पहले इस ओढी हुई गुलामी को तो फेंकिए!

जयराम शुक्ल

एक मित्र ने सवाल उठाया- जब फोर्ब्स और ट्रान्सपेरेंसी इन्टरनेशनल आपको दुनिया भर में भ्रष्टतम बताते हैं तो आपको बुरा लगता है लेकिन ऐसी ही एजेन्सियां जब उपलब्धियों का बखान करती हैं तो आप न सिर्फ मुदित होते हैं, सरकारी खर्चे से विज्ञापन छपवाते हैं बल्कि उन्हीं का नाम लेकर सभाओं में ढोल मजीरे के साथ गाते बजाते हैं।

मित्र का सवाल सोचनीय है। पर मैं मानता हूँ कि प्रशंसाएं भी प्रायोजित होती हैं जो अपने में गहरे कुटिल अर्थ छुपाए रहती हैं। डिप्लोमेसी में मुक्त कंठ की प्रशंसा गधे के सींग की भाँति दुर्लभ होती हैं। सच यही है यदि स्थितियों का विश्लेषण करके देखा जाए। याद करिए, पचासी और पंचानवे के दशक में जब हमारी अर्थव्यवस्था लड़खडा रही थी उसी दौर में यूरोप अमेरिका में होने वाली सौंदर्य प्रतियोगिताओं में भारत की सुंदरियां धमाल मचा रहीं थी। विजेता के क्राउन पहनकर इठला रहीं थी।

मुझे वो वाकया याद है जब बेंगलुरू में अमिताभ बच्चन विश्वसुन्दरी प्रतियोगिता की मेजबानी कर रहे थे। उन्हीं दिनों उड़ीसा के कालाहांडी में भूख से मरने की खबरें आ रही थीं। मैंने…बेंगलुरु और कालाहांडी.. शीर्षक से देशबन्धु में एक अग्रलेख लिखा था और देश की दो तस्वीरें सामने रखी थीं। एक बेंगलुरु में स्विमसूट पहने इठलाती मचलती सुंदरियां तो दूसरे, भूखे कालाहांडी की वो तरुणियां जो जवान होने से पहले  ही बूढी हो गईं..।

दरअसल उन दिनों आर्थिक उदारीकरण की बयार शुरू ही हुई थी। मल्टीनेशनल्स भारत में सौंदर्य प्रसाधन का कारोबार जमाना चाहते थे। जाहिर है उन्हें भारतीय युवतियां ही ब्रैन्ड एम्बेसडर के लिए चाहिए थीं.. इसलिए आपने देखा कि एक के बाद एक भारतीय युवतियां मिस वर्ल्ड, मिस यूनिवर्स हुईं। इधर इन दिनों ऐसी खबरें सुनने को क्यों नहीं मिलतीं। क्या अब भारतीय युवतियां सुंदर नहीं रहीं। हैं… लेकिन अब उनकी जरूरत नहीं क्योंकि अरबों खरबों रुपये का सौदर्य बाजार जम चुका है और वे दूसरे ठिकाने की ओर चल पड़े हैं।

पिछले साल वेनेजुएला की लड़की मिस वर्ल्ड हुई। जब तक वहां ह्यूगोसावेज नेता थे अमेरिका यूरोप को फटकने नहीं दिया। उनकी मौत के बाद कमजोर व बिखरे वेनेज़ुएला में उन्हें जाजम बिछाने का अवसर मिल गया। आर्थिक संकट से जूझ रहे वेनेजुएला में अब सुंदरियां तैय्यार हो रही हैं। अमेरिका और यूरोपीय मठाधीशों को सिर्फ़ युद्ध और व्यापार दिखता है बाकी रिश्ते नाते फर्जी हैं। वे हमें फूल्स पैराडाइज में विचरण करने के लिए एशियन लायन, तेजछलांग वाला देश,एशिया की महाशक्ति जैसे तमगे देकर बरगलाने का काम करते हैं। उन्हें खरबों डालर की युद्धक सामग्री बेचनी है।

घर घर तक पिज्जा, मैकडॉनल्ड्स, पेप्सी पहुंचाना है। उन्हें हमें अच्छे से आर्थिक गुलाम बनाना है। किसानों के देसी बीज छीन लिए खेती गुलाम हो गई। अब इनके इस मिशन का मोदी या और कोई तोपची विरोध करके बताए तो दूसरे दिन ही टाईम मैग्जीन के कवर पेज में विलेन बनाकर न पेश कर दें तो कहिएगा।

