अरुण कुमार त्रिपाठी
भारत छोड़ो आंदोलन की जयंती पर महात्मा गांधी (और उनके नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी) के उस तेवर को याद करने की जरूरत है जो उन्हें भगत सिंह जैसे युवा क्रांतिकारी के करीब लाकर खड़ा कर देता है। इस मोर्चे पर गांधी अंतरराष्ट्रीय राजनीति के तमाम भ्रम को दरकिनार करने की क्षमता प्रदर्शित करते हैं और उसके लिए जापान, अमेरिका और यूरोप के देशों से अनवरत संवाद करते हैं। वे मित्र राष्ट्रों से भारत को आजाद करने और उसकी वैश्विक भूमिका को पहचानने की अपील करते हैं और उसे स्वीकार किए जाने का वचन न मिलने पर ब्रिटेन के औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध जनांदोलन की घोषणा करते हैं।
हालांकि गांधी द्वितीय विश्वयुद्ध में अपने को ब्रिटेन, सोवियत संघ और अमेरिका का समर्थक बताते हैं लेकिन जापान और जर्मनी का समर्थक होने की तोहमत झेलते हुए भी भारत की आजादी के लिए अपनी आखिरी जिम्मेदारी को प्रदर्शित करने का दृढ़ संकल्प दिखाते हैं। तिहत्तर साल के गांधी जब इस आंदोलन की तैयारी करते हैं तो स्वयं पंडित जवाहरलाल नेहरू उनसे सहमत नहीं रहते और काफी समझाने बुझाने के बाद साथ आते हैं। उनके करीबी महारथी और रिश्तेदार चक्रवर्ती राजगोपालाचारी साथ छोड़ देते हैं और कई घनिष्ठ लोग चेतावनी देते हैं कि इस उम्र में आंदोलन छेड़ना उचित नहीं है।
लेकिन यह आंदोलन वे आचार्य नरेंद्र देव, अच्युत पटवर्धन, जयप्रकाश नारायण और डॉ. राममनोहर लोहिया जैसे समाजवादी नेताओं की प्रेरणा से छेड़ते हैं और सांप्रदायिक व जातिवादी विभाजन में फंसे देश में कांग्रेस और अपनी डूबती हुई साख को फिर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित कर देते हैं। इसी को आचार्य नरेंद्र देव ने सच्ची राष्ट्रीयता कहा है। वे आंदोलनकारियों की हिंसा और अहिंसा की बहस को भी किनारे रखकर सरकार की दमनकारी नीतियों और तंत्र को हिंसा के लिए जिम्मेदार ठहराते है और चौरी चौरा के आग्रह से बाहर निकलकर हर भारतीय को करने या मरने की खुली छूट देते हैं।
यहां यह ध्यान देने की बात है कि उस समय तक कांग्रेस पार्टी के भीतर सक्रिय समाजवादी समूह क्रांति के लिए हिंसा का मार्ग एकदम छोड़ने को तैयार नहीं था। इसीलिए उन्होंने भूमिगत रेडियो चलाना, रेल की पटरियां उखाड़ना और टेलीफोन के तार काटने जैसे हिंसा के वे काम किए जो किसी की जान नहीं लेते थे। साधन की पवित्रता के सिद्धांत को किनारे रखकर साध्य को प्राप्त करने के लिए समाजवादियों ने जेल से भी भागने की क्रांतिकारी योजना को अंजाम दिया। 9 नवंबर 1942 को जयप्रकाश नारायण, जोगिंदर शुक्ला, सूरज नारायण सिंह, शालिग्राम सिंह, गुलाब चंद्र गुप्ता और रामनंदन मिश्र दीवाली के जलसे का फायदा उठाकर हजारीबाग जेल से भागने में सफल हो गए।
इसमें जोगिंदर शुक्ला ऐसे क्रांतिकारी थे जो भगत सिंह के साथी थे और उन्होंने इस योजना को अंजाम देने में प्रमुख भूमिका निभाई। बाद में वे लोग नेपाल चले गए जहां पर उन्हें डॉ. राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन और उनकी बहन विजया पटवर्धन भी मिलीं। उसके बाद वे लोग हनुमानगढ़ में पुलिस की गिरफ्त से आजाद होने के लिए हथियार से लड़े भी।
