अजय बोकिल
यूं तो यह बात दक्षिण भारतीयों पर ‘हिंदी थोपने’ की पॉलिटिक्स का हिस्सा ही ज्यादा लगती है, लेकिन यह प्रसंग जिस तरह चेन ट्वीट्स में बदला, उसमें कुछ वाजिब सवाल भी छुपे हैं। मामला डीएमके सांसद व पूर्व केन्द्रीय मंत्री कनिमोझी द्वारा रविवार को किए एक ट्वीट से शुरू हुआ। कनिमोझी के मुताबिक चेन्नई एयरपोर्ट पर उन्होंने सीआईएसएफ के एक अधिकारी से कहा कि वह उनसे अंग्रेजी या तमिल में बात करें तो अधिकारी ने पलटकर सवाल किया कि क्या आप भारतीय हैं? कनिमोझी ने इसे अभद्रता मानकर इसकी शिकायत आला अफसरों से की। सीआईएसएफ ने तुरंत जांच के आदेश दिए और कहा कि भाषा के आधार पर उंगली उठाना नीति के खिलाफ है।
कनिमोझी के ट्वीट की अनुगूंज दक्षिण के अन्य नेताओं के ट्वीट्स में सुनाई दी। कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एवं जेडीएस नेता एच.डी. कुमारास्वामी ने तो यहां तक कहा कि हिंदी के कारण कई दक्षिण भारतीय नेताओं के मौके छीने गए। सांसद एवं पूर्व केन्द्रीय मंत्री पी. चिदम्बरम ने भी अपनी पीड़ा जाहिर करते हुए ट्वीट किया कि हिंदी न बोलने को लेकर वह कई सरकारी अधिकारियों और आम लोगों के भी तंज झेलते रहे हैं। उन्होंने इसे ‘भाषा का टेस्ट’ बताते हुए सवाल किया कि आगे क्या होगा? उधर बीजेपी ने कनिमोझी के आरोप को महज चुनावी स्टंट बताकर खारिज कर दिया है।
पहली नजर में देश के दक्षिण भारतीय और अहिंदी भाषी नेताओं की यह पीड़ा जायज लगती है। आखिर भाषा न जानने के कारण किसी को अपमानित नहीं किया जा सकता और न ही इस देश में किसी से कोई भाषा जबर्दस्ती बुलवाई जा सकती है। इस हिसाब से कनिमोझी के साथ सीआईएसएफ अधिकारी ने कथित तौर पर जो किया, वह गलत था। कनिमोझी की यह अपेक्षा भी गलत नहीं है कि चेन्नई एयरपोर्ट पर सम्बन्धित अधिकारी तमिल में बात करे तो ज्यादा बेहतर हो, क्योंकि वह स्थानीय भाषा है।
डीएमके नेता की बात से इत्तफाक रखते हुए कुमारस्वामी ने लिखा- ‘हिंदी पॉलिटिक्स’ के कारण ही स्वतंत्रता दिवस पर उनके पिता और संयुक्त मोर्चा सरकार के पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी. देवगौड़ा को हिंदी में भाषण देना पड़ा था। उत्तर प्रदेश और बिहार के किसानों के कारण वो इस पर भी राजी हो गए। कुमारस्वामी ने कहा कि ‘देश में हिंदी पॉलिटिक्स इस स्तर तक काम करती है।’ कहते हैं कि कन्नड़ लिपि में लिखे उस 40 पेजी हिंदी भाषण को पढ़ने की देवेगौड़ा ने 10 बार रिहर्सल की थी।
बेशक आज तक किसी भी प्रधानमंत्री ने लाल किले से किसी हिंदीतर भाषा में भाषण नहीं दिया। कारण हिंदी ही वो भाषा है, जिसे भारत के 70 फीसदी से ज्यादा लोग समझते हैं। वैसे भी लाल किले से दिया जाने वाला भाषण शुद्ध रूप से राजनीतिक होता है, जो प्रधानमंत्री की छवि बनाने का काम भी करता है।
