जलता बेंगलुरु, मचलता जयपुर

राकेश अचल 

भाजपा शासित कर्नाटक की राजधानी बेंगलूरु में साम्प्रदायिक हिंसा से देश एक बार फिर शर्मसार हुआ, लेकिन इसी शर्म के बीच राजस्थान की राजधानी में राजनीति नए सिरे से मचलती दिखाई दे रही है। जहरीले मुबाहिसे जानेलवा हो चुके हैं, फिर भी देश अपने ढंग से योगिराज कृष्ण के जन्मोत्सव को मनाने में व्यस्त रहा। ये खबरों का घल्लूघारा है लेकिन हमें आज इन सभी खबरों पर एक साथ बात करना ही होगी।

बेंगलूरु की हिंसा की जड़ में फेसबुक की एक पोस्ट है तो जयपुर की राजनीति की जड़ में कुर्सी, दिल्ली की जहरीली टीवी बहसों की जड़ में नग्न सियासत है जिसके कारण एक संवेदनशील और लोकप्रिय राजनीतिक व्यक्ति की मौत हो जाती है। दुर्भाग्य ये है कि जड़ों का पता होने के बावजूद हम और हमारा समाज इन दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं को रोक पाने में नाकाम है। मौत से लगातार दो-दो हाथ करते देश में लोगों के पास इतनी फुरसत है कि वे एक विवादास्पद पोस्ट को लेकर अपना आस-पड़ोस जलाने पर आमादा हो जाएँ और उन्हें रोकने के लिए पुलिस गोली चलाये तो तीन लोगों की जान चली जाये?

जलते हुए बेंगलूरु को देखकर पीड़ा होती है। कांग्रेस के एक विधायक के परिजन की गलती की सजा विधायक के घर के साथ पूरे शहर को अशांत कर देने वाले लोग या तो सिरफिरे हैं या इतने धर्मांध, जो उनकी भावना छुईमुई की तरह आहत हो जाती है। धार्मिक भावनाओं को लक्ष्य कर लिखा जाना या बोलना घृणित है। किसी को भी ऐसा करने का न हक है और न किसी को ऐसा करना चाहिए, लेकिन यदि दुर्भाग्य से कहीं कुछ गड़बड़ हुई है तो उसकी प्रतिक्रिया इतनी हिंसक भी नहीं होना चाहिए। देश में कथित रूप से कानून  का राज है। आहत लोग क़ानून का सहारा ले सकते थे, लेकिन उन्होंने हिंसा का सहारा लिया।

कर्नाटक में सत्ता में भाजपा है इसलिए मैं कह सकता हूँ कि इस हिंसा के लिए सरकार जिम्मेदार है, किन्तु मैं ऐसा नहीं कह रहा। अलबत्ता लोग ऐसा कहेंगे और उन्हें ऐसा कहने का हक है। भाजपा शासित राज्यों में क़ानून और व्यवस्था की स्थितियों से इस हिंसा को नहीं जोड़ा जा सकता, क्योंकि बेंगलूरु की हिंसा क़ानून और व्यवस्था का नहीं समाज में बढ़ते विद्रूप का मामला है। दुर्भाग्य से ये विकार उन्हीं राज्यों में ज्यादा है जहाँ भाजपा है। संतोष का विषय ये है कि तीन लोगों की अयाचित मौत और दर्जनों लोगों के खून-खराबे के बाद हिंसा पर काबू पा लिया गया। चूंकि देश दूसरे तरह के उन्माद से गुजर रहा था इसलिए बेंगलूरु की हिंसा पर ज्यादा बहस नहीं हुई।