`भारत छोड़ो’ की इन्हीं गतिविधियों को लक्ष्य करते हुए अंग्रेज सरकार ने गांधी और कांग्रेस को बदनाम करने के लिए 86 पेज की एक पुस्तिका तैयार करवाई। उस पुस्तिका का शीर्षक था `कांग्रेस रिस्पांसबिलिटी फार डिस्टर्बेंस 1942-43’ , जिसे टी. टाटेनहैम नाम के गृह मंत्रालय के एक अधिकारी ने तैयार किया था। उस पुस्तिका ने जिन बिंदुओं पर गांधी और कांग्रेस को लांछित किया गया था वे इस प्रकार हैः- पहला बिंदु यह था कि गांधी नहीं चाहते थे कि आंदोलन अहिंसक हो। दूसरा बिंदु यह था कि गांधी ने अग्रेजों के बदले जापान को तरजीह दी।
इसके अलावा उस पुस्तिका में यह भी कहा गया था कि गांधी की पूरी शब्दावली सामान्य जन को संबोधित करती है और वह उन्हें हिंसा के लिए उकसाती है। पुस्तिका में कहा गया था कि गांधी जानते थे कि इस समय (द्वितीय विश्वयुद्ध के समय) भारत में किया जाने वाला कोई भी जनांदोलन एक हिंसक आंदोलन ही होगा। यह जानकारी रखने के बावजूद वे हिंसा और अराजकता पैदा करने के खतरे के लिए तैयार हुए।
आमतौर पर हर आरोप को शांत भाव से लेने वाले और इस दौरान भी अंग्रेजों को अपना मित्र कहने वाले महात्मा गांधी इस पुस्तिका से बहुत नाराज हुए। उन्होंने आगा खान महल में बनाई गई जेल से ही वायसराय लार्ड लिनलिथगो को कड़ा पत्र लिखते हुए इसका प्रतिवाद किया। गांधी ने लिखा, ”क्या हिंसा के लिए सरकार की तरफ से अचानक की गई अनावश्यक कार्रवाई जिम्मेदार नहीं है। कांग्रेस निश्चित तौर पर हर तरह के फासीवाद के विरुद्ध है।’’
गांधी को यह उम्मीद नहीं थी कि सरकार उन्हें गिरफ्तार करेगी। उसके पहले वे वायसराय लार्ड लिनलिथगो से युद्ध में ब्रिटेन के समर्थन और उसी के साथ भारत की आजादी का वायदा किए जाने का आग्रह कर चुके थे। लेकिन ब्रिटिश प्रधानमंत्री विन्सटन चर्चिल इस तरह का कोई भी वायदा करने को तैयार नहीं थे। गांधी इस बारे में अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूजवेल्ट को पत्रकार लुई फिशर के माध्यम से पत्र भी भेज चुके थे। लेकिन रूजवेल्ट के कहने का भी कोई असर चर्चिल पर नहीं पड़ा था।
गांधी ऐसे नेता थे जिन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ने के बाद 1939 में ही ब्रिटेन के प्रति पूरी सहानुभूति जताई थी। लेकिन ब्रिटेन ने उनके इस सद्भाव पर कोई ठोस आश्वासन नहीं दिया। इसलिए गांधी ने हिंदू महासभा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और मुस्लिम लीग की तरफ से आंख मूंद कर अंग्रेजों का साथ देने और फौज में भरती कराने के बजाय भारत की आजादी के मसले को जबरदस्त तरीके से उठाने की ठानी।
इस दौरान कम्युनिस्टों ने भी उनका विरोध किया और वायसराय की कार्यपरिषद के सदस्य डॉ. भीमराव आंबेडकर ने भी उनके आंदोलन को मूर्खता कहा। लेकिन उनकी दलीलों और संघर्षों के आधार पर भारत की आजादी के संघर्ष को पूरी दुनिया में समर्थन मिला। गांधी की गिरफ्तारी के दूसरे ही दिन लंदन में वार कैबिनेट की बैठक हुई। इस बैठक में चर्चिल बहुत प्रफुल्लित थे। उन्होंने दावा किया कि `हमने गांधी को जेल में ठूंस दिया है।’
उनके इस दावे पर कभी गांधी के विरोधी रह चुके जनरल स्मट्स ने कहा, “गांधी परमेश्वर का आदमी है। हम और तुम तो नश्वर प्राणी हैं। गांधी ने धार्मिक उद्देश्यों को जाग्रत किया है। आपने वैसा नहीं किया है। इसलिए आप विफल हैं।’’ इसके जवाब में चर्चिल ने कहा, ”संत आगस्तीन के बाद हमने सबसे ज्यादा बिशप बनाए हैं।’’
बयालीस का आंदोलन इस मायने में अलग है कि गांधी जेल के भीतर से घोषणा कर रहे हैं कि सत्याग्रह एक अजेय अस्त्र है। उधर उनके अनुयायी और उनके साथ पूरा देश सड़क पर आ चुका था। इस आंदोलन में 90,000 से ज्यादा लोग गिरफ्तार किए गए और हजारों लोग मारे गए। गांधी ने दांडी मार्च की तरह सत्याग्रहियों को अलग से नहीं चुना था। सब कुछ अनियोजित था। लोग खुदमुख्तार हो गए थे। महाराष्ट्र के सतारा में, बंगाल के मिदनापुर में, उत्तर प्रदेश के बलिया में और बिहार के कई इलाकों में भूमिगत सरकारें काम कर रही थीं।
