मध्यप्रदेश के नए विधानसभाध्यक्ष

जयराम शुक्ल

विंध्‍य क्षेत्र के चर्चित नेता गिरीश गौतम मध्‍यप्रदेश के चौदहवें विधानसभा अध्यक्ष बन गए हैं। राजनीतिक गुणाभाग के हिसाब से देखा जाए तो यह विंध्य के प्रतिनिधित्व को साधने का उपक्रम है। पिछले साल मार्च में जब से भाजपा की सरकार बनी थी तब से ही विंध्य के प्रतिनिधित्व को लेकर तमाम सवाल उठ रहे थे क्योंकि भाजपा ने एक तरह से क्लीनस्वीप करते हुए यहां 30 में से 24 सीटें जीती थी। इस बीच विंध्यप्रदेश के पुनरोदय को लेकर भी मुद्दा गरमाया। बहरहाल अब ज्यादा कुछ कहने को नहीं बचेगा की प्रतिनिधित्व नहीं मिला।

भाजपा ने अपनी उज्‍ज्‍वल परंपरा के अनुसार जैसे गोपाल भार्गव से शिवराजसिंह जी का नाम प्रस्तावित कराया था उसी तरह स्पीकर के लिए गौतमजी का नाम राजेंद्र शुक्ल से करवाया। राजेन्द्र जी मंत्रिमण्डल में क्यों नहीं यह सवाल भी प्रायः मीडिया में उछलता रहा है जबकि वे शिवराज मंत्रिमंडल में अच्छे परफार्मेंस के लिए जाने जाते रहे हैं। खैर यह संगठन का अंदरूनी मामला है। संभवत: संगठन में उन्हें लेकर आगे कोई योजना होगी।

राजनीति से हटकर देखें तो विंध्य की मेधा को सम्मान मिला है। गौतमजी बैरिस्टर गुलशेर अहमद, रामकिशोर शुक्ल, श्रीनिवास तिवारी के बाद चौथे ऐसे जनप्रतिनिधि हैं जो विधायिका की सम्मानित उच्च आसंदी पर बैठेंगे। यह संयोग ही है कि गिरीश गौतम ने ही 2003 के चुनाव में मनगवां विधानसभा क्षेत्र से श्रीनिवास तिवारी को परास्त करके उन्हें राजनीति के बियावान में पहुँचाया था। विंध्य के उपरोक्त तीनों विधानसभाध्यक्षों की अच्छी साख रही है। बैरिस्टर साहब विधिक ज्ञान के लिए जाने गए तो रामकिशोर जी की संतमयी शालीनता ने सदन का मन मोहा। तिवारी जी की विधानसभा में कुछ विशिष्ट परंपराओं से पहचान बनी।

मसलन उनके कार्यालय में रेकार्ड बैठकें हुईं, एक अपवाद को छोड़कर सदन में कभी मार्शल का प्रयोग नहीं किया गया।  सदन में उनकी प्रतिउत्पन्नमति देखते बनती थी। वे कुशल विधिवेत्ता और संसदीय मामलों के ज्ञाता थे। इंग्लैंड के हाउस आफ कामंस के प्राइम मिनिस्टर ऑवर की तर्ज पर उन्‍होंने सदन में एक घंटे का चीफ मिनिस्टर ऑवर प्रारंभ किया लेकिन उनकी देशव्यापी चर्चा सरकार के समानांतर स्पीकर पद के रसूख को कायम करने को लेकर हुई।

विंध्य की माटी ने हर क्षेत्र में मेधावी नेता दिए। अब तक दो मुख्यमंत्री, तीन राज्यपाल, चार स्पीकर व बीस के आसपास उच्च/सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश यहां से बने हैं। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस जेएस वर्मा और उनके गुरु हाईकोर्ट के जस्टिस जीपी सिंह साहब को विश्व के श्रेष्ठ न्यायविदों में प्रतिष्ठा प्राप्त रही। इस दृष्टि से इस क्षेत्र के मेधावियों की तीनों पालिकाओं में धाक रही।

मध्यप्रदेश विधानसभा के अब तक के स्पीकरों की चर्चा की जाए तो सबसे सम्मानित और श्रेष्ठ नाम पंडित कुंजीलाल दुबेजी का है। वे 56 से 67 तक विधानसभा अध्यक्ष रहे। भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से भी अलंकृत किया। उनके बाद सुंदरलाल पटवा जी ऐसे दूसरे सदन के सदस्य हुए जिन्हें पद्म अलंकरण से नवाजा गया। काशीप्रसाद पांडे काकाजी के नाम से प्रतिष्ठित हुए। उनकी सरलता-सहजता के किस्से आज भी सुने जाते हैं। संविदकाल में दलबदल और सरकार के बनने बिगड़ने की कठिन विधिक परिस्थितियों को उन्होंने निर्विवाद निपटाया। मुकुंद सखाराम नेवालकर जनता काल में स्पीकर हुए। उन्हीं के कार्यकाल में इंदौर के सुरेश सेठ विधानसभा में हाथी लेकर घुस गए थे।

