जिसे बहुत पहले आना था

न जाने कब से बन्द
एक दिन इस तरह खुला घर का दरवाज़ा
जैसे गर्द से ढंकी
एक पुरानी किताब

प्रवेश किया घर में
जैसे अपने पन्नों में लौटी हो
एक कहानी अपने नायक के साथ
छानकर दुनिया भर की ख़ाक

घर की दीवारों को दी नई व्यवस्था
इससे शायद बदले कुछ
हमारी कहानी
या कहानियाँ कहने का अन्दाज़

सोचते-सोचते सो गया था एक गहरी नींद
जैसे अब सुबह न होगी
कि एक आहट से खुल गई आँखें,
जैसे वही हो दरवाज़े पर
बरसों बाद
जिसे बहुत पहले आना था।
– कुंवर नारायण

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