रामनाथ गोयनका की मदद से गांधी के बेटे देवदास गांधी ने `इंडिया रैवेज्ड’(भारत तबाह) नामक पुस्तिका भी प्रकाशित की। गांधी ने न तो अपने साथियों की निंदा की और न ही लोगों से आंदोलन वापस लेने की अपील की। उन्होंने लोगों से आरंभ में अहिंसक बने रहने की अपील की थी लेकिन जेल से उसे दोहराया नहीं बल्कि उन्होंने कहा भी कि हम तो जेल में हैं। इसलिए एक परतंत्र व्यक्ति बाहर की हिंसा के लिए कैसे जिम्मेदार हो सकता है।
उन्होंने वायसराय से कहा, ”आप मेरे ऊपर यह तोहमत लगा रहे हैं कि कांग्रेस के प्रतिष्ठित लोगों ने हत्याएं की हैं। मैं हत्याओं के तथ्य देख रहा हूं और मुझे लग रहा है कि यह आपने किया है। मेरा जवाब यह है कि लोगों को पालगपन की ओर सरकार ने ठेला है। लोगों को गिरफ्तार करके उनके प्रति हिंसक व्यवहार का काम तो उन्होंने (सरकार ने) किया है।’’ वास्तव में गांधी को उम्मीद नहीं थी अंग्रेज सरकार उन्हें गिरफ्तार करेगी। ऐसा विचार उन्होंने अपने करीबियों से व्यक्त किया था।
लेकिन अंग्रेजों ने न सिर्फ गांधी और उनके करीबी लोगों को गिरफ्तार किया बल्कि नेहरू, पटेल, कृपलानी, मौलाना और सरोजिनी नायडू समेत कांग्रेस के पूरे नेतृत्व ही जेल में ठूंस दिया। इससे जनता में आक्रोश उत्पन्न हुआ। जेल में रहते हुए गांधी के प्रिय निजी सचिव महादेव देसाई की हार्ट अटैक से मौत हो गई। वे काम के दबाव से थक गए थे और उन्हें इस बात से भी डर लग रहा था कि कहीं महात्मा गांधी फिर अनशन न करें।
इस घटना ने गांधी को बहुत व्यथित किया। उस घटना से आगा खान महल में सजा काट रही कस्तूरबा भी बहुत विचलित हुईं और गांधी से कहा कि क्या अंग्रेज यहां रह नहीं सकते। गांधी ने कहा रह सकते हैं लेकिन शासक बन कर नहीं। एक साल बाद कस्तूरबा की भी आगा खान महल में मृत्यु हो गई। इस बीच बंगाल में भयानक अकाल पड़ा। हजारों लोग मर रहे थे। उन खबरों ने भी गांधी को विचलित किया।
उन्होंने वायसराय को पत्र लिखकर कहा कि भारत अभावों में तबाह हो रहा है, अगर आज विधिवत चुनी हुई राष्ट्रीय सरकार होती तो शायद ऐसा नहीं होता। गांधी जेल में भी हार मान कर बैठने वाले नहीं थे और न ही उन्हें यह बर्दाश्त था कि नागरिकों का दमन करने वाली सरकार उन पर हिंसा का आरोप लगाए। उन्होंने एलान किया कि वे 9 फरवरी 1943 से 21 दिन का उपवास करेंगे। इसके जवाब में वायसराय ने लिखा, “मैं मानता हूं कि अनशन एक प्रकार का राजनीतिक ब्लैकमेल है जिसका कोई नैतिक आधार नहीं है।’’
लेकिन गांधी ने एक दिन के अंतर से यानी 10 फरवरी को वाल्मीकि रामायण के पाठ और दूसरे धार्मिक ग्रंथों के उद्धरणों को सुनने के बाद उपवास शुरू किया। उधर अंग्रेज सरकार ने आगा खान महल में ही उनके अंतिम संस्कार की तैयारी शुरू कर दी। चर्चिल को उम्मीद थी कि चार या पांच दिन में गांधी का खेल खत्म हो जाएगा। लेकिन जब उपवास तीसरे हफ्ते में पहुंचा तो उन्हें लगा कि यह व्यक्ति तो उपवास पूरा कर ले जाएगा। फिर उन्होंने उन पर धोखाधड़ी करने और ग्लूकोज लेने का आरोप लगाना शुरू किया।