भाजपा के पहले स्पीकर बनने का श्रेय ब्रजमोहन मिश्र (90-93) को जाता है। इनका कार्यकाल बेहद उथल-पुथल वाला रहा। विधायकों के निलंबन से लेकर बर्खास्तगी तक इनके कार्यकाल में हुई। फिर ईश्वरदास रोहाणी का दशकीय कार्यकाल रहा व उनके उत्तराधिकारी बने सीताशरण शर्मा। यदि 2018 के चुनाव में भाजपा को पहली बार बहुमत से सरकार गठित करने को मिलती तो संभवतः रोहाणी जी की तरह वही दोहराए जाते। लेकिन क्षेत्रीय संतुलन और साधने की राजनीति के चलते विंध्य के गिरीश गौतमजी को यह सुअवसर मिला।

गिरीश जी चार बार के विधायक हैं। सत्रह साल की संसदीय अवधि है लेकिन उनका संघर्षकाल 1972 से एक छात्रनेता के रूप में शुरू होता है। वे लगभग 30 साल तक सड़कों पर मोर्चा लेते संघर्ष के प्रतिरूप बने रहे। 2003 से पहले भी वे तीन चुनाव लड़ चुके थे पर विफलता ही हाथ लगी। वजह उनकी तब की पार्टी थी। वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के खाँटी कामरेड और गरीब-गुरबों के वकील थे। टर्निंग प्वाइंट 1998 में आया जब वे भाकपा की टिकट पर मनगँवा से चुनाव लड़े और महज 196 मतों से पीछे रह गए।

कुशाभाऊ ठाकरेजी व पटवाजी की प्रेरणा और रीवा संभाग के तत्कालीन संगठन मंत्री भगवत शरण माथुर के समवेत प्रयासों और कार्यकर्ताओं के इच्छाजनित दबाव के चलते वे भाजपा में शामिल हुए। 2003 के चुनाव में कांग्रेस के दिग्गज व मुख्यमंत्री के समानांतर रसूख रखने वाले श्रीनिवास तिवारी को 28 हजार से ज्यादा मतों से हराकर देशभर के अखबारों की सुर्खियां बने। तब से उनकी जीत का सिलसिला चल निकला जो सीट बदलने के बावजूद जारी रहा।

संघर्षों की विरासत से मिली साफगोई और खाँटीपन अभी भी उनके चरित्र का हिस्सा है। गौतमजी मीडिया के लिए भी लीड केस हैं। पैतीस बरस की पत्रकारिता में मैंने कभी उनका प्रेस नोट नहीं देखा। शायद ही कभी किसी अखबार में खबरों को लेकर उन्‍होंने फोन किया हो। न छपवाने के लिए और न रोकने के लिए। वे कामरेड से अंत्योदयी कैसे बने, एक बार इसका जिक्र छेड़ा तो बड़ा ही ठोस जवाब था- ” जो पार्टी आज तक नहीं जान पाई कि गंगासागर में संक्रान्ति के दिन एक करोड़ से ज्यादा कैसे जुट जाते हैं, कुँभ में बिना बुलाए कैसे जमा हो जाते हैं वह पार्टी देश की मूलधारा की कैसे हो सकती है? वे लोग अपने प्रतीक और नायक विदेशों में ढूँढते हैं जबकि राम से बड़ा सर्वहारा का नायक और कौन हो सकता है”

उनकी यह व्याख्या परिस्थितिजन्य भी हो सकती है लेकिन जमीन से उनका जुड़ाव आज भी वैसा ही है जैसे तीस साल की कॉमरेडी के वक्त था। शायद वे इकलौते होंगे जो प्रायः प्रतिवर्ष साइकिल से अपना समूचा क्षेत्र नापते हैं। गौतमजी डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के सफल वकील भी रहे। चार बार की विधायकी में कई संसदीय दायित्व भी निभाए, सो विधानसभा का संचालन उनके लिए कोई बड़ा सबक नहीं होगा। उनके आगे जो बड़ा सबक है वो यह कि वे पिछले 13 विधानसभाध्यक्षों के अलग हटकर अपनी कौन सी लकीर खींचते हैं क्योंकि 2023 में इसी के आधार पर उनका आकलन होना है।

(लेखक विंध्‍य क्षेत्र के वरिष्‍ठ पत्रकार हैं)

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