अजय बोकिल
हालत कुछ ऐसी ही है, आप ‘कोरोना’ से बच सकते हैं,लेकिन वेबीनार से नहीं। एक से पल्ला छुड़ाएंगे तो दूसरा जकड़ लेगा और चाहे-अनचाहे आपके वॉट्सऐप पर लिंक डाल देगा। कभी तो लगता है कि ‘वेबीनार शिकारी’ मानो ढूंढते ही रहते हैं कि कौन बंदा कहां खाली है और कब उसे ऑनलाइन बुक कर दिया जाए। आजकल ‘वेबीनार विशेषज्ञों’ की एक ऐसी संकर नस्ल भी तैयार हो गई है जो बिना थके, बिना रुके दिन में पांच-दस वेबीनार निपटा सकती है।
कई लोगों के लिए यह नई आभासी तकनीक अपने ‘एक्टिविटी अकाउंट’ में नंबर बढ़वाने का सबसे आसान उपाय है। गोया मैरेज रिसेप्शन की जगह बर्थ-डे पार्टी से काम चला लिया जाए। लेकिन एक्चुअल दुनिया में जीने के आदी रहे कई लोगों का मानना है कोविड 19 के समांतर यह एक नई सामाजिक और तकनीकी बीमारी है, जिससे छुटकारा पाना लगभग नामुमकिन है। क्योंकि इसने इंसानों के बीच दूरियों को अपने ढंग से पाटने और पुरानी नजदीकियों को स्थायी दूरियों में तब्दील करने का काम किया है। वैसे वेबीनार की दुनिया के धुरंधरों का मानना है कि कोरोना रहे न रहे, ‘वेबीनार संस्कृति’ का ये वायरस हमारी जिंदगी में घुस चुका है। इसका कोई वैक्सीन बनने की संभावना भी नहीं है।
दरसअल कोरोना काल ने हमारे शब्दकोश को जो नए शब्द दिए हैं, उनमें से एक वेबीनार भी है। कुछ समय पहले तक ‘सेमीनार’, ‘सम्मेलन’ या ‘परिचर्चा’ जैसे शब्दों, उनकी तासीर और उनकी आड़ में पनप रहे तंत्र से हम वाकिफ थे। कोरोना की वजह से देश भर में लॉकडाउन हुआ और भौतिक-सामाजिक गतिविधियां भी ठप हो गईं। ऐसे में लोगों के सामने सवाल खड़ा हो गया कि क्या करें? अपना वजूद बताने और बचाने के लिए कुछ तो करना होगा। लिहाजा ‘ऑन लाइन वेबीनार’ का कनसेप्ट तेजी से फैलने लगा। पढ़ाने लिखाने, मार्केटिंग, कई जरूरी और गैर जरूरी विषयों तथा आत्मप्रचार के लिए वेबीनारों की बाढ़-सी आ गई।
बीते 6 माह में देश में कुल कितने वेबीनार हुए या हो रहे हैं, इसका कोई आंकड़ा तो उपलब्ध नहीं है, लेकिन माना जा सकता है कि सामाजिक कार्यक्रमों और लोगों के जमावड़ों के दम पर अपनी दुकान चलाने वालों के लिए तो यह मानो घर चल कर आया ‘सुनहरा’ अवसर है। अपने देश में वेबीनार कल्चर भले अभी फलता दिख रहा हो, लेकिन दुनिया में यह कनसेप्ट काफी पहले आ गया था।
वास्तव में वेबीनार शब्द अंग्रेजी के ‘वेब’ और ‘इनार’ शब्दों से मिलकर बना है। डिक्शनरी में इसे पहली बार जगह 2008 में मिली। इसे वेब कांफ्रेंसिंग भी कहते हैं। ऑनलाइन बैठकों, सम्मेलनों के आयोजन और प्रसारण की इस विधा को वेबकास्ट कहा जाता है। यह काम इंटरनेट और ऑन लाइन प्लेटफार्म के जरिए होता है। इसमें सम्बन्धित लिंक के माध्यम से आप अपने घर या दफ्तर से ही सीधे जुड़ सकते हैं। अपनी बात रख सकते हैं, चर्चा में भाग ले सकते हैं। इसके लिए जरूरी है, स्मार्ट फोन, लैपटॉप या कम्प्यूटर।