वैसे कोई भाषा न जानने के कारण उपहास या अपमान सहन करने की घटनाएं केवल चेन्नई में या दक्षिण भारतीयों के साथ ही नहीं होतीं। कई बार हिंदी भाषियों को भी ऐसी असहज स्थिति का सामना गैर हिंदीभाषी राज्यों में करना पड़ता है। हालांकि यह गलत है। लेकिन कुमारस्वामी ने जो आरोप लगाया है, वह ज्यादा बड़ा है। उन्होंने कहा कि हिंदी न जानने के कारण दक्षिण भारतीय नेताओं से कई मौके छीने गए। जैसे कि के. कामराज पीएम नहीं बन पाए या फिर करुणानिधि को तमिलनाडु से बाहर स्वीकार नहीं किया गया, क्योंकि वो हिंदी नहीं जानते थे। या जानते भी थे, तो बोल नहीं पाते थे या बोलना नहीं चाहते थे।
इस आरोप में कुछ सचाई और कुछ हिंदी के प्रति दुराग्रह भी है। सचाई यह है कि दक्षिणी और खासकर धुर दक्षिणी राज्यों में लोगों को हिंदी बोलने का कोई काम नहीं पड़ता। हालांकि बीते तीन दशकों में स्थिति थोड़ी बदली है। रोजगार के कारणों से उत्तर से दक्षिण और दक्षिण से उत्तर में लोगों का आना-जाना बढ़ा है। इसी के साथ हिंदी भी टिफिन बॉक्स की तरह उत्तर भारतीयों के साथ में जाने लगी है।
कहते हैं कि तमिलनाडु में तो पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान पूर्व मुख्यलमंत्री स्व. जे. जयललिता ने उस इलाके में हिंदी में चुनावी भाषण दिया था (वो हिंदी जानती थीं) जहां उत्तर भारतीय बड़ी संख्या में रहते हैं। लेकिन देश की राजधानी दिल्ली में हिंदी को ताक पर रखकर अथवा उसके न जानने पर गर्वित होने वालों की राजनीतिक स्वीकार्यता इसलिए नहीं है, क्योंकि देश की बहुसंख्या जनता जो भाषा समझती है या समझ सकती है, वह सिर्फ और सिर्फ हिंदी है। और जिस राजनेता ने हिंदी (भले टूटी-फूटी हो) को गले लगाया, वह आगे बढ़ा है।
पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहराव इसका बढि़या उदाहरण हैं, जबकि वो तो तेलुगू भाषी थे और तेलंगाना के थे। खाली मातृ भाषा अथवा अंग्रेजी की बैसाखी के सहारे चलने वाले राजनेताओं को बुलंदी के एयरपोर्ट पर बाहर ही रुकना पड़ता है।
यह भी सुखद सचाई है कि आज संसद में 70 फीसदी से ज्यादा सांसद अपनी बात हिंदी में ही रखना पसंद करते हैं। खासकर गैर हिंदी प्रांतों जैसे पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, तेलंगाना, ओडिशा, बंगाल, कश्मीर आदि के ज्यादातर सांसद अब हिंदी में ही बोलना पसंद करते हैं। पूर्वोत्तर राज्यों के भी कई सांसद हिंदी में ही बात रखते हैं। पूर्व लोकसभा स्पीकर पीए संगमा की निश्छल हिंदी आज भी लोगों को याद है। यानी कि जिस भी गैर हिंदी भाषी ने हिंदी को अपनाया, उसे राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक दृष्टि से लाभ ही हुआ।
