नीलेश देसाई
भारत में जीएम फसलों पर नीतिगत बहस वर्षो से चल रही है। 18 अक्टूबर, 2022 को पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के तहत जीईएसी ने 147वीं बैठक में देश में पहली जीएम खाद्य फसल, स्वदेशी रूप से विकसित जीएम सरसों के बीज की किस्म डीएमएच-11 के लिए पर्यावरण मंजूरी दी है। जीईएसी का यह दावा है कि प्रस्तावित जीएम सरसों की पैदावार 30 प्रतिशत अधिक है और इससे देश का 76,000 करोड़ रुपये के खाद्य तेल आयात कम होगा
इस आशय की सिफारिश जीईएसी द्वारा 2017 में भी की गई थी, लेकिन नागरिक संगठनों, किसान संगठनो एवं विशेषज्ञों के विरोध के चलते तत्कालीन पर्यावरण मंत्री अनिल माधव दवे को इसे वापस लेना पड़ा था। देश में राजस्थान, हरियाणा, पंजाब और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में लगभग 6.5-7 मिलियन हेक्टेयर भूमि में लगभग 6 मिलियन किसानों द्वारा सरसों की खेती की जाती है।
आनुवंशिकीविद् और दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति दीपक पेंटल ने एक दशक से अधिक लंबे प्रयास में अपनी टीम के साथ बीज विकसित किया। बीज को व्यावसायिक रूप से उगाने के लिए अभी भी मंत्रालय से अंतिम मंजूरी की आवश्यकता है। जीईएसी ने मंजूरी देते हुए कहा है कि दो साल के भीतर भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की देखरेख में मधुमक्खियों और अन्य परागणकों पर सरसों की किस्म के प्रभाव पर क्षेत्र प्रदर्शन अध्ययन किया जाना है।
पर्यावरण कार्यकर्ताओं और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबद्ध स्वदेशी जागरण मंच एवम् भारतीय किसान संघ ने जीईएसी की मंजूरी का विरोध किया है और सरकार से अंतिम मंजूरी नहीं देने का आग्रह किया है। स्वदेशी जागरण मंच के सह संयोजक अश्विनी महाजन ने सरसों की किस्म को जन स्वास्थ्य और किसानों के लिए बेहद खतरनाक बताया।
विगत 20 वर्षो से देश में सक्रिय संगठन जीएम-मुक्त भारत के लिए गठबंधन की सह-संयोजक कविता कुरुगंती व कपिल शाह का कहना है तकनीकी के नाम पर एक कबाड़ अनुवांशिक रूप से सरसों की किस्म डीएमएच 11 को व्यवसायिक खेती के लिए मंजूरी देना यह दर्शाता है कि वैज्ञानिक नियमों की पूरी प्रक्रिया कितनी अवैज्ञानिक हो गई है। इस निर्णय ने सभी वैज्ञानिक मानदंडों को तोड़ दिया है। यह एक वैज्ञानिक धोखाघड़ी है
उनके अनुसार डीएमएच-11, जीएम सरसों की किस्म जिसे अनुमोदित किया गया है, अधिक उपज देने वाली किस्म नहीं है। इसकी उत्पादकता तीन अन्य गैर-जीएम किस्मों से कम है जो वर्तमान में देश में मौजूद है। वास्तव में डीएमएच-4, जो एक पारंपरिक किस्म है, जीएम सरसों की तुलना में 14.7 प्रतिशत अधिक उपज प्रदान करती है।
सवाल यह है कि भारत कम उपज वाली जीएम सरसों की किस्म की खेती करके खाद्य तेल के आयात में कटौती करने की योजना कैसे बना रहा है? जीएम मुक्त भारत के लिए गठबंधन ने भी कहा है कि इसमें जैव सुरक्षा तंत्रों की अनदेखी करके जीईएसी द्वारा सिफारिश की गई है। 2017 में उठाए गए परीक्षण पर चिंताएं अनसुलझी हैं। जेनेटिक इंजीनियरिंग प्रक्रिया से स्वाथ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इससे खाद्य सुरक्षा व जैव विविधता पर भी खतरा बढ़ सकता है।
इसी प्रकार 14 अक्टूबर 2009 को बीटी बैंगन को जीईएसी ने मंजूरी दी थी। तकनीकी जानकारों के मुताबिक व्यापारिक अनुमति के पूर्व 20 टेस्ट करने होते हैं लेकिन उस समय मात्र 4 टेस्ट ही किए गए थे। तब देश भर में इसका जीएम मुक्त भारत संगठन के माध्यम से व्यापक विरोध हुआ था ।
