किसान को बचाने के तमाम सरकारी और गैर सरकारी दावों और ऐलानों के बीच खेती किसानी की स्थितियां लगातार दुश्वार होती जा रही हैं। खेती में नुकसान होने पर किसानों की आत्महत्याएं अब खबर नहीं रहीं, वे रूटीन हो गई हैं। ऐसे में एक और चौंकाने वाली खबर ने किसानों की आजीविका ही नहीं, बल्कि खुद उनके सामाजिक जीवन पर आए संकट का खुलासा किया है।
इसे संयोग कहें या दुर्योग कि किसानों की बदतर जिंदगी का यह नया पहलू उजागर करने वाली खबर टाइम्स ऑफ इंडिया में ऐन नए साल के पहले दिन प्रकाशित हुई। इसे यदि प्रतीक समझा जाए तो इसका अर्थ यह हुआ कि जो नया साल बाकी लोगों के लिए एक दूसरे को शुभकामना देने का सबब है, वही नया साल किसानों के लिए और ज्यादा बिगड़े हुए हालात लेकर आता दिख रहा है।
नवदुनिया भोपाल का संपादक रहते हुए मैंने कुछ साल पहले बैतूल जिले की एक आदिवासी महिला अनिता नर्रे की खबर प्रकाशित की थी। इस महिला ने शादी के बाद अपने पति का घर सिर्फ इस बात के लिए छोड़ दिया था क्योंकि घर में शौचालय नहीं था। वह अपने ससुराल तभी लौटी जब वहां शौचालय की व्यवस्था हो गई।
खबर प्रकाशित होने के बाद अनिता नर्रे रातोंरात स्टार बन गई और तत्कालीन राष्ट्रपति तक ने उसे बुलाकर सम्मानित किया था। सुलभ इंटरनेशनल ने उसे अपना ब्रांड एम्बेसेडर बनाने का ऐलान किया था। उसी अनिता नर्रे की कहानी पर आधारित अक्षय कुमार की चर्चित फिल्म ‘टायलेट एक प्रेम कथा’ 2017 में रिलीज हुई और उस फिल्म ने काफी प्रशंसा बटोरी।
आप सोच रहे होंगे कि किसानों के मामले का अनिता नर्रे की ‘शौचालय कथा’ से क्या लेना देना है? तो मामला यह है कि देश के कई राज्यों में किसानों के साथ भी वही हो रहा है जो अनिता नर्रे के पति के साथ हुआ था। कम से कम टाइम्स ऑफ इंडिया की स्टोरी तो यही कहती है। इस स्टोरी के मुताबिक देश के कई राज्यों में लड़कियां किसानों से शादी करने से इनकार कर रही हैं।
यह खबर, खेती की दुर्दशा के लिए बदनाम हो चुके महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके में आने वाले बुलढाना जिले के डोंगर शेवली गांव के किशोर सावले की आपबीती से शुरू होती है। 32 साल का किशोर सावले करीब सवा करोड़ रुपए मूल्य की आठ एकड़, सिंचित जमीन का मालिक है। वह पढ़ा लिखा भी है और लाइब्रेरी साइंस में स्नातकोत्तर उपाधि हासिल करने के साथ उसने एजुकेशन में डिप्लोमा भी किया है।
लेकिन इतना सबकुछ होने के बावजूद किशोर पिछले चार साल से अपने लिए एक अदद दुल्हन ढूंढ रहा है। उसकी तमाम जमीन जायदाद और पढ़ाई लिखाई भी उसे एक दुल्हन नहीं दिलवा पा रहे हैं। उसने अपने जीवन साथी की तलाश में लगभग 30 परिवारों से संपर्क किया,लेकिन सिर्फ एक वजह से कोई परिवार उसे अपनी बेटी देने को तैयार नहीं हुआ, क्योंकि वह किसान है।
