2019 के लोकसभा चुनाव से पहले मोदी सरकार ने किसानों के लिए बड़ा ऐलान करते हुए 14 फसलों के समर्थन मूल्य (एमएसपी) में बढ़ोतरी कर दी है। मोदी कैबिनेट के इस फैसले की जानकारी देते हुए गृह मंत्री राजनाथसिंह ने मीडिया को बताया कि बीते दस सालों में फसल के दामों में की गई यह सर्वाधिक बढ़ोतरी है।
राजनाथ सिंह ने कहा कि किसानों को अब खरीफ की फसल का डेढ़ गुना एमएसपी मिलेगा। इससे उन्हें अपनी उपज की सही कीमत मिल सकेगी। सरकार का यह फैसला ऐतिहासिक है और इसके जरिये नरेंद्र मोदी सरकार ने देश के किसानों को बड़ी सौगात दी है।
दरअसल सरकार के इस फैसले की नींव कुछ महीने पहले रख दी गई थी जब वित्त मंत्री अरुण जेटली ने वर्ष 2018-19 के बजट भाषण में ऐलान किया था कि सरकार खरीफ की उन फसलों के दामों में भी लागत मूल्य के डेढ़ गुना तक बढ़ोतरी करेगी जो अभी तक समर्थन मूल्य की सूची में शामिल नहीं हैं।
निश्चित रूप से केंद्र सरकार ने जो फैसला किया है वह किसानों की अपेक्षा के अनुरूप भले न हो लेकिन उन्हें राहत जरूर देगा। देश के किसान कई सालों से अपनी फसल का उचित मूल्य दिलाए जाने को लेकर आंदोलन करते आए हैं और खुद सरकार के ही मुताबिक दस साल बाद उनकी आवाज को सुना गया है।
लेकिन जिस दिन केंद्र सरकार की ओर से खरीफ फसलों का एमएसपी बढ़ाए जाने की खबर आई उसी दिन मीडिया में एक खबर और चली। इस खबर के मुताबिक नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने अंग्रेजी अखबार हिंदुस्तान टाइम्स से बातचीत में कहा कि- ‘’स्वामीनाथ आयोग की सिफारिश लागू करने के लिहाज से अव्यावहारिक है।‘’
नीति आयोग के एक जिम्मेदार पदाधिकारी के हवाले से हुई यह टिप्पणी बताती है कि देश में कृषि सुधार और किसानों की आय में बढ़ोतरी की बहस के आधार को ही सिरे से खारिज किया जा रहा है। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि पिछले 12 सालों से देश के किसान संगठन लड़ाई ही इस बात की लड़ रहे हैं कि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू किया जाए।
मुझे नहीं मालूम की सरकार में बैठे लोग राजीव कुमार की राय से कितना इत्तफाक रखते हैं। लेकिन नीति आयोग के उपाध्यक्ष ने यदि कोई बात कही है तो पूरी जिम्मेदारी से कही होगी और तभी कही होगी जब इस तरह की राय सरकार की भी रही हो। वरना वे सरकार की मंशा के खिलाफ जाकर ऐसा कहने की जुर्रत नहीं करते।
समर्थन मूल्य के इस झमेले को समझने के लिए हमें 14 साल पीछे जाना होगा। 18 नवंबर 2004 को केंद्र सरकार ने कृषि विज्ञानी डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन की अध्यक्षता में राष्ट्रीय किसान आयोग का गठन किया था। आयोग ने अपनी चार रिपोर्ट्स सरकार को सौंपी इनमें से अंतिम रिपोर्ट अप्रैल 2006 में आई।
स्वामीनाथन आयोग ने 11वीं पंचवर्षी योजना के लक्ष्य ‘अधिक तेज तथा अधिक समावेशी विकास’ की प्राप्ति के लिये अनेक उपाय सुझाये। इन उपायों में भूमि बंटवारा, भूमि सुधार, सिंचाई सुधार, उत्पादन सुधार, ऋण और बीमा, खाद्य सुरक्षा, किसान आत्महत्या रोकना, वितरण प्रणाली में सुधार, प्रतिस्पर्धा का माहौल बनाना, रोजगार सुधार जैसे कई उपाय शामिल थे।
