कुछ ‘अब्‍दुल्‍ला‘ बिना शादी के ही दीवाने हो जाते हैं

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कई बार मैं सोचता हूं कि यह अब्‍दुल्‍ला नाम का जीव, जिसके बारे में मशहूर है कि वह बेगानी शादी में दीवाना हो जाता है, उसका खुद की शादी में क्‍या हाल हुआ होगा। हालांकि अभी तक ऐसे किसी रिसर्च की जानकारी मुझे नहीं मिल सकी है, जो यह बताए कि उस अब्‍दुल्‍ला ने, जिसके दीवाना होने का जिक्र दीवानावार किया जाता है, कभी शादी की भी या नहीं।

जमाने भर के ऐरे गैरे कामों में लगे रहने वाले खबरखोजियों को कुछ समय इस इन्‍वेस्टिगेटिव जर्नलिज्‍म पर भी लगाना चाहिए कि उस अब्‍दुल्‍ला का आखिर हुआ क्‍या? यदि ओरिजनल अब्‍दुल्‍ला मर खप गया है, तो उसकी बाद की पीढि़यां क्‍या कर रही हैं?  क्‍या वे भी बेगानी शादी में दीवाना होने के धंधे में ही हैं या उन्‍होंने किल्‍लत के दिनों में प्‍याज टमाटर बेचने जैसा कोई लाभकारी धंधा अपना लिया है। कहने का आशय यह है कि अब्‍दुल्‍ला के इतिहास की खोजबीन में, खबरों की बहुत संभावनाएं हैं।

खैर… तो उसी बरसों या पीढि़यों पुराने अब्‍दुल्‍ला की तरह कई लोग, कई जगहों पर, कई वजहों से दीवाने होते रहते हैं। जरूरी नहीं कि दीवाना होने के लिए, किसी बेगाने की शादी अरेंज ही की जाए। जैसे- मंत्रिमंडल के विस्‍तार का ही मामला ले लीजिए। जब भी इस तरह की अफवाहें चलती हैं, राजनीति के कई अब्‍दुल्‍ला घर बैठे ही दीवाने हो जाते हैं।

मध्‍यप्रदेश में इन दिनों ऐसे कई अब्‍दुल्‍ला घूम रहे हैं। अभी बच्‍चे का नामकरण तक नहीं हुआ है और उन्‍होंने उसकी शादी में दीवाना होने की गरज से सूट और मोदी टाइप बंडियां सिलवा ली हैं। पता नहीं कब वो शुभ सूचना आ जाए कि आपको फलां तारीख को इतने बजे राज भवन पहुंचना है।

अच्‍छा, ऐसा नहीं है कि मंत्रिमंडल के विस्‍तार में टेंशन सिर्फ इन ‘आशा कार्यकर्ताओं’ को ही होता है। कई बार उनसे ज्‍यादा टेंशन में तो वो बापड़ा रहता है, जिसे विस्‍तार करना होता है। वैसे भी कुनबे का विस्‍तार बहुत मेहनत का काम है भाई! किसको लेना है, इससे ज्‍यादा चिंता इस बात की रहती है कि छोड़ें किसको? और उससे भी ज्‍यादा चिंता इसकी होती है कि, जिनको छोड़ देंगे उनके बारे में यदि किसी ने या खुद उन्‍होंने ही पूछ लिया कि, हमारा नंबर क्‍यों नहीं आया तो उन्‍हें क्‍या जवाब देंगे? या फिर विस्‍तार के बाद रूठ कर घर बैठने की धमकी देने वालों को कैसे मनाएंगे?

सबसे बड़ी मुश्किल तो इस विस्‍तार के लिए आलाकमान की इजाजत लेने में आती है। जहां आलाकमान नहीं होती सिर्फ कमान ही कमान होती है, वहां पार्टी सुप्रीमो (ऐसी पार्टियों में अध्‍यक्ष को इसी संबो‍धन से पुकारने का चलन है) अपनी मर्जी से मंत्रिमंडल का जाला बुनते हैं। और जिन पार्टियों में आलाकमान है, वहां सारे काम उसीके इशारे पर होते हैं। उसकी मर्जी के बिना पत्‍ता तक नहीं हिलता।

हालांकि मुझे ऐसे अवसरों पर साक्षात उपस्थित रहने का कोई अवसर तो नहीं मिला, लेकिन मैं जो कल्‍पना कर पाता हूं, उसके हिसाब से शायद दृश्‍य ऐसा होता होगा…

मुख्‍यमंत्री अपने मंत्रिमंडल के विस्‍तार को लेकर आलाकमान के पास गए हैं। आलाकमान हमेशा की तरह अपने व्‍यस्‍त समय में से थोड़ा समय निकालकर मुख्‍यमंत्री से मिलता है।

‘’हां बताइए जी, क्‍या लाए हैं…’’

‘’इस बार तो सूची लाया हूं सर…’’

आलाकमान थोड़ा अनमने भाव से कहता है- ‘’अरे भई ठीक है, हम आपसे हर बार थोड़े ही कुछ न कुछ लेकर आने को कहते है… लाइए, काहे की सूची है…’’

‘’वो कैबिनेट रिशफल करना है…’’

आलाकमान अनजान बनने की कोशिश करते हुए ‘’अच्‍छा.. अरे  हां याद आया… पिछली बार भी आपने कहा था, लाइए दीजिए सूची…’’

मुख्‍यमंत्री जेब से सूची निकाल कर आगे बढ़ा देता है।

सूची देखते ही आलाकमान के मुंह का स्‍वाद कसैला हो जाता है। ‘’ये क्‍या जी सिर्फ तीन नामों की सूची? ये ईन मीन तीन नाम क्‍या सोचकर लाए हैं… आलाकमान खुश होगा? रखिए इस सूची को अपने पास सुरक्षित… अगली बार कम से कम तेरह नाम लेकर आइए…’’

मुख्‍यमंत्री चुपचाप वो सूची खीसे में डालकर लौट आता है। ऐसे कई बार मंत्रिमंडल विस्‍तार को लेकर चर्चा-मुलाकात के दौर चलते हैं और एक दिन फैसले की घड़ी आ ही जाती है। लेकिन  आलाकमान से जो मंजूरी आती है, तो पता चलता है कि उसमें न तो पहले वाले तीन नाम हैं और न बाद वाले 13… आलाकमान ने मुख्‍यमंत्री की सूची तीनतेरह कर कुछ और ही नाम सुझा दिए। मुख्‍यमंत्री मन मसोस कर रह जाता है। ज्‍यादा हुआ तो चिरौरी कर एकाध नाम अपना घुसवा लेता है।

वैसे मैंने देखा है कि मंत्री बन जाने के बाद भी ‘फजीता’ कम नहीं होता। मंत्री बन जाओ तो विभाग की चिंता करो, विभाग मिल जाए तो मंत्रालय में बैठने के लिए ठीक ठाक कमरे का जुगाड़ करो, ठीक ठाक न मिली तो नई गाड़ी की जुगत भिड़ाओ, पहले से विभाग में जमे बैठे सेक्रेट्री से पटरी नहीं बैठी तो उसे शंट करवाओ, फिर अपनी सेटिंग वाले सेकेट्री को बिठवाओ, वो हो गया तो फिर तलाश करो कि ‘संभावनाएं’ कहां कहां है…

कुल मिलाकर बहुत झंझट हैं इस ‘मंत्रिमंडल विस्‍तार’ में। पता नहीं फिर भी लोग क्‍यों दीवाने हो जाते हैं। शायद ‘अब्‍दुल्‍ला’ जो ठहरे…

गिरीश उपाध्‍याय

 

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