खबर मेरे पढ़ने में आई थी कि नगर निगम ने वॉटर हार्वेस्टिंग के नाम पर लोगों से करीब 3 करोड़ रुपए शुल्क वसूल लिया, लेकिन वॉटर हार्वेस्टिंग के उपाय क्या किए गए किसी को पता नहीं।
जब तक पानी की एक-एक बूंद को सहेजने और एक-एक बूंद के सही इस्तेमाल के उपाय नहीं होंगे, भोपाल ही क्यों प्रदेश के हर शहर और हर बस्ती में यह किल्लत यूं ही बनी रहेगी। और जब-जब ऐसी किल्लत होगी, दबंगों को मौका मिलेगा, जलस्रोतों पर कब्जा कर पानी से पैसा बनाने का। आखिर महापौर कितने बोरवेल के ताले खुलवाएंगे और कब तक कुर्सी पर बैठकर लोगों की बाल्टियां भरते रहेंगे। निगम के अमले को भी तो जवाबदेह बनाया जाए…