30 जनवरी को मुझे गांधी जी की पुण्य तिथि पर आयोजित एक कार्यक्रम में जाना था। मुझसे अपेक्षा यह भी थी कि मैं उस कार्यक्रम में कुछ बोलूं भी। जब भी ऐसा कोई प्रसंग होता है मेरे लिए थोड़ी मुश्किल हो जाती है। मुश्किल इसलिए कि हम लोग स्वभावत: लिखने वाले लोग हैं, बोलने वाले नहीं। कंप्यूटर पर कुछ लिखना हमारे लिए ज्यादा आसान है बनिस्बत इसके कि किसी मंच पर माइक के सामने खड़े होकर बोलना।
जिस कार्यक्रम का मैं जिक्र कर रहा हूं वह भोपाल के सप्रे संग्रहालय में आयोजित किया गया था और इसका विषय था ‘गांधी के सरोकार और पत्रकारिता’ इस आयोजन से कई संदर्भ अनायास ही जुड़ गए थे। जैसे 30 जनवरी को ही भारत के दो महापुरुषों महात्मा गांधी और माखनलाल चतुर्वेदी की पुण्यतिथि का होना और इसके साथ ही चतुर्वेदी जी के अखबर ‘कर्मवीर’ के सौ साल पूरे हो जाना।
मैं जब यह सोच रहा था कि इस कार्यक्रम में आखिर क्या बोलूं तभी अचानक याद आया कि अरे, आज तो वसंत पंचमी भी है। वसंत पंचमी यानी प्रकृति के उत्सव का प्रसंग और साथ साथ विद्या की देवी सरस्वती की आराधना का पर्व। भारतीय साहित्य में इस दिन का एक और महत्व भी है वो यह कि हिन्दी के चर्चित कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ इसी तिथि को अपना जन्म दिन मनाते थे।
और जैसे ही बसंत पंचमी होने का ध्यान आया तो दिमाग में अचानक जैसे बिजली सी कौंध गई। अरे, प्रकृति ने इस बार यह कैसा योग चुना है? एक तरफ महात्मा गांधी और एक भारतीय आत्मा दादा माखनलाल चतुर्वेदी का अवसान दिवस और दूसरी तरफ उल्लास और उमंग का पर्व बसंत पंचमी। क्या प्रकृति या विधाता इस योग से कोई संकेत कर रहे हैं? क्या विधि का विधान यह इंगित कर रहा है कि यह गांधी के अवसान पर उत्सव मनाने का कालखंड है?
हां, शायद तिथियों और तारीखों का यह मेल बता रहा है कि देश जिन हालात से गुजर रहा है उनमें गांधी और गांधी के विचारों को निष्प्राण कर दिया जाना ही आज के समय का ‘बसंतोत्सव’ है। गांधी के शांति, अहिंसा, सौहार्द जैसे विचार को तिलांजलि देकर, या इन भावों की छाती पर पैर रखकर ही आज के बसंत का स्वागत द्वार खड़ा किया जा रहा है। और इस दृष्टि से देखें तो तिथियों और तारीखों का यह योग आक्रांत कर देने वाला है।
गांधी को हम उनके अवसान के बाद से जब-तब याद करते ही रहते हैं। और 2 अक्टूबर यानी उनके जन्म दिन और 30 जनवरी यानी उनके महाप्रयाण दिवस पर तो पूरे ‘भक्तिभाव’ से उनका स्मरण करते हैं। इस बार एक संयोग और जुड़ गया है कि गांधी को 150 साल पूरे हो गए हैं। डेढ़ पसली का वह महामानव आज डेढ़ सदी का हो गया है। गांधी के हो चुकने के 150 साल पूरे होते होते भारत कितना बदल गया है इसे यदि जानना हो तो आपको ज्यादा तकलीफ उठाने की जरूरत नहीं, आप बस गांधी की 150 वीं जयंती और उसके बाद 30 जनवरी 2020 को उनकी पुण्यतिथि के बीच देश में हुई घटनाओं को सिलसिलेवार जमा लीजिए।
