सत्ता का उसूल, डिवाइड एंड रूल

राकेश अचल

देश में किसान आंदोलन बीसवें दिन में प्रवेश कर चुका है लेकिन राजहठ टूटने का नाम नहीं ले रहा है। न किसान अपनी मांगों से पीछे हट रहे हैं और न सरकार झुकने को तैयार है। सरकार ने हारकर अंग्रेजों की तरह किसानों में फूट डालकर आंदोलन को जर्जर करने की अपावन कोशिश शुरू कर दी है। सरकार ने रातों-रात विवादास्पाद किसान कानूनों के खिलाफ ‘कुकुरमुत्ता’ प्रजाति के किसान संगठनों को समर्थन के लिए दिल्ली बुलाकर उन्हें कृषि मंत्री से मिलवाया है।

कृषि कानूनों के खिलाफ खड़े किसानों से बातचीत का सिलसिला बंद करने वाली सरकार ‘डिवाइड एंड रूल’ के जरिये क्या हासिल कर लेगी भगवान ही जाने। यदि कानूनों का समर्थन करने वाले किसान आंदोलनकारी किसानों से ज्यादा हैं तो उन्हें भी दिल्ली के बाहर सरकार के समर्थन में डेरा डालने का पुरुषार्थ दिखाना चाहिए। दिल्ली में रात का पारा दस डिग्री पर आ गया है। सर्दी से अब तक 19 किसान अकाल मौत का शिकार हो चुके हैं लेकिन सरकार का दिल नहीं पसीज रहा। सरकार शायद खुश है कि जो काम पुलिस की गोली को करना था वो ही काम सर्दी कर रही है।

केंद्र सरकार का किसान आंदोलन से निबटने का रवैया शुरू से हास्यास्पद रहा है। पहले सरकार ने किसान संगठनों से बातचीय के दौर पर दौर चलाये और फिर अचानक मौन साधकर बैठ गयी। इस सरकार में ये ही पता नहीं चल रहा की आखिर निर्णायक बातचीत का अधिकार किसके पास है? पहले कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह और रेल मंत्री साथ-साथ बातचीत करते रहे फिर अचानक गृहमंत्री अमित शाह ने बातचीत को हथिया लिया। लेकिन किसी को कामयाबी नहीं मिली। अब देश के प्रधानमंत्री कच्छ जाकर वहां के किसानों से किसान कानूनों पर चर्चा करेंगे। दिल्ली के बाहर आंदोलनरत किसानों से चर्चा करने में प्रधानमंत्री जी को शायद लज्जा आती है।

आज का किसान आंदोलन काले अंग्रेजों के खिलाफ है,  पहले सहजानंद सरस्वती की अगुवाई में ऐसे आंदोलन गोरे अंग्रेजों के खिलाफ हुए थे। गोरे अंग्रेजों के खिलाफ हुए आंदोलनों में तो किसान एकबारगी जीते भी लेकिन काले अंग्रेजों से जीतने में उन्हें रोज शहादत देना पड़ रही है। अब तक जितने किसान मारे गए वे खामोश मौत मर गए, इससे बड़ा गांधीवादी आंदोलन और क्या हो सकता है। ऐसे आंदोलन को बदनाम करने में लगी सरकार को निराशा ही हाथ लग रही है। सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी का नजरिया किसान आंदोलन को लेकर एक जैसा है।

मध्यप्रदेश में जहाँ तीन साल पहले पुलिस की गोली से पांच किसान मारे गए थे वहां के कृषि मंत्री कमल पटेल कहते हैं की दिल्ली में आंदोलन कर रहे किसान संगठन देशद्रोही है। वे भूल जाते हैं कि आंदोलनरत किसान संगठनों में वे संगठन भी हैं जो नागपुर का पानी पीते हैं और नमक खाते हैं। दरअसल देशद्रोही तो वे संगठन हैं जो सरकार के इशारे पर आंदोलन के खिलाफ खड़े होने का नाटक कर रहे हैं।

