अरुण कुमार त्रिपाठी
आज राष्ट्रवाद का बड़ा जोर है। यह सिद्ध करने की होड़ मची है कि भारत हजारों साल से एक राष्ट्र रहा है। विशेषकर उनमें जो राष्ट्रीय आंदोलन में किनारे खड़े थे। जिनके भीतर राष्ट्रीय प्रतीकों का नाम लेते ही आदर और गर्व की भावना जोर से नहीं उमड़ती उनकी राष्ट्रीयता पर संदेह किया जा रहा है। उन्हें तुरंत देशद्रोही कहने और सिद्ध करने का प्रयास चल रहा है।
ऐसे लोगों की उन भावनाओं को पराजित करने की शिक्षा दी जा रही है जो राष्ट्रीय प्रतीकों से अलग किन्हीं और चिह्नों के लिए आदर की भावना रखते हैं। इसीलिए यह सिद्धांत निकाला जा रहा है कि भारत आने वाली जिन जातियों और धर्म के अनुयायियों ने अपने को हिंदू धर्म और सभ्यता में मिला लिया उन्हें तो एक राष्ट्र मान लिया जाना चाहिए लेकिन जिन्होंने अपने को नहीं मिलाया है उन्हें पहले पराजित करके मिलाया जाना चाहिए तब एक राष्ट्र माना जाना चाहिए।
ऐसे में यह सवाल उठता है कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की राष्ट्र के बारे में क्या सोच थी और वे किस तरह से राष्ट्र के लिए लड़ रहे थे। निश्चित तौर पर गांधी यह तो मानते थे कि भारत लंबे समय से एक राष्ट्र रहा है और उसे एक करने में रेलवे से ज्यादा यहां के निवासियों का योगदान रहा है। लेकिन वे यह नहीं मानते थे कि किसी का धर्म अलग होने से उसका राष्ट्र अलग हो जाएगा। वे यह भी नहीं मानते थे कि किसी की देशभक्ति सिद्ध करने के लिए उस पर राष्ट्रीय प्रतीकों को थोपा जाना चाहिए।
गांधी हिंदुस्तान के स्वराज के लिए इसलिए लड़ रहे थे ताकि वह आजाद होने के बाद दुनिया की बेहतर सेवा कर सके और जरूरत पड़ने पर उस पर अपनी कुर्बानी दे सके। वे मानते थे कि अगर भारत हिंसा के बिना आजाद हो गया तो उसे किसी से युद्ध की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। इसीलिए वे हिंदुस्तान जैसे राष्ट्र के स्वराज की लड़ाई अहिंसक तरीके से लड़ रहे थे। गांधी के विचारों में राष्ट्रीयता है लेकिन उसे आज के संदर्भों में प्रचलित राष्ट्रवाद से ज्यादा देशप्रेम कहना ठीक होगा। उनके इस देशप्रेम में अंतरराष्ट्रीयता है न कि राष्ट्रीय संकीर्णता।
गांधी भारत के स्वाधीनता संग्राम के उद्देश्य और उसके साधनों के बारे में देश से विदेश तक निरंतर व्याख्या करते रहते थे। वे कहते थे, ‘’मैं अपने देश की स्वतंत्रता इसलिए चाहता हूं ताकि दूसरे देश मेरे देश से कुछ सीख सकें और मेरे देश के संसाधनों का उपयोग मानव जाति के हित में किया जा सके। …राष्ट्रीयता के प्रति मेरी धारणा यह है कि मेरा देश स्वतंत्र हो ताकि आवश्यकता पड़े तो वह मानव जाति की रक्षा के लिए स्वयं को होम कर सके। …हमारी राष्ट्रीयता किसी और देश के संकट का कारण नहीं बन सकती क्योंकि हम न किसी का शोषण करेंगे और न ही अपना शोषण करने देंगे।’’
