गोहद उपचुनाव
डॉ. अजय खेमरिया
2 अप्रैल 2018 को एससी एसटी एक्ट को लेकर हुए सवर्ण दलित टकराव। तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का ‘माई के लाल’ बयान, मप्र में सत्ता परिवर्तन का बुनियादी आधार कैसे बना, इसकी केस स्टडी में ग्वालियर चंबल के नतीजे निरूपित किये जा सकते हैं।
बीजेपी के गढ़ इस दौरान जमींदोज हो गये और दिग्गजों को शिकस्त झेलनी पड़ी। रुस्तम सिंह, जयभान सिंह पवैया, नारायण सिंह और लालसिह आर्य जैसे मंत्री अगर चुनाव हारे तो इसके मूल में यही दो मुद्दे थे।
आज हम बात करेंगे अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित भिंड जिले की गोहद विधानसभा की जहां 2018 में दिग्गज मंत्री और बीजेपी के दलित चेहरे लालसिंह आर्य को 29989 वोटों के बड़े अंतर से पराजय झेलनी पड़ी। अपनी मृदुभाषी और मिलनसार छवि के बावजूद लाल सिंह चुनाव क्यों हारे? वह भी तब जब वे सवर्ण और पिछड़ी जातियों के सर्वस्वीकृत चेहरे थे।
असल में यह पूरा अंचल अप्रैल 2018 तक मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के ‘माई के लाल’ वाले बयान को लेकर उनके विरुद्ध लामबंद हो रहा था। मप्र के दो आईएएस अफसर जो इसी इलाके का प्रतिनिधित्व भी करते थे, घूम घूम कर सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों के सवर्ण-पिछड़े वर्ग को सरकार के विरुद्ध खड़ा कर रहे थे।
वैसे भी यह पूरा इलाका जातीय अस्मिता की संवेदनशील प्रयोगशाला से कम नहीं है। इस बीच 02 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय के विरुद्ध यहां भी देशव्यापी दंगे हुए। गोहद के एक गांव ‘डांग बेरखेड़ी’ में दलित और सवर्ण वर्ग में दंगा हो गया। पुलिस ने सवर्ण, पिछड़ी बिरादरी के तमाम लोगों, खासकर ठाकुर, ब्राह्मण के विरुद्ध मुकदमे दर्ज कर उन्हें जेल में डाल दिया।
इस दंगे का मैसेज पूरे भिंड तक फैला। दलित विरोधी पक्ष चाहता था कि लालसिंह आर्य उनका पक्ष लें। लेकिन मंत्री पद पर आसीन लाल सिंह ने चुप्पी साध ली, वे तटस्थ रहे। यही उनकी बड़ी पराजय का मूल आधार बन गया। जबकि वे प्रतिक्रियावादी दलित चेतना के विरुद्ध समन्वय की सियासत के लिए जाने जाते रहे हैं।
गोहद के गांव गांव में ब्राह्मण, ठाकुर, यादव, गुर्जर, कौरव, जाट, सिख यहां तक कि दलित भी उनके विरुद्ध लामबन्द हो गए। लालसिंह ने लाख जतन किये, पर नतीजा सिफर रहा। माई के लाल से शुरू हुई जातीय गोलबंदी की तपिश ने भट्टी की शक्ल अख्तियार कर ली और कांग्रेस के रणवीर जाटव दूसरी बार विधायक बन गए।
इससे पहले वह 2009 में भी अपने पिता की हत्या के बाद हुए उपचुनाव में विजयी हुए थे। सिंधिया के आक्रामक प्रचार, किसान कर्जमाफी, सवर्ण पिछड़ा ध्रुवीकरण जैसे सम्मिलित मुद्दों पर रणवीर जीत गए।
2020 में यहां फिर चुनाव होना है, रणवीर फिर से लड़ेंगे, यह भी तय है। लेकिन अब परिस्थिति 2018 सरीखी नहीं है। पुलिस में कांस्टेबल की नौकरी से इस्तीफा दिलाकर डॉ. गोविन्द सिंह ने उन्हें 2009 में विधायक बनाया था। बाद में वे सिंधिया से जुड़ गए और फिर उनके समर्थन में विधायकी भी छोड़ दी।