चर्चिल के इस आरोप के जवाब में वायसराय लिनलिथगो ने लिखा, “अगर धोखाधड़ी का कोई ठोस सबूत मिला तो मैं आपको इसकी जानकारी दूंगा। लेकिन मुझे ऐसी कोई आशा नहीं है। इसके बाद चर्चिल ने लिखा कि मुझे तो लगता है कि यह दुष्ट बूढ़ा इस कथित उपवास से ज्यादा स्वस्थ होकर निकलेगा। गांधी ने अपने उपवास से पूरी दुनिया में भारत की आजादी का नैतिक औचित्य पहुंचा दिया। इस बारे में लुई फिशर, फिलिप, विलियम शरर, विन्सेंट सीन, मार्गरेट बर्कह्वाइट और दुनिया के कई नामी पत्रकारों ने भारत के समर्थन में जनमत बनाने में योगदान दिया।
जेल से छूटने के बाद गांधी ने डॉ. लोहिया और जयप्रकाश नारायण को लाहौर जेल में दी जा रही यातना का मसला भी उठाया और कहा कि जयप्रकाश समाजवाद के आचार्य हैं। भारत में समाजवाद के बारे में उनसे ज्यादा कोई नहीं जानता। उन्हें इस तरह यातना दिया जाना शर्मनाक है। हालांकि समाजवादियों ने तब तक गांधी की अहिंसा में पूरा विश्वास नहीं व्यक्त किया था और उन सबके मन में भगत सिंह एक आदर्श क्रांतिकारी के रूप में उपस्थित थे। डॉ. लोहिया तो भगत सिंह के शहादत दिवस पर पड़ने के कारण अपना जन्मदिन नहीं मनाते थे। माखनलाल चतुर्वेदी ने गांधीजी से कह रखा था कि वे अपने अखबार में क्रांतिकारियों के खिलाफ कोई लेख या खबर नहीं छापेंगे। लेकिन गांधी ने सार्वजनिक रूप से अपने इन साथियों और उनकी गतिविधियों की आलोचना नहीं की।
दरअसल गांधी का `भारत छोड़ो’ आंदोलन आजादी की आखिरी लड़ाई थी। एक साल पहले रवींद्र नाथ टैगोर गुजर चुके थे, उनके प्रिय मित्र सीएफ एंड्रयूज भी नहीं रहे थे। इसलिए वे जान रहे थे कि अब वे ज्यादा दिन तक नहीं जीएंगे। उन्हें आजादी के साथ उन्हें हिंदू मुस्लिम एकता की भी चिंता थी। इन्हीं चुनौतियों को देखते हुए बंबई कांग्रेस के अधिवेशन में उन्होंने दो घंटे तक लगातार भाषण दिया। उस समय उनके तेवर किसी युवा क्रांतिकारी जैसे ही थे।
वे कहते हैं, “आपमें से हर स्त्री पुरुष को इस क्षण से अपने को आजाद समझना चाहिए और यों आचरण करना चाहिए मानो आप आजाद हैं और इस साम्राज्यवाद के शिकंजे से छूट गए हैं। ..गुलाम की बेड़ियां उसी क्षण टूट जाती हैं जिस क्षण वह अपने आपको आजाद समझने लगता है।’’ उसके बाद वे हिंदू मुस्लिम समस्या पर भी अपना ध्यान केंद्रित करते हुए कहते हैं, “इस देश में करोड़ों मुसलमान हिंदुओं के वंशज हैं। उनका वतन भारत के सिवा दूसरा कैसे हो सकता है। कुछ वर्ष हुए मेरा बड़ा लड़का मुसलमान हो गया। उसकी मातृभूमि क्या होगी? पोरबंदर या पंजाब? मैं मुसलमानों से पूछता हूं कि अगर हिंदुस्तान आपका वतन नहीं हैं तो आप किस मुल्क के हैं? किस अलग वतन में आप मेरे बेटे को रखेंगे जो मुसलमान बन गया? ’’
अब उनके मरने का जज्बा देखिए। वे कहते हैं, “प्रत्येक सच्चा कांग्रेसी चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, इस दृढ़ निश्चय से संघर्ष में शामिल होगा कि वह देश को बंधन और दासता में बने रहने को देखने के लिए जिंदा नहीं रहेगा।…सत्याग्रहियों को मरने के लिए, न कि जीवित रहने के लिए घर से बाहर निकलना होगा। उन्हें मौत की तलाश में रहना चाहिए और मौत का सामना करना चाहिए।…..स्वतंत्रता के हर सिपाही को चाहिए कि वह कागज के एक टुकड़े पर करो या मरो का नारा लिखकर, उसे अपने पहनावे पर चिपका ले ताकि अगर वह सत्याग्रह करते करते मर भी जाए तो उस निशानी द्वारा अलग से पहचाना जाए।’’
इसीलिए यह कहने में हर्ज नहीं है सन 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में गांधी के तेवर भगत सिंह जैसे थे जिन्होंने आजादी और हिंदू मुस्लिम एकता के लिए अपनी और अपने देशवासियों की जान की बाजी लगा दी थी।