गांधी मूलतः तो अंतरराष्ट्रीयतावादी हैं, मानवतावादी हैं लेकिन वे भारत की आजादी की लड़ाई लड़ रहे हैं इसलिए अंतरराष्ट्रीयतावाद की निर्गुणता के आगे राष्ट्रवाद के सगुण रूप को स्वीकार किए बिना रह नहीं सकते। गांधी कहते हैं, “ जो व्यक्ति राष्ट्रवादी नहीं है वह अंतरराष्ट्रीयतावादी हो नहीं सकता। अंतरराष्ट्रीयतावाद तभी संभव है जब राष्ट्रवाद अस्तित्व में आ जाए। …राष्ट्रवाद बुरी चीज नहीं है, बुरी है संकुचित वृत्ति, स्वार्थपरता और एकांतिकता जो आधुनिक राष्ट्रों के विनाश के लिए उत्तरदायी है। …चूंकि ईश्वर ने मेरा भाग्य भारत के लोगों के साथ बांध दिया है इसलिए अगर मैं उसकी सेवा न करता तो अपने सिरजनहार के साथ विश्वासघात करने का दोषी होता। यदि मैं भारतवासियों की सेवा न कर सका तो मैं मानवता की सेवा करने के योग्य भी नहीं बन पाऊंगा।’’
गांधी का राष्ट्रवाद इसलिए अनोखा है क्योंकि वह अपने को स्वतंत्र करने के प्रयास में अहिंसा और सत्याग्रह के जिन हथियारों का प्रयोग करता है वैसा उससे पहले इतिहास में हुआ ही नहीं था। इसीलिए भारत में भी उनकी आलोचना करने वाले कम नहीं थे और दुनिया में भी उनका मजाक उड़ाने वाले थे। लेकिन उन्होंने दुनिया के सामने अपनी बात दमदारी से रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ऐसा ही एक वाकया तक घटित होता है जब वे लंदन से रेडियो के माध्यम से अमेरिकी जनता को संबोधित कर रहे थे।
वे अपने स्वाधीनता संग्राम के अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहते हैं, ‘’इस संघर्ष की ओर दुनिया का ध्यान जाने का कारण यह नहीं है कि हम भारतीय अपनी आजादी के लिए लड़ रहे हैं। बल्कि हम जिन उपायों को अपना रहे हैं वे इतिहास में दर्ज अन्य किन्हीं लोगों द्वारा कभी अपनाए नहीं गए।…वे पूर्णतया केवल सत्य और अहिंसा हैं।…आज तक राष्ट्र पाशविक तरीकों से लड़ते आए हैं। वे उनका प्रतिशोध करते आए हैं जिन्हें वे अपना दुश्मन समझते हैं। महान राष्ट्रों द्वारा अपनाए गए राष्ट्रगानों को देखने पर लगता है कि उनमें तथाकथित शत्रुओं को शापित किया गया है। वे विनाश की शपथ लेते हैं और शत्रु के विनाश के लिए ईश्वर का नाम लेने तथा दैवीय सहायता मांगने के लिए उनमें कोई झिझक नहीं है। हमने भारत में इस प्रक्रिया को पलट दिया है।‘’
लेकिन धर्म के आधार पर राष्ट्र की व्याख्या करने वालों को गांधी `हिंद स्वराज’ में एकदम स्पष्ट और तार्किक उत्तर देते हैं। जब उनका पाठक पूछता है कि क्या मुसलमानों के आने से हमारा एक राष्ट्र रहा या मिटा? तब उनका उत्तर बहुत सुंदर और समावेशी है।