उसके बाद तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने इस मुद्दे को जनता की अदालत में ले जाने का निर्णय लिया एवं देश भर में सात बड़े शहरों में जनपरामर्श किए गए, जिसमे बड़ी संख्या में किसान, उपभोक्ता, कृषि वैज्ञानिक, न्यूट्रिशन एक्सपर्ट, डॉक्टर्स, व्यवसायी एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं ने हिस्सा लिया। स्वयं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश सभी जनविमर्शों में व्यक्तिगत रूप से शामिल हुए थे। शायद देश के इतिहास में पहली बार सरकार द्वारा किसी मुद्दे पर इतना व्यापक विमर्श किया गया था।
इस विमर्श के बाद फरवरी 2010 को पर्यावरण मंत्री ने 19 पेज के अपने फैसले में उन घटनाक्रमों का विस्तार से जिक्र करते हुए कहा कि देश मे बीटी बैंगन को पेश करने की इतनी ज्यादा आवश्यकता नहीं है। पर्यावरण मंत्री ने बीटी बैंगन पर तब तक के लिए अधिस्थगन लगा दिया, जब तक कि किसी निष्पक्ष जांच से इसकी सुरक्षा सुनिश्चित नहीं हो जाती। खासतौर पर लम्बी अवधि तक इसके सुरक्षित होने के बारे में पक्के सबूत नहीं मिल जाते।
वहीं खरपतवार रोधी सरसों नई जीएम फूड क्रॉप थी जिसे बिना बायोसेफ्टी डोजियर को सार्वजनिक किए, रेगुलेटर्स द्वारा पास कर दिया गया। बीटी बैंगन की तरह इसका भी परीक्षण नहीं किया गया है। सवाल यह है कि हमेशा जीईएसी जीएम बीज को अनुमति देने का निर्णय इतनी जल्दबाजी में बिना प्रक्रियाओं का पालन किए क्यों लेती है? और लोगो द्वारा इसको चुनौती दी जाती है व इसकी निर्णय प्रक्रिया पर, इसके मानव स्वास्थ्य पर होने वाले प्रभाव, पर्यावरणीय प्रभाव, जैव-सुरक्षा जैसे अनेक मुद्दों पर सवाल उठाए जाते है।
आखिर ऐसा क्यों होता है? जीईएसी में कौन लोग होते है? ये लोग तय मापदण्डों को नजरअंदाज क्यों करते है? जीईएसी के सदस्यों पर भी हमेशा सवाल उठते आए हैं। इस कमेटी के मेंबर स्वयं जीएम फसलों के प्रमोटर हैं। ये स्वयं अपने फार्म पर इसके ट्रायल करते हैं और यही जीईएसी के मेंबर बनकर इसे मंजूरी देते हैं। ये सीधा कॉन्फ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट का मामला बनता है। दूसरा, ये अपनी बैठकों एवं परीक्षणों की रिपोर्ट को जनता के सामने नहीं रखते अर्थात अपारदर्शिता के चलते भी इनके निर्णय सन्देह के घेरे में बने रहते हैं।
जीईएसी ने अब तक जीएम फसलों के बारे मे सभी फैसले कम्पनियों द्वारा उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर लिए हैं। जीएम फसलों के सम्बन्ध में किसी भी पहलू पर कोई स्वतंत्र शोध नहींं कराया गया है। यही नहीं, फील्ड ट्रायल में कम्पनियां जो आंकड़े प्राप्त करती हैं ,उनके बारे में न तो परामर्शदाताओ से कोई चर्चा की जाती है ओर न ही उन्हें वैज्ञानिक जाँच के लिए सार्वजनिक किया जाता है।
जीएम फसलों के फील्ड ट्रायल में राज्य सरकारों की कोई भूमिका नहीं होती है, जबकि कृषि राज्य का विषय है। इससे भी बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण बात और क्या होगी कि किसानों के जिस खेत पर ये मैदानी परीक्षण किये जाते हैं,उन्हें स्वयं को भी यह नहीं बताया जाता है कि यह क्या हो रहा है। स्थानीय अधिकारियों और पंचायतों को इस बारे में जानकारी नहीं होती।.