यहां सवाल यह कि ‘हिंदी थोपने’ का यह मुद्दा अभी ही क्यों उठा या उठाया गया? कारण साफ है। मोदी सरकार की नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में उठ रही त्रिभाषा फार्मूले की बात, जिसमें एक भाषा हिंदी भी शामिल है (हालांकि वह स्वैच्छिक ही है), तमिलनाडु जैसे राज्यों में वोटों की लामबंदी के लिए मुफीद हो सकता है। इसका कुछ फायदा कर्नाटक और आंध्र जैसे राज्यों में हो सकता है। क्योंकि जो नेता इस मुद्दे को हवा दे रहे हैं, वो सब विपक्ष में बैठे हैं। इन पार्टियों का परोक्ष निशाना वो भाजपा है, जिसे हिंदी का पाथेय साथ लेकर चलने वाली पार्टी माना जाता है।
पहले अटलजी और अब मोदी-शाह जैसे नेता हर जगह बेधड़क हिंदी में ही बात करते हैं, इसकी एक वजह उन्हें अच्छी अंग्रेजी न आना भी है, लेकिन वो इसकी परवाह नहीं करते। जब ये नेता हिंदी में ही बतियाते हैं तो दूसरों को भी हिंदी में ही बोलना पड़ता है। हालांकि हिंदी के इस बोलबाले से सर्वाधिक आहत दिल्ली का वो ‘लुटियंस क्लास’ है, जो अंग्रेजी में रची-पगी अपनी दुनिया को ही असली भारत समझता आया है।
एक बात और। और वो है भाषा सीखने की ललक। पी. चिदम्बरम जैसे लोग लगभग चार दशक से देश की राजधानी दिल्ली में रहते हैं, वो सुप्रीम कोर्ट में बतौर वकील प्रेक्टिस भी करते हैं। लेकिन इतनें सालों में भी वो ठीकठाक हिंदी नहीं सीख पाए हैं तो यह भी एक आश्चर्य है। जबकि यदा-कदा वो राजनीतिक कटाक्ष के लिए हिंदी मुहावरे या वाक्यांश जैसे ‘मैं हूं ना’ आदि का प्रयोग करते रहे हैं। उनके हिंदी न सीखने के पीछे राजनीतिक कारण हो सकते हैं, क्योंकि उन्हें तमिलनाडु में राजनीति करना है और तमिलनाडु में तो स्कूलों में भी एक विषय के तौर पर हिंदी नहीं पढ़ाई जाती। इसका खमियाजा उन तमिलों को भुगतना पड़ता है, जो तमिलनाडु के बाहर रोजगार के लिए जाना चाहते हैं।
दरसअल वहां ‘हिंदी विरोध’ में ‘ब्राह्मण विरोध’ भी लिपटा हुआ है। हालांकि यह अपने आप में विरोधाभासी है कि एक तरफ आप स्थानीय राजनीति के मद्देनजर हिंदी से परहेज करें और दूसरी तरफ दिल्ली में यह शिकायत भी करें कि हिंदी न जानने के कारण उन्हें वाजिब लाभ नहीं मिलते। दोनों बातें कैसे साथ चल सकती हैं? यह भी गजब है कि उन्हें हिंदी से तो खतरा लगता है, लेकिन अंग्रेजी से हो रहे उस सांस्कृतिक प्रदूषण से डर नहीं लगता, जो एक वैश्विक षड्यंत्र का हिस्सा है। अलबत्ता चिदम्बरम का यह आरोप सही है कि हिंदी भाषी दूसरों से तो हिंदी सीखने की अपेक्षा रखते हैं, लेकिन स्वयं (अंग्रेजी के अलावा) कोई भाषा सीखना नहीं चाहते।
बहरहाल इस अनावश्यक भाषा विवाद से परे जमीनी हकीकत यह है कि देश में हिंदी का लगातार विस्तार हो रहा है। वह समाज के प्रभु वर्ग में कुंडली मारे बैठी अंग्रेजी को भले न हिला पा रही हो, लेकिन अंडर ग्राउंड केबल की तरह विभिन्न क्षेत्रों में चुपचाप बिछती चली जा रही है। लिहाजा हिंदी विरोध से अब वैसा राजनीतिक मक्खन निकलना मुश्किल है, जैसा कि साठ के दशक में निकला था। दक्षिण की पार्टियों को 21 वीं सदी में विरोध के नए सियासी मुद्दे तलाशने चाहिए। वैसे भी हिंदी जानना ‘भाषा का टेस्ट’ नहीं, ‘टेस्ट की भाषा’ है।