वे कहते हैं, ‘’हिंदुस्तान में चाहे जिस धर्म के आदमी रह सकते हैं, उससे वह एक राष्ट्र मिटने वाला नहीं है। जो नए लोग उसमें दाखिल होते हैं वे उसकी प्रजा को तोड़ नहीं सकते, वे उसकी प्रजा में घुलमिल जाते हैं। ऐसा हो तभी कोई मुल्क एक राष्ट्र माना जाएगा। …हिंदुस्तान ऐसा था और आज भी है। यों तो जितने आदमी हैं उतने धर्म ऐसा मान सकते हैं। एक राष्ट्र होकर रहने वाले लोग एक दूसरे के धर्म में दखल नहीं देते। अगर देते हैं तो समझना चाहिए कि वे एक राष्ट्र होने के लायक नहीं हैं। अगर हिंदू मानें कि सारा हिंदुस्तान हिंदुओं से भरा होना चाहिए तो यह निरा सपना है। मुसलमान ऐसा मानें कि उसमें मुसलमान ही रहें तो उसे भी सपना समझना चाहिए। फिर भी हिंदू, मुसलमान, पारसी ईसाई जो इस देश को अपना वतन मान चुके हैं वे एक देशी हैं, एक मुल्की हैं, वे देशी भाई हैं और उन्हें एक दूसरे के स्वार्थ के लिए एक होकर रहना पड़ेगा। दुनिया के किसी देश में एक राष्ट्र का अर्थ एक धर्म नहीं किया गया है और हिंदुस्तान में तो ऐसा था ही नहीं।’’
हालांकि 1909 में लिखी गई गांधी की इस पुस्तक को 110 वर्ष बीत चुके हैं और गांधी की भी 151 वीं जयंती हम मना रहे हैं। इस बीच भारत का धर्म के आधार पर दो हिस्सों में विभाजन हो चुका है। हालांकि धर्म के आधार पर एक देश बना पाकिस्तान भी एक नहीं रह पाया। पूर्वी पाकिस्तान अलग होकर बांग्लादेश बन गया क्योंकि वहां भाषा का सवाल धर्म से बड़ा हो गया। पाकिस्तान के विचार को चुनौती देते हुए भारत ने एक बहुधर्मी मुल्क की राह पकड़ी लेकिन उसका न तो पाकिस्तान से तनाव कम हो पाया न ही उसका आंतरिक तनाव घटा। आज दोनों देशों में तो खराब रिश्ते हैं ही और भारत के भीतर भी धर्म के आधार पर हिंदू और मुस्लिम समाज के रिश्तों में कम खटास नहीं है।
गांधी की संवाद शैली में ईश्वर बार बार आते हैं और उनकी प्रार्थना सभाओं में सभी धर्मों के अच्छे संदेश शामिल होते हैं इससे लग सकता है कि वे धर्म को राजनीति में मिलाकर घालमेल कर रहे हैं। लेकिन वे राजनीति और धर्म को अलग रखने और भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र राज्य बनाने की ही सलाह देते हैं।
दरअसल वे धर्म के नीतिगत तत्वों को राजनीति में शामिल करते हैं और धर्म के संगठित स्वरूप और कर्मकांड को अलग रखते हैं। जबकि राष्ट्रवाद की संकुचित राजनीति को धर्म के बाह्रय रूप और संगठित रूप से ज्यादा वास्ता रहता है। इसीलिए गांधी जून 1947 में कहते हैं, ‘’धर्म राष्ट्रीयता की कसौटी नहीं है बल्कि मनुष्य और ईश्वर के बीच का निजी मामला है। दुनिया के किसी हिस्से में एक धर्म और एक राष्ट्र पर्यायवाची नहीं है और भारत में भी ऐसा नहीं होगा।’’
गांधी अगर धर्म के प्रतीकों को राजनीति से अलग रखने की बात करते हैं तो राष्ट्रीयता के प्रतीकों को भी किसी पर थोपने से आगाह करते हैं। वे विद्यार्थियों से कहते हैं , ‘’वंदे मातरम गाने और राष्ट्रीय झंडा फहराने के मामले में किसी पर जबरदस्ती न करें। राष्ट्रीय झंडे के बिल्ले वे खुद अपने बदन पर चाहें लगाएं लेकिन दूसरों को उसके लिए मजबूर न करें।’’
ऐसा अहिंसक और समावेशी राष्ट्रवाद या देशप्रेम ही भारत को बचा सकता है और पाकिस्तान के साथ बेहतर रिश्ते कर सकता है। इसलिए गांधी के राष्ट्रवाद का गंभीर अध्ययन भारत के लोगों को ही नहीं पाकिस्तान के लोगों को भी करना चाहिए।