2020 में रणवीर के सामने चुनावी चुनौतियों का अंबार है। पहली चुनौती तो लालसिंह आर्य ही हैं, जिनके विरुद्ध वे अपने पिता की हत्या का केस लड़ चुके हैं। फिर डॉ. गोविन्द सिंह जिन्होंने उन्हें अंगुली पकड़कर सियासी व्याकरण रटाया। उसके बाद बीजेपी के उस कैडर से मित्रता, जिसके विरुद्ध वह 2009 से ही शत्रुता की हद तक लड़ते आये हैं।
रणवीर का एक अचर्चित पक्ष भी है, वह प्रतिक्रियावादी दलित एक्टिविज्म। उनके तार जिगनेश मेवानी जैसे लोगों से भी जुड़े हैं, जो इस अंचल के मतदान व्यवहार के नजरिये से आत्मघाती है। इसी वजह से भिंड लोकसभा के कैंडिडेट देवाशीष जरारिया को मुरैना से आई महिला नेत्री संध्या राय ने शिकस्त दे दी थी।
जाहिर है उपचुनाव का यह रण रणवीर के लिए बिल्कुल भी आसान नहीं है। सिंधिया-शिवराज फैक्टर उनकी कितनी मदद करेगा यह आज कहा नहीं जा सकता। मैदानी तौर पर उन्हें अपनी स्वीकार्यता के लिए 360 डिग्री का पराक्रम चाहिए।
इस विधानसभा में जाटव वोट सर्वाधिक संख्या में हैं, लेकिन ब्राह्मण, यादव, ठाकुर, गुर्जर, वैश्य, बघेल, सिख, जाट, कुशवाह सहित ओबीसी की जातियों में बीजेपी का वर्चस्व जाटव ध्रुवीकरण के चलते हमेशा से बना रहा है। अब तक हुए 16 चुनाव में यहां बीजेपी 9 बार जीत चुकी है।
1993 में यहां से बसपा के चतुरीलाल बारहदिया जीत चुके हैं।1998, 2003, 2013 में लालसिंह यहां से जीते। 2008 में रणवीर के पिता माखनलाल ने लालसिंह को हराया, लेकिन उनकी हत्या के बाद 2009 में रणवीर यहां से एमएलए चुने गए। 2013 में वे लाल सिंह से हार गए थे।
गोहद में 1967 के बाद से जाटव जाति के एमएलए ही चुने जाते रहे हैं। उपचुनाव में रणवीर अब बीजेपी के टिकट पर लड़ेंगे। उनके विरुद्ध कांग्रेस किसी सशक्त उम्मीदवार की तलाश में पूर्व जिला पंचायत अध्यक्ष रामनारायण हिंडोलिया, केशव देसाई, मेवाराम जाटव, रूपसिंह, सुनील शेजवार में से चेहरा टटोल रही है। मेवाराम तीन बार से गोहद में जिला पंचायत के सदस्य हैं।
वैसे यहाँ टिकट का निर्णय लहार विधायक डॉ. गोविन्द सिंह करेंगे। उन्हीं के प्रभाव से कांग्रेस यहां मुकाबले में रहती है। बीजेपी की पूरी कहानी के दो प्रमुख पात्र हैं पहले लाल सिंह आर्य और दूसरे उसके कैडर कार्यकर्ता। लाल सिंह अगर पार्टी की सत्ता को बनाए रखने के लिये खुद को उपचुनाव में समर्पित कर देते हैं तभी बीजेपी यहां अपने पक्ष में नतीजे की सोच सकती है।
संगठन के स्तर पर भी यहां बहुत मानसिक पराक्रम की आवश्यकता होगी। खुद रणवीर को अपनी स्वीकार्यता के लिए बीजेपी कैडर को मनाना बड़ा टास्क है। अगर वह इन दोनों को राजी कर सकें तभी उनका कोई गणित यहाँ बन पाएगा। बसपा यहां इस बार भी चुनाव लड़ेगी, लेकिन पिछली बार डॉ. सागर को उसके कोर वोटर ने ही नकार दिया था।
वैसे यह इलाका बीजेपी के परम्परागत प्रभाव वाला है। यहां राजमाता के आशीर्वाद से भूरेलाल फिरोजिया भी एक बार उज्जैन से आकर एमएलए बन चुके हैं। जी हां, उज्जैन सांसद अनिल फिरोजिया के पिता।
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टीम मध्यमत