दरअसल हम गुलाम मानसिकता के चापलूसी पसंद लोग हैं। मुगलों ने बहादुर राजपूतों को ‘सिंह’ की उपाधि दे दी। कहा आप लोग तो सीधे सिंहावतार हो, चलो हमारे सेनापति बन जाओ। अकबर से लेकर औरंगजेब तक सिंहों की तलवारों ने सिंहों का ही खून पिया। अंग्रजों ने रायबहादुर, दीवान बहादुर, सर, लार्ड की उपाधियां बाँटकर उन्हीं की पीठ पर अपना सिंहासन रखके देश को गुलाम बनाया और ठप्पे से राज किया। धन धरम दोनों लिया।

भौतिक रूप से वे हमें भले ही आजाद कर गए हों पर मानसिक रूप से स्थाई गुलाम बना दिया। राजनीति, साहित्य,विग्यान, कला यहां तक की धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में हमने उन्हीं को श्रेष्ठ माना जिसे उन्होंने सर्टीफाई किया। क्या जो विलायत में नहीं पढ़े वे योग्य नहीं थे..? थे पर हमारी गुलाम मानसिकता ने उन्हें प्रतिष्ठा नहीं दी।

आज गांव मोहल्लों के स्कूलों को ही देखिए.. सेंट मेरी, जीसस, क्राइस्ट तो है ही हारवर्ड, कैम्ब्रिज, स्टैनफोर्ड पता नहीं कैसे कैसे अंग्रेजी नामों से दुकानें खुली हैं। आपको मालूम होना चाहिए कि पंचानवे प्रतिशत ऐसे स्कूलों के संचालक मिशनरी नहीं देसी लोग हैं, हमारे अपने बीच के। ये ऐसा क्यों करते हैं, क्योंकि अंग्रेजी श्रेष्ठता अभी भी हमारे दिमाग में बैठी है। बैठी क्या घर बना चुकी है। हमारी श्रेष्ठता का पैमाना अंग्रेजी है। हर क्षेत्र में। यहां तक कि आचरण में भी।

आज तक हमारी अपनी न्याय की भाषा नहीं। अरुंधती की ‘गाड आफ स्माल थिंग’ या अरविंद अडिगा की ‘ह्वाइट टाईगर’ जैसी सड़क छाप रचनाओं को बुकर मिल गया तो हमने इसे महान कृति मान लिया। स्लमडॉग को आस्कर मिला तो मुदित हो गए। ऐसा साहित्य व सिनेमा जो भारत की भिखमंगी तस्वीर दिखाए वो आस्कर, बुकर पुरस्कार योग्य हैं। क्यों? समझ जाइए। अब तो नोबेल पुरस्कार भी इसी तर्ज पर बँटने लगे हैं।

अंग्रेजी का हर पुरजा हमारे लिए ब्रह्म वाक्य से बड़ा? हर विदेशी सर्वे और रेटिंग हमारी हैसियत का आखिरी पैमाना? हम बुरे हैं या अच्छे वे तय करेंगे। मुझे उनकी निंदा से बेइंतहा ऐतराज है और उनकी प्रशंसा से भी घोर आपत्ति। हमारा अपना पैमाना होना चाहिए। पर क्या यह ओढ़ी हुई गुलामी हम इतनी जल्दी फेक सकेंगे?

भारतीय ग्यान दर्शन और परंपरा के विद्वान अध्येता कपिल तिवारी हमारी मानसिकता को लेकर फ्रांस की क्रांति का एक किस्सा सुनाया करते हैं… क्रांतिकारियों ने फ्रांस की जेलें तोड़ दी। कैदियों को आजाद कर दिया। कहा आज से मुक्त हुए। कुछ दिनों बाद देखा,कई कैदी उन उजड़ी हुई बैरकों में फिर पहुंच गए। मुक्तिदाता क्रांतिकारियों ने पूछा तुम लोग क्यों आ गए.. कैदियों ने जवाब दिया दरअसल अब आदत ही ऐसी हो गई है कि बिना आड़ाबेड़ी, हथकड़ी पहने नींद ही नहीं आती..। खुद पहनी हथकड़ियों को निकाल फेंकिये, इस ओढी हुई गुलामी से मुक्त होइए, अपने मुक्तिदाता खुद बनिए..याद रखिये आपको उबारने कोई मसीहा नहीं आने वाला।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here