विजयमनोहर तिवारी

आज से 50 साल बाद जब भोपाल गैस हादसे का एक भी ‘असल पीड़ित’ (असल पीड़ित मतलब असल पीड़ित, मुआवजे की लिस्ट के हितग्राही नहीं) धरती पर जीवित नहीं बचेगा, तब दुनिया के किसी न किसी कोने से कोई शोधार्थी इस त्रासदी के बारे में कुछ जानने के लिए भोपाल आएगा तो वह कहां जाएगा? उसे 1984 के दिसंबर में हुई संसार की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी के विस्तृत दस्तावेजी ब्‍योरे कहां मिलेंगे? हमने किस रूप में 15 हजार मौतों का हिसाब स्थाई महत्व के दस्तावेजों पर सहेजा है?

2009 में जब हादसे के 25 साल हुए तो मुझे पहली बार यूनियन कार्बाइड और उससे सटी बस्तियों में जाने का मौका मिला था। कुछ असल पीड़ित परिवारों में भी मैं गया। उसके पहले केवल सुना और पढ़ा ही था। अखबारी खबरों में यह डोमिनिक लापिएर के उपन्यास में। मैंने भोपाल से लेकर दिल्ली तक किताबों की दुकानें छानी। मुझे यह कहते हुए अफसोस है कि एक भी ढंग की किताब किसी दुकान पर नहीं मिली। लापिएर के नॉवेल के अलावा तत्कालीन कलेक्टर मोतीसिंह की ‘भोपाल गैस त्रासदी का सच’ बस।

जिस भोपाल की सड़कों पर 15 हजार निर्दोष बच्चों, महिलाओं, पुरुषों की लाशें गिरी थीं और बेजुबान जानवर और परिदों के मरने का तो कोई हिसाब ही नहीं है, 15 ढंग की किताबें नहीं लिखी गईं। जबकि यह निरक्षरों का शहर नहीं था। यह दूरदराज के अनजान इलाके में भी नहीं था, जहां जा पाना नामुमकिन हो। स्कूटर की एक किक लगाने जितनी ही जहमत में पहुंचा जा सकता था। यह अकादमियों का शहर था, कॉलेज और विश्वविद्यालय थे। यहां एडिटर थे, फीचर एडिटर थे, ब्यूरो चीफ थे, रिपोर्टर थे। हिंदी विभागों में एचओडी थे, प्रोफेसर थे। लेखक, उपन्यासकार, कवि और शायर तो भरपूर थे। भाषा भी थी, लिपि भी थी मगर एक मानवीय त्रासदी बगल से गुजर गई और किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा।

पत्रकार तो ऐसे भी थे, जिन्‍होंने 2-3 दिसंबर 1984 की तारीख कैलेंडर पर आने के महीनों पहले ही मिथाइल आइसोसाइनेट की गंध अपनी दूरदर्शी निगाह से पकड़कर लिख दिया था कि भोपाल ज्वालामुखी के मुहाने पर है। वह कभी भी फट सकता है। वह वाकई फट गया। राजकुमार केसवानी अपनी उसी एक रिपोर्ट की बदौलत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि पाने वाले भोपाल के सौभाग्यशाली और यशस्वी पत्रकार थे, जो बाद में स्टार न्यूज और एनडीटीवी वगैरह में रहते हुए दैनिक भास्कर के संपादक तक बने।

मुझे हैरत है कि राजकुमार केसवानी ने मुगले-आजम नाम की पूरी तरह कल्पना पर आधारित फिल्म के बनने की कहानी को तो अपनी एक बेहद शानदार किताब का विषय बनाया और भास्कर के रविवारीय अंक में फिल्मों पर लगातार लिखा, लेकिन गैस हादसे को उसी एक रिपोर्ट के बाद समाप्त अध्याय कर दिया। जबकि इस पूरी अवधि में वे देश-दुनिया में गैस हादसे के एक अधिकृत प्रवक्ता के रूप में मंचों पर जाते रहे थे। तीन चार सौ पेज की एक किताब में वे तो राजनीतिक कुचक्रों को सबसे बेहतर ढंग से बेनकाब कर सकते थे? अपने जूनियर पत्रकारों से मानवीय दृष्टिकोण से कई किताबें लिखवा सकते थे। वे एक प्रतिष्ठित पत्रकार थे, अकादमियों से भी यह काम करा सकते थे।

आठ साल पहले दिल्ली में ‘डाउन टू अर्थ’ के एक कार्यक्रम में दो दिसंबर की शाम एक आयोजन में वकील इंदिरा जयसिंह और राजकुमार केसवानी के साथ मुझे भी बुलाया गया था। मैंने एक पाठक के नाते यह शिकायत वहां सबके सामने रखी कि भोपाल के प्रबुद्ध लोगों ने इस हादसे पर स्थाई महत्व के दस्तावेज नहीं रचे, क्यों? वे किसे बचा रहे थे?