इस ऑनलाइन संचार के लिए कई सॉफ्टवेयर भी उपलब्ध हैं। वेबीनार कई उद्देश्यों, जैसे स्लाइड शो, वेब टूर, टैक्स्ट चैट, मार्केटिगं, ओपिनयन पोल और सर्वेक्षण आदि के लिए किया जाता है। इसके कुछ मापदंड भी बनाए गए हैं। दुनिया में इसकी शुरुआत ‘रियल टाइम टैक्स्ट चैट सुविधा’ के रूप में 1980 में हो चुकी थी। तब इसका उपयोग तत्काल संदेश भेजने के लिए किया जाता था। 1995 में पिक्चरटेल कंपनी ने विडोंज पर आधारित सॉफ्टवेयर ‘लाइवशेयर प्लस’ लांच किया। इसमें रिमोट कंट्रोल से शेयरिंग की सुविधा थी।
इंटरनेट के जरिए होने वाली इन बैठकों को तब ‘नेट मीटिंग’ कहा जाता था। इसकी शुरुआत माइक्रोसॉफ्ट कंपनी ने की। अगले ही साल जीरॉक्स पार्क कंपनी ने वर्चुअल प्लेसवेयर ऑडिटोरियम की स्थापना की, जिसमें ऑनलाइन मल्टीमीडिया प्रेजेंटेशन दिया जा सकता था। ऑडियो कन्वर्सेशन भी हो सकता था। 1998 में सबसे पहले ‘वेबीनार’ शब्द रजिस्टर्ड हुआ। लेकिन यह मामला कोर्ट में गया और अब इंटरकॉल कंपनी के ट्रेडमार्क के रूप में यह शब्द रजिस्टर्ड है। 1999 में पहला वेबएक्स मीटिंग सेंटर जारी किया गया। जिसके माध्यम से हजार लोगों की ऑनलाइन मीटिंग की जा सकती थी।
इस बीच धीरे धीरे वेबीनार की लोकप्रियता बढ़ने लगी थी। क्योंकि यह मामूली खर्चे में लगने वाली ऐसी चौपाल थी, जिसमें व्यक्ति दुनिया के किसी भी कोने से बिना कहीं जाए, इसमें भाग ले सकता था। व्यावसायिक क्षेत्रों में उत्पादों की मार्केटिंग, धंधा बढ़ाने के गुर सीखने-सिखाने, नई प्रौद्योगिकी पर चर्चाओं और अन्य अकादमिक कार्यों के लिए भी वेबीनार संस्कृति को विदेशों में मान्यता मिलने लगी।
भारत में वेबीनार बूम कोरोना काल में आया, जब आपसी मेलजोल और सामाजिक जमावड़े की जगह ऑनलाइन वीडियो कांफ्रेंसिंग ने लेना शुरू किया। चतुर लोगों ने बूझा कि सोशल एक्टिविटी के तहत नंबर बढ़वाने का यह सर्वोत्तम आभासी तरीका है। वेबीनार करो और लगे हाथ वायरल करो। अब शिक्षा से लेकर साहित्य-संस्कृति तक वेबीनारों की धूम है। बस एक बार स्क्रीन पर आपका कच्चा-पक्का चेहरा दिख जाए और श्रीमुख से कुछ वचन झड़ जाएं। काम पूरा।
वेबीनार कल्चर ने अब उस राजनीतिक क्षेत्र में भी घुसपैठ कर ली है, जहां डिस्टेंसिंग के विपरीत ‘एसोसिएटिंग’ ही मूल मंत्र रहा है। लेकिन वहां भी वीडियो प्रेजेंटेशन के जरिए राजनीतिक संदेश और सियासी गोलबंदी की जाने लगी है। ये हकीकत है कि दुनिया में वेबीनार का कारोबार बढ़ते ही जाना है। एक रिपोर्ट के मुताबिक वैश्विक वेबीनार और वेबकास्ट का बाजार वर्ष 2015 में 54.70 अरब डॉलर का था, जो 2023 में 80 अरब डॉलर के पार होने की आशा है। इसके माध्यम से कई सोशल मीडिया प्लेटफार्म भी खूब कमा रहे हैं। हालांकि वेबीनार सशुल्क और निशुल्क दोनों प्रकार के होते हैं।