बहस की बात चली तो एक सबसे पुराने टीवी चैनल पर हुई बहस के बाद कांग्रेस के एक होनहार प्रवक्ता की दुर्भाग्य पूर्ण मौत की घटना ने दिल तोड़ दिया। दिल उन्‍हीं लोगों का टूटता है जो संवेदनशील या भावुक हैं, बेशर्म लोगों का दिल कभी नहीं टूटता। देश के टीवी चैनलों पर आजकल इतनी बीभत्स, विकृत, अमर्यादित और नीरस बहसें हो रही हैं की राजीव त्यागी जैसों का दिल टूटना स्वाभाविक है। टीवी चैनलों के एंकरों का काम ऐसी बहसों को लगातार विषाक्त बनाना रह गया है।

मुझे अनुभव है कि टीवी वाले जानबूझकर अराजकता पैदा करना चाहते हैं क्योंकि ऐसा करने से उनकी टीआरपी कथित  रूप से बढ़ती है। दुर्भाग्यपूर्ण बात ये है कि ऐसी जहरीली बहसों पर रोक के लिए हमारे पास कोई नियामक संस्था नहीं है एक रिमोट को छोड़कर। क्या ऐसी बहसें और बेंगलूरु की हिंसा में आप कोई समानता देखते हैं?

टीवी की जहरीली बहसों की ही तरह देश की, खासतौर पर राजस्थान की राजनीति जहरीली हो गयी है। संयोग से कांग्रेस के लिजलिजे नेतृत्व ने इस पर नियंत्रण पा लिया। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने रौ में आकर अपने ही पूर्व  उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट को क्या कुछ नहीं कहा, लेकिन अब उन्हें अपनी कुर्सी की खातिर एक बार फिर पायलट के सामने हथियार डालना पड़ रहे हैं। पूरा देश जानता है कि सचिन पायलट ने किस तरह रात-दिन एककर राजस्थान में हाशिये पर जाती कांग्रेस को सत्ता शिखर तक पहुंचाया था। बहरहाल अब राजस्थान में भी हालात मामूल पर आते दिखाई दे रहे हैं इसके लिए सचिन को ही श्रेय दिया जाना चाहिए कि तमाम अपमान झेलने के बाद वे मर्यादा पुरुषोत्तम नेता बने रहे।

अब आते हैं देश कि उत्सवधर्मिता और कोरोना से जूझते देश पर। देश में कोरोना का संक्रमण खतरनाक तरीके से फ़ैल रहा है, लेकिन सरकार रिकवरी रेट का छाता तानकर इसे कम करने की कोशिश कर रही है। कोरोना के प्रसार में सरकार की कम समाज की ज्यादा भूमिका है, लगातार लॉकडाउन से उकताए समाज में अब संयम नहीं रहा शायद इसीलिए देश में कोरोना का प्रसार तेजी से हो रहा है और रोजाना हम दुखद खबरों से दो-चार हो रहे हैं। रूस ने कोरोना महामारी का टीका विकसित करने का चमत्कार कर दिखाया है लेकिन अभी किसी को रूस के इस चमत्कार पर भरोसा नहीं है। हमारा देश भी सम्भवत: 15 अगस्त को इसी तरह के चमत्कार की घोषणा करेगा।

हमने इसी महामारी के बीच योगेश्वर श्रीकृष्ण का जन्मदिन मनाया, मंदिरों में पहले की तरह रौनक नहीं रही, लेकिन कन्हैया घर-घर जन्मे। ऐसी उत्‍सवधर्मिता ही हमें आपदा के दंश से बचाये हुए है। हमने इससे एक सप्ताह पहले श्रीराम की जन्मभूमि में मंदिर निर्माण के लिए भूमि-पूजन का उत्सव भी मनाया था। हमने राफेल के आने का भी उत्सव मनाया। तकलीफ ये है कि अब हर उत्सव के साथ सियासत वाबस्ता है। हमें दोनों को अलग-अलग करना होगा, अन्यथा देश में ऐसे लोग भी हैं जो राहत इंदौरी की मौत का भी उत्सव मनाने से नहीं चूकते। कूढ़मगज कहाँ नहीं होते?

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here