दिलचस्प यह है कि 80 के दशक में खेती में कीटनाशकों को बाजार में जब पहली बार पेश किया गया था तब भी पर्यावरणविदों ने सवाल उठाए थे, तब इससे मानव स्वास्थ्य के लिये कोई नुकसान न होने के दावे किए गए थे।लेकिन एक दशक बाद ही इसके दुष्परिणाम सामने आने लगे। अब यही कम्पनियां विकल्प के रूप में कीटनाशकों के दुष्परिणामों से बचने के लिए जीएम बीजों की वकालत करने लगी हैं।
एक बात ओर विचार करने वाली है कि 2016-17 में, भारत में सरसों की रिकॉर्ड फसल हुई थी। बंपर उत्पादन और कीमतें गिर गईं। सरसों उगाने वाले क्षेत्रों से आ रही रिपोर्टें बताती हैं कि किस तरह किसानों को संकटकालीन बिक्री का सहारा लेना पड़ा। किसानों के लिए कीमतों में औसतन 400-600 रुपये प्रति क्विंटल की गिरावट आई है। लगभग 65 लाख हेक्टेयर में उगाई गई सरसों को कभी भी कम उत्पादकता से जुड़ी समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ा है।
किसानों के सामने सबसे बड़ी समस्या सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से मेल खाने वाले लाभकारी मूल्य को प्राप्त करने में विफलता है। किसानों को एक निश्चित मूल्य प्रदान करने के लिए दूर-दूर तक प्रयास न करते हुए, नीति आयोग जानबूझकर उच्च आय प्रदान करने की सख्त आवश्यकता से ध्यान हटा रहा है जैसे कि उत्पादकता मुख्य समस्या है। न तो सरकार और न ही उपभोक्ताओं को इसके संदिग्ध ज्ञान से लाभ होगा।
इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने भी एक सुनवाई के तहत तकनीकी विशेषज्ञों की एक कमेटी बनाई थी। उस कमेटी ने भी जीएम बीज को सुरक्षित नहीं बताया था एवं यह भी कहा था कि हमारे पास उत्पादन बढ़ाने के लिए और भी विकल्प मौजूद हैं, हमें उन पर विचार करना चाहिए।
मुझे याद है कि 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने एक तिलहन प्रौद्योगिकी मिशन शुरू किया, और 1993-94 तक भारत खाद्य तेल मामले में लगभग आत्मनिर्भर हो गया। खाद्य तेल की आवश्यकता का 97 प्रतिशत घरेलू स्तर पर पूरा किया जाता था और केवल 3 प्रतिशत आयात किया जाता था। अर्थात बिना जीएम फसलों के भी उत्पादन बढ़ाया जा सकता है।
सरकार एक तरफ जोर शोर से प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने की बात कर रही है दूसरी तरफ जीएम बीजों को मंजूरी देने का कार्य कर रही है। ये दोनों कार्य एक दूसरे के विरोधी हैं। यूरोप में देखा गया है कि जो देश जीएम फसलें उगा रहे हैं, वँहा पर किसानों के पास बीजों के विकल्प कम हो गए हैं। दूसरी तरफ जो लोग जीएम बीज नहीं लगा रह हैं, वँहा पर बीजों के विकल्प ज्यादा हैं।
हमारे देश में ही देखा जा सकता है कि कपास के बीजों में 95 प्रतिशत बीटी कॉटन ही है अर्थात गैर बीटी बीज बाजार से नदारद हो गए हैं। इसमें भी 93 प्रतिशत बीज मात्र एक कम्पनी के नियंत्रण में हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि कुछ कम्पनियों के हाथों में बीज का बाजार सिमट जाने के कारण उनको न केवल बीज के विकल्प कम करने की बल्कि बीज के दाम को भी मनमाफिक बढ़ाने की छूट मिल जाती है।
विगत दो दशकों में बीजों के दाम में 400 प्रतिशत से भी ज्यादा की वृद्धि हुई है। इससे कृषि की लागत बढ़ गई और किसान की आजीविका कमजोर हो गई। परिणामस्वरूप आंध्र, कर्नाटक व महाराष्ट्र में लाखों किसान कर्ज के जाल में फंस गए और आत्महत्या करने को मजबूर हुए। हमारे यहां बीटी कपास के बीजों के दाम अनेक गुना बढ़ गए हैं।
2005 में आंध्रप्रदेश सरकार द्वारा कपास के बढ़ते दाम को नियंत्रित करने की कोशिश की गई तो महिको कम्पनी ने राज्य सरकार को यह कहते हुए चुनौती दी कि बीजों के दाम निर्धारण करने का काम राज्य सरकार का नहीं है। इस प्रकार किसानों का बीज स्वावलम्बन खतम होता जा रहा है और बीजों की विविधता भी संकट में है। हमारे देश में पहले से ही हाइब्रिड बीजों के बढ़ते चलन के बाद अनेक मोटे अनाज के बीजों की प्रजाति विलुप्त या सीमित हो गई है। जो जीएम बीज के आने बाद और ज्यादा संकट में आ जाएगी।
अंत में यह जानना जरूरी है कि हमारे देश में बीजों का व्यापार हजारों करोड़ रुपयों का है, इसमें लगभग 50 प्रतिशत से भी अधिक बीज निजी कंपनियों के हैं। जीएम बीजों के माध्यम से बीज का बाजार पूर्ण रूप से कम्पनियों के अधीन हो जाएगा जिससे किसान की हालत और भी ज्यादा खराब होगी।
(लेखक बीज स्वराज अभियान और जीएम मुक्त भारत गठबंधन से जुड़े हैं।)
(मध्यमत)
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