खुद किशोर की ही जुबानी उसकी दास्तान सुनें तो वह कहता है- ‘’हर लड़की और उसका परिवार, जिससे उसने संपर्क किया, यही कहते हुए मिला कि उन्हें सरकारी या प्रायवेट दफ्तर में चपरासी की नौकरी करने वाला लड़का चल जाएगा लेकिन किसान? ना बाबा ना… जबकि किशोर तमाम प्राकृतिक आपदाओं के बावजूद खेती से औसतन 20 हजार रुपए प्रतिमाह कमा लेता है।
किशोर के परिवार वालों की एक अदद ‘डिमांड’ यह है कि लड़की पढ़ी लिखी होनी चाहिए। लेकिन विदर्भ में किसानों की दुर्दशा और वहां से आए दिन आने वाली किसान आत्महत्या की खबरों के चलते कोई लड़की उसके साथ जीवन बिताने को तैयार नहीं है। थका हारा किशोर कहता है कि अब तो वह खेतीबाड़ी छोड़कर किसी प्रायवेट कंपनी में चपरासी की नौकरी करने की सोचने लगा है। इससे कम से कम उसके साथ कोई लड़की शादी को तो तैयार हो जाएगी।
ऐसी ही समस्या कर्नाटक के युवा विश्वास बेलेकर के साथ भी थी। जब उसने देखा कि उसका किसान होना उसे जिंदगी भर कुंवारा ही बनाए रखेगा, तो उसने इसका नायाब तोड़ निकाला। उसने खेती छोड़ी, पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र के एक शहर में चांदी उद्योग में नौकरी की। उस नौकरी का हवाला देकर शादी की और फिर खेती की ओर लौट आया।
लेकिन खुद बेलेकर अपने घर में ही इस समस्या को नहीं निपटा पाया। उसकी दोनों बहनों वनिता और सविता ने किसी किसान से शादी करने से इनकार कर दिया। लाख समझाने पर भी वे नहीं मानीं और अच्छे खासे, खाते पीते किसान परिवार के युवाओं को छोड़कर उन्होंने उन लड़कों की तुलना में बहुत कम कमाने वाले ऐसे लड़कों का हाथ थाम लिया जो छोटा मोटा कामधंधा करते थे।
मध्यप्रदेश के किसान नेता शिवकुमार शर्मा ‘कक्काजी’ कहते हैं कि ‘’यहां भी ऐसे ही हालात पैदा हो रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि किसानों की आने वाली पीढि़यों के युवा अनब्याहे ही रह जाएं। जिस तरह खेती में हालात बिगड़ रहे हैं और यह लगातार घाटे का सौदा होती जा रही है, उसके चलते आखिर कोई भी लड़की क्यों ऐसे हालात में खुद को बरबाद करने पर राजी होगी?’’
खेती से जुड़ा यह नया संकट रोंगटे खड़े कर देने वाला है। एक तरफ वैसे ही बढ़ते शहरीकरण, बेरोजगारी के दबाव और खेती पर मौसम एवं परिस्थितियों की मार के चलते लोग खेती से दूर होते जा रहे हैं। ऐसे में यदि युवाओं को लगेगा कि खेती किसानी का काम करने से उन्हें कोई लड़की तक नहीं देगा और वे अपना घर भी नहीं बसा सकेंगे, तो कोई अपनी जिंदगी खेती में क्यों खपाना चाहेगा? वैसे भी लोग तेजी से खेती छोड़ रहे हैं। जनगणना के आंकड़े कहते हैं कि 2001 से 2011 के बीच देश में 90 लाख किसानों ने खेती को अलविदा कह दिया।
सरकारें भले ही खेती को लाभ का धंधा बनाने या 2022 तक किसानों की आय दुगुनी करने के सब्जबाग दिखाती रहें, लेकिन जिस काम के चलते आदमी खुद ‘सिंगल’ से ‘डबल’ नहीं हो पा रहा, वह कब तक इस ‘दुगुनी आय’ के झुनझुने को बजाता रहेगा?