जापान के हिरोशिमा और नागासाकी की तबाही को वहां के लोगों ने अपनी स्थाई स्मृतियों में बसाया। हिटलर के यातना शिविरों में मारे गए यहूदियों के विस्तृत ब्‍योरे सभ्य समाजों ने संजोकर रखे। बच्चों के खिलौने, कलम, बस्ते, जूते, जैकेट, चश्मे, डायरियां, फोटो म्युजियम की धरोहर हैं और एक-एक मृतक के नाम शिलापटों पर। दुनिया भर के सिनेमा ने अनगिनत फिल्में बनाई हैं। बेशक किताबें भी लिखी ही गई होंगी। मगर भोपाल एक प्रदेश की राजधानी होकर भी 15 हजार मौतों का वैसा हिसाब नहीं रख सका।

इसलिए कहता हूं कि 50 साल बाद दुनिया के किसी देश का कोई रिसर्चर कभी भोपाल आया तो वह कहां जाकर क्या सबूत और ब्‍योरे देखेगा-पढ़ेगा? और तो और भोपाल के किसी अखबार में दिसंबर 1984 की कोई फाइल तक नहीं है। कुछ साल पहले तक अखबारों के रिपोर्टर माधवराव सप्रे समाचार पत्र संग्रहालय की दौड़ लगाते रहे, अपने ही अखबार की कोई फाइल देखने के लिए।

जब आप सप्रे संग्रहालय की फाइलों को पलटेंगे तो पता चलेगा कि जब वॉरेन एंडरसन भोपाल आया तब हमारे माननीय प्रधानमंत्री और माननीय मुख्यमंत्री एक साथ हरदा की एक चुनावी सभा में भाषण दे रहे थे। यह उस दिन की बात है जब भोपाल की सड़कों पर लाशें पड़ीं थीं, इंसानों की भी और जानवरों की भी। आज के इंटरनेट और चौबीस घंटे चौकस टेलीविजन चैनलों के दौर में आप कल्पना नहीं कर सकते कि ऐसे विकट समय देश और प्रदेश के टॉप लीडर किसी चुनावी सभा में होंगे। वे अगले ही दिन कुर्सी पर नहीं रहेंगे।

वॉरेन एंडरसन को सरकारी विमान से भोपाल से सुरक्षित दिल्ली भेजने और फिर अमेरिका विदा करने का कलंकित अध्याय ही इतना तगड़ा कोण है कि भोपाल से दिल्ली तक सक्रिय रहे मध्यप्रदेश मूल के पत्रकार बेहतरीन किताबें लिख सकते थे। सबसे बड़ा गुनहगार था वो और एक भी दिन भारत की किसी अदालत में हाजिर हुए बिना अपनी पूरी जिंदगी जीकर बड़े आराम से मरा।

दस्तावेज क्या करते हैं? वे अपने समय का सच सहेजकर रख लेते हैं, जो स्मृतियों का हिस्सा बनते हैं। कम से कम आने वाली पीढ़ियों को पता तो होता कि हो क्या रहा था? जस्टिस एएम अहमदी की भूमिका पर कोई रिटायर्ड जज या वकील या लॉ का प्रोफेसर क्यों नहीं एक जोरदार विश्लेषण कर सकता था? किसने हाथ पकड़े थे?

मुझे एक मित्र ने इस सवाल का जवाब दिया। उन्होंने कहा कि गैस हादसे पर किसी राजनीतिक, न्यायिक, प्रशासनिक विषय पर लिखना किसी के लिए भी मुश्किल काम था। खासकर लेखक और पत्रकार बिरादरी के लिए। क्योंकि ऐसा करके आप तत्कालीन सरकार को छोड़ नहीं सकते थे। ऐसा नहीं हो सकता था कि बिना जांच पड़ताल यूनियन कार्बाइड के कारखाने को चलता हुआ लिखा जाए या एंडरसन के भगाए जाने की कहानी लिखी जाए और आप राजनीतिक नेतृत्व पर कुछ न कहें। तो कौन ये जोखिम मोल लेता? किसी ने ये जोखिम मोल नहीं लिया!

मितभाषी और प्रभावशाली कांग्रेस नेता अर्जुनसिंह तब मुख्यमंत्री थे और उनकी अहसानदारियों के अनगिनत किस्से पुराने पत्रकारों के पास आज भी हैं। वे किसी को निराश नहीं करते थे। वे सिगरेट की परची पर नौकरियों के आदेश दे दिया करते थे। सबका ख्याल रखा था उन्होंने। सबने उनका भी बराबर ख्याल रखा।
हादसों का क्या है, होते रहते हैं!
(लेखक की सोशल मीडिया पोस्‍ट से साभार)
(मध्‍यमत)
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