लेकिन आयोग की सबसे महत्वपूर्ण सिफारिश यह थी कि फसल उत्पादन मूल्य से पचास प्रतिशत ज़्यादा दाम किसानों को मिले। और इसी बिंदु को लेकर कई सालों से उलझन और विवाद की स्थिति बनी हुई है, क्योंकि सरकारें उत्पादन या लागत मूल्य की अपने हिसाब से गणना करती हैं और किसान एवं उनके संगठन अपने हिसाब से।
झगड़ा यह है कि फसल का लागत मूल्य किसे माना जाए। आयोग के हिसाब से लागत मूल्य के तीन हिस्से हैं पहला वह जो बाहरी लागत है यानी खाद, बीज, सिंचाई, बिजली आदि, दूसरे हिस्से में इन बाहरी खर्चों के अलावा मानव श्रम के मूल्य को भी जोड़ा गया है जबकि तीसरा हिस्सा कहता है कि इसमें किसान की जमीन के आनुपातिक मूल्य या किराये को भी जोड़ा जाना चाहिए।
आमतौर पर सरकारें बाहरी लागत मूल्य को ही आधार बनाने के पक्ष में रही हैं और उसी हिसाब से किसानों को दिए जाने वाले समर्थन मूल्य का निर्धारण करती रही हैं। लेकिन अब किसान चाहते हैं कि उन्हें स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप लागत मूल्य की गणना करते हुए फसल की कीमत दिलाई जानी चाहिए। पिछले 12 सालों से इसी बात को लेकर किसान आंदोलन हो रहे हैं।
अब जब नीति आयोग के उपाध्यक्ष कहते हैं कि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें अव्यावहारिक हैं तो सवाल उठता है कि फिर आयोग बनाया ही क्यों गया था और उसकी सिफारिशों को उसी समय खारिज क्यों नहीं कर दिया गया। 2006 से लेकर 2013 तक कांग्रेस नेतृत्व वाली और फिर 2014 से लेकर अब तक भाजपा के नेतृत्व वाली सरकारें किसानों से खेल क्यों खेलती रहीं।
राजीव कुमार जब यह कहते हैं कि ‘’जमीन के किराए की बात करें तो इसमें देश के अलग-अलग इलाकों में काफी अंतर है‘’ तो सवाल उठता है कि जब वोट मांगने की बात आती है तो यह अंतर नजर नहीं आता लेकिन जब कोई राहत या सहूलियत देने की बात होती है तो अंतर दिखाई देने लगता है।
चुनावों के वक्त फसल के उचित दाम दिलाने के वायदे होते हैं लेकिन बाद में किसान आंदोलन राजनीतिक करार दे दिए जाते हैं। इसका संकेत उस समय मिलता है जब डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन के रिसर्च फैलो शिवानंद द्विवेदी सवाल उठाते हैं कि ‘’मध्य प्रदेश के किसान सरकार के खिलाफ आन्दोलन कर रहे थे, वहां भाजपा की सरकार है। वहीं तामिलनाडु के किसान आन्दोलन करने दिल्ली आए क्योंकि केंद्र में भाजपा की सरकार है। आश्चर्य है सारे आन्दोलन भाजपा के खिलाफ ही हैं!’’
कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा ठीक ही कहते हैं कि “सरकारों की नीति खाद्य महंगाई कम रखने की है और इसके लिए खाद्य मूल्य कम रखना होगा, इसका मतलब है कि पूरा ख़मियाज़ा किसान को ही भुगतना है। सरकार की मंशा है कि किसान को खेती से ही बाहर कर दिया जाए।”
लेकिन क्या किसान को खेती से बाहर करके देश का कोई भला होने वाला है?