सवाल यह है कि क्या वेबीनार, परंपरागत सेमीनार अथवा सम्मेलनों का कारगर विकल्प हैं अथवा हो सकते हैं? इसका सटीक उत्तर देना कठिन है, क्योंकि इससे न सिर्फ किसी भी आयोजन को सस्ते में निपटाने का किफायती रास्ता खुला है बल्कि हमारी सभ्यता के आभासी होते जाने का एक आयाम भी हासिल किया है। वेबीनार के लिए थोड़ी पूर्व तैयारी, कुछ उद्यमिता और अपनों को उपकृत करने की पवित्र भावना, कोई विषय, अच्छी तकनीक, कुशल तंत्र और चंद उपकरणों की जरूरत होती है।
तबला या तानपुरा मिलाने जैसी शुरुआती मशक्कत के बाद हर कोई अपने अपने स्क्रीन पर किसी दूरस्थ व्यक्ति से जुड़ जाता है। कहीं आने जाने की गरज नहीं। घर के ठाकुरद्वारे में ही पूरे मंदिर का भाव संसार समाने की जुगत। यही नहीं, ‘चट मंगनी पट ब्याह’ की माफिक वेबीनार कर आप उसे तुरंत सोशल मीडिया पर शेयर करने की रस्मअदायगी भी कर सकते हैं। दो-चार वेबीनारों में आपकी भागीदारी आपको विषय विशेषज्ञ के रूप में स्थापित कर सकती है।
इसी में यह सवाल भी निहित है कि क्या सचमुच वेबीनार और ऑनलाइन मीटिंग्स हम मनुष्यों को आपस में जोड़ रहे हैं? सामाजिक संपर्कों को धड़कते रिश्तों में बदल पा रहे हैं? क्या यह सामाजिकता को कायम रखने का नया शॉर्टकट और भावनाविहीन तंत्र है या फिर हम उस दुनिया के नागरिक बनते जा रहे हैं, जहां फिजिकली मिलना-बोलना-बैठना, प्यार-तरकार, सुख-दुख की बातें और निंदा-स्तुति का असीम आनंद महसूस करने की कोई जगह नहीं बची है।
एक बात तो साफ है कि वेबीनार मनुष्यों के भौतिक और सशरीर जमावड़े का सार्थक विकल्प नहीं हैं। कहने को वह ऑन लाइन मीटिंग या चर्चा भले हो, लेकिन जो शख्स बोलता या सुनता है, वह हकीकत में एकांत की सजा ही भोग रहा होता है। आप स्क्रीन पर बोले चले जाते हैं, लेकिन कोई प्रतिसाद कहीं से नहीं आता। वह ऐसा एकालाप होता है, जिसमें कोरस की रत्तीभर गुंजाइश नहीं होती। आप अकेले ही तलवार भांजते खुद की पीठ थपथपाते रहे होते हैं। इससे भी बड़ी सजा तो वो है, जो वेबीनारों में अक्सर कांटेक्ट भंग हो जाने पर भोगनी पड़ती है। कब आप स्क्रीन पर दिखने लगेंगे और कब गायब हो जाएंगे, यह कोई जादूगर भी नहीं बता सकता।
वेबीनार में खुद कहते या दूसरों को देखते कई बार तो आंखें और कमर दुखने लगती है। आप कुछ भी कहें, बताएं, लेकिन कोई ताली या सीटी आपको जीवंतता का अहसास नहीं कराएगी। वेबीनारों में ‘हूटिंग’ करने वालों की भी कोई जगह नहीं है। कई वेबीनारों का स्टार्टिंग टाइम तो होता है, क्लोजिंग टाइम नहीं होता। आपके पास बोरियत मिटाने पीछे की बेंचों से फब्तियां कसने या दोस्तों से कानाफूसी कर टाइम पास करने का विकल्प भी नहीं होता। आप बेमन से कहते, सुनते और देखते रहते हैं, क्योंकि यह वेबीनार है…!