मुझे तो किसान आंदोलन के चलते उन जन प्रतिनिधियों के मौन पर हैरानी है जो किसानों के वोट से चुनकर संसद और विधानसभाओं तक पहुंचे हैं। यदि उनमें तनिक भी नैतिकता होती तो वे या तो लोकसभा अध्यक्ष को घेरकर इस मामले पर तत्काल चर्चा के लिए संसद का विशेष अधिवेशन बुलाने के लिए जोर डालते या फिर अपने पदों से इस्तीफे देकर किसान आंदोलन के समर्थन में खड़े होते। जन प्रतिनिधियों का मौन अब कायरता का रूप लेता जा रहा है। ऐसा लगता है की कोई जनप्रतिनिधि सत्ता का सुख नहीं त्यागना चाहता।

जाहिर है कि किसान आंदोलन आज नहीं तो कल समाप्त होगा लेकिन ये राजहठ का शिकार होकर समाप्त होगा या अपनी मांगे पूरी होने के बाद ये कहना कठिन है। क्योंकि राजहठ झुकने को राजी नहीं है और किसान पीछे लौटने के लिए राजी नहीं हैं। किसान आखिर कब तक गांधीवादी तरीके से आंदोलन करते रहेंगे। सरकार किसानों के सब्र का इम्तिहान लगातार कठोर होकर क्यों लेती जा रही है? क्या सचमुच आंदोलनरत किसान भारत के नहीं हैं,  क्या सचमुच उन्हें चीन या पाकिस्तान ने दिल्ली भेजा है? अगर नहीं तो सरकार को राजहठ का त्याग कर कच्छ के बजाय दिल्ली में किसानों से बातचीत करना चाहिए। क्या आपको हंसी नहीं आती कि हमारा प्रधानमंत्री देहलीज पर आये किसानों से बातचीत का साहस नहीं जुटा पाता और उनके सवालों का जवाब देने के लिए कभी काशी तो कभी कच्छ का सहारा लेता है?

दुनिया जानती है कि सत्ता की अकूत ताकत भी जनता की ताकत से लोहा नहीं ले सकती। भाजपा की अगुवाई वाली सरकार को भी इस हकीकत का सामना करना चाहिए। दिल्ली में हर रोज शहीद होने वाले किसानों की आत्मा सरकार को कभी माफ करने वाली नहीं है। आंदोलनरत किसानों के पीछे उनके परिवार हैं,  मवेशी हैं, खेत-खलिहान हैं और असंख्य वे उपभोक्ता हैं जिन्हें सरकार इन काले क़ानून के जरिये कारपोरेट की झोली में डाल देना चाहती है। सरकार को अभी ये कल्पना भी नहीं है कि यदि यही उपभोक्ता किसानों के साथ खड़ा हो गया तो देश में क्या हालात बन जायेंगे।

केंद्र सरकार को ये भ्रम है कि इस किसान आंदोलन की जितनी उपेक्षा की जाएगी ये आंदोलन उतना कमजोर हो जाएगा, लेकिन हमारा मानना ये है कि सरकार इस किसान आंदोलन की जितनी उपेक्षा करेगी इसका जन समर्थन उतना ज्यादा बढ़ता जाएगा। और स्थिति ये आएगी कि या तो सरकार को किसानों की बात मानना पड़ेगी या फिर अंग्रेजी सत्ता की तरह बर्बर होकर किसानों पर लाठी-गोली चलाना पड़ेगी।  यदि ऐसा हुआ तो वह न सिर्फ दुर्भाग्यपूर्ण होगा बल्कि आत्मघाती भी होगा।

हमें अब भी यकीन है की जो सरकार जम्मू-कश्मीर के तीन टुकड़े कर सकती है, राम मंदिर का विवाद अदालत के जरिये सुलझा सकती है, नए संसद भवन का कुरूप शिलान्यास कर सकती है, वो सरकार किसान आंदोलन का समाधान भी कर सकती है। मुमकिन है कि मेरा आशावाद गलत भी हो। क्‍योंकि ‘जानि न जाये तखत की माया’

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