और जैसे तिथियों व तारीखों का यह योग मानो अपने आप में कम नहीं था जो 30 जनवरी यानी ऐन गांधी की पुण्यतिथि के दिन उसी दिल्ली में एक और गोली चली। उस गोली ने बता दिया कि गांधी और उनके अहिंसा के विचार को मारने वाली गोलियां भारत में अभी खत्म नहीं हुई हैं। इस देश में कुछ नहीं बदला है। आज भी यह देश एक बार फिर उसी विभाजनवादी मानसिकता के मुहाने पर खड़ा है जिस मानसिकता ने 1947 में भारत का विभाजन करवाते हुए हमारी बहुप्रतीक्षित आजादी के जश्न को रक्तरंजित कर दिया था।
गुरुवार को नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के विरोध में दिल्ली की जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी से राजघाट तक मार्च निकाला जा रहा था। इस मार्च को पुलिस ने इजाजत नहीं दी थी और इसीलिए आगे बढ़ते लोगों को रोकने के लिए रास्ते में भारी पुलिस बल तैनात कर दिया गया था। पुलिस अधिकारी मार्च निकाल रहे लोगों से बात कर ही रहे थे कि एक युवक भीड़ के बीच से निकल कर सामने आया और नारेबाजी करते हुए गोली चला दी। यह घटना अपने आप में प्रमाण है कि देश गांधी को आज किस तरह याद कर रहा है।
अब मैं दूसरी बात पर आता हूं। दरअसल बात चाहे हमारे सामाजिक व्यवहारों की हो या पत्रकारिता की। गांधी के सरोकार हमें कहीं नजर नहीं आते। गांधी के सरोकार क्या थे? मोटे तौर पर कहें तो सत्य और अहिंसा। तो फिर पत्रकारिता का मार्ग भी यही होना चाहिए। लेकिन अहिंसा की बात तो छोडि़ये, पत्रकारिता की हिंसा का जैसा दौर आज हम देख रहे हैं वैसा देश ने शायद ही कभी देखा हो। इतनी हिंसक और इतनी असहिष्णु पत्रकारिता की कल्पना किसी ने नहीं की होगी।
और सत्य? सत्य से तो किसी का लेना देना ही नहीं है। क्या आज कोई कह सकता है कि हमारे यहां सत्य की पत्रकारिता हो रही है, या कि मीडिया सत्य को उजागर कर रहा है… नहीं, ऐसा कतई नहीं है। तो फिर क्या हम असत्य की पत्रकारिता कर रहे हैं? क्योंकि जब सत्य की राह पर नहीं चल रहे तो निश्चित ही असत्य की राह पर चल रहे होंगे। लेकिन नहीं, ऐसा भी नहीं है…
जब हम असत्य की बात करते हैं तो परोक्ष रूप से ही सही उसके सापेक्ष कहीं न कहीं सत्य हमारे आसपास होता है। तभी तो हम कह पाते हैं कि वह असत्य है। जो सत्य के विपरीत है वह असत्य। लेकिन आज की पत्रकारिता तो असत्य की राह पर भी नहीं है। वह तो सत्य को दबाने, छुपाने या उसे ही कुचल डालने पर आमादा है। जब सत्य ही नहीं रहेगा तो सत्य और असत्य में विभेद कैसा?
रही बात शांति और सौहार्द की, तो जब आपको आग लगाने और खाक करने की अच्छी कीमत मिल रही हो तो किसी को क्या पड़ी है जो वह शांति और सौहार्द की बात करे… उन शब्दों और भावों की, जिनका मोल दो कौड़ी भी नहीं…
शायद प्रकृति ने गांधी के अवसान की तारीख और बसंत पंचमी का योग भी यही सब सोचकर तय किया हो, कौन जाने…