अजय बोकिल
लगता है इस सरकार ने भक्त जनता की हर कदम पर अग्निपरीक्षा लेने की ठान रखी है। आम आदमी की जरूरत और अमूमन हर रोज जेब को झटका देने वाले पेट्रोल डीजल के भाव बीते चार के साल सबसे ऊंचे स्तर को छू गए। मीडिया में खबरें छपीं। पढ़ने-सुनने वाले और पसीना-पसीना हुए। लेकिन सरकार के कान पर शायद ही कोई जूं रेंगी हो। सरकार से राहत की उम्मीदें पालने वालों को केन्द्रीय वित्त सचिव हसमुख अढिया ने साफ ठेंगा बताते हुए कहा कि पेट्रोल-डीजल पर एक्साइज ड्यूटी घटाने का सरकार के पास कोई प्रस्ताव नहीं है। जो चल रहा है, वैसे ही चलेगा। अर्थात आपको गाडि़यों में पेट्रोल डीजल भरवाना हो तो भरवाइए, वरना पैदल चलिए।
सरकार को अपने खजाने की चिंता है। आपकी जेब फटे तो फटे। सरकार के पास एक स्थायी और वास्तविक कारण है ही कि क्या करें, अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें बढ़ रही हैं। सो कंपनियां भी उसी हिसाब से अपना मुनाफा कायम रखते हुए रेट बढ़ाती जा रही हैं। इसमें आगे भी कोई फरक नहीं पड़ने वाला है।
आजकल पेट्रोल और डीजल के रेट तिल-तिल बढ़ते हैं इसलिए एकदम पता नहीं चलता। देश की राजधानी दिल्ली की ही बात करें तो रोजाना पांच-पांच, दस-दस पैसे की बढ़ोतरी ने बीते 10 माह में पेट्रोल 7 रुपए और डीजल 9 रुपए लीटर महंगा कर दिया है। पता तब चलता है, जब आपके महीने का बजट बिगड़ता है।
पहले पेट्रोल-डीजल के भाव काफी ना-नुकुर के बाद महीनों में बढ़ते थे तो पता चल जाता था कि पेट्रोल- डीजल महंगा हो गया है। लेकिन अब जोर का झटका गुपचुप लगता है। इसका पता भी तब चलता है, जब पेट्रोल-डीजल की खातिर घर के दूध और फलों के बजट में कटौती होती है। मोदी सरकार ने पिछले साल से पेट्रोल-डीजल के भाव सोने की तरह रोजंदारी से बांध दिए हैं। हर दिन सुबह क्या भाव खुलता है, किस भाव बेचा जाता है, आपकी गाड़ी में पेट्रोल-डीजल कितना भरा जाता है तथा कितना मारा जाता है, यह आपको अव्वल तो पता ही नहीं चलता और चलता भी है तो उसकी अनदेखी आपकी नैतिक मजबूरी है।
यह सही है कि कच्चे तेल के भाव अंतरराष्ट्रीय बाजार से तय होते हैं। लेकिन उस कच्चे तेल के पेट्रोल-डीजल में बदलने, आपके गांव शहर तक पहुंचने और आपकी गाड़ी में डलने तक के सफर में केन्द्र और राज्य सरकारों ने इतने टैक्स लगा रखे हैं, कि वह तेल लगभग चौगुना दाम में आपके हिस्से में आता है।
यह भारी भरकम टैक्स भी जनता की उस भलाई या अधोसरंचना विकास के नाम पर लिया जाता है, जो हकीकत में बहुत कम नजर आता है। इनमें एक बड़ा टैक्स एक्साइज है, जो केन्द्र सरकार लेती है और बाकी राज्य सरकारें वसूलती है। टैक्स के जरिए आम जनता का यह ऐसा ब्लैकमेल है, जिससे बचने का कोई रास्ता लोगों के पास है ही नहीं।
पिछली बार भी जब पेट्रोल-डीजल के भाव तेजी से बढ़े तो सरकार ने एक्साइज टैक्स कुछ घटा कर कुछ राहत देने का नाटक किया था। राहत की यह खुशी चंद दिन ही टिक सकी, क्योंकि नए बजट में उसे दूसरे हाथ से वापस भी ले लिया गया। पेट्रोल-डीजल जैसी जरूरी चीज पर टैक्स में केन्द्रीय वित्तमंत्री अरूण जेटली ने बीते चार साल में 9 बार बढ़ोतरी की है। इससे होने वाली कमाई का लोभ इतना है कि कोई सरकार अपनी कमाई को घटते देखना नही चाहती।
केन्द्रीय वित्त सचिव हसमुख अढिया का भी अकड़ भरा जवाब कि पेट्रोल-डीजल पर टैक्स घटाने का कोई इरादा नहीं है (भले ही वह सौ रुपए लीटर हो जाए), प्रशासनिक उद्दंडता की पराकाष्ठा है। जनता को भुलावे के लिए पिछले दिनों यह तर्क भी दिया गया कि पेट्रोल डीजल को जीएसटी में लाया जा सकता है। तब कुछ राहत मिले। लेकिन यह भी वास्तव में संभव नहीं है। क्योंकि राज्य सरकारें इसके लिए तैयार नहीं है। और हो भी गया तो टैक्स का असल बोझ कुछ कम होने वाला नहीं है।
एक कुतर्क यह हो सकता है कि पेट्रोल-डीजल के दाम चार सालों के उच्च स्तर को छूने के बावजूद मनमोहन सरकार की तुलना में कम ही है। यानी कि बड़े चोर की तुलना में हमारी चोरी छोटी ही है। हमे याद रखना चाहिए कि दिल्ली विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कई बार कहा था कि पेट्रोल-डीजल के भाव मेरे नसीब से (उन दिनों अंतराष्ट्रीय कारणों से कच्चे तेल के भाव लगातार नीचे जा रहे थे) घट रहे हैं। लेकिन उन्होंने यह तक नहीं बताया कि ये अब ये भाव किसकी (बद) नसीबी से बढ़ रहे हैं।
विकास का मेनिया लिए इस सरकार के कानों में राहत और छूट की शहनाई अपवादस्वरूप ही गूंजती है। उसके पास खींचने के लिए हजार हाथ हैं, छोड़ने के लिए एक हथेली भी मुश्किल से है। ऐसे में जनता पेट्रोल डीजल के महंगे रेट से कराहे तो उसकी बला से, यहां खजाने को खरोंच आना भी गवारा नहीं है। हालांकि हमें यह भी ठीक से नहीं पता कि पेट्रोल डीजल पर टैक्स के जरिए जो पैसा सरकार के खजाने में जा रहा है, वह आखिर खर्च कहां किस काम में हो रहा है।
लोग कितना ही कराहें, सरकार पर उसका असर शायद ही होगा। क्योंकि बड़े-बड़े सपनों के लिए छोटी-छोटी कुर्बानियां जनता को देनी पड़ती ही हैं। सरकार की नजर में कोई भी राहत देना देश को नंबर वन बनाने के दावों की हवा निकलने जैसा है। और फिर टैक्स बढ़ाने इत्यादि का कोई भी कदम पीछे खींचना सरकार की हेठी है। विकास के लाल कालीन में पैबंद लगाने जैसा है। कोई भी दृढ़ प्रतिज्ञ सरकार ऐसी मूर्खताएं नहीं करती, फिर जनता चाहे सिर पीटती रहे।
(सुबह सवेरे से साभार)