देश पिछले कुछ दिनों से पकौड़े में उलझा हुआ है। पकौड़ा हमारे यहां ऐसी सर्वसुलभ डिश है जिसे जब चाहे बनाया और खाया जा सकता है। खासतौर से बारिश के दिनों में इसका महत्व थोड़ा बढ़ जाता है, क्योंकि उन दिनों में जरा सा मूड बना नहीं कि तत्काल पकौड़े की फरमाइश हो जाती है। इन दिनों टीवी पर एक विज्ञापन चल रहा है जिसमें बड़े मार्के की बात कही गई है कि हमारे यहां लोग भूख लगने पर नहीं मूड बनने पर खाते हैं। और पकौड़े का संबंध भी भूख से कम, मूड से ज्यादा है… और इस लिहाज से देश का मूड भी इन दिनों पकौड़ा हुआ जा रहा है।
देश में यह पकौड़ा पुराण, एक टीवी चैनल को दिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इंटरव्यू के बाद शुरू हुई है। पहले जान लें कि उस इंटरव्यू में हुआ क्या था… प्रधानमंत्री से पूछा गया कि आपने एक करोड़ रोजगार देने का वायदा किया था, लेकिन श्रम विभाग के आंकड़ों के हिसाब से साल में साढ़े चार, पांच लाख से ज्यादा लोगों को रोजगार नहीं मिल सका है।
प्रधानमंत्री ने इसका जवाब देते हुए अपनी सरकार द्वारा शुरू की गई मुद्रा योजना का हवाला देकर इंटरव्यू लेने वाले पत्रकार से पूछा कि ‘’यदि आपके चैनल के दफ्तर के बाहर कोई व्यक्ति पकौड़े की दुकान खोलता है और रोज शाम को वह दो सौ रुपए कमा कर घर ले जाता है तो आप इसे रोजगार मानेंगे या नहीं।‘’ प्रधानमंत्री ने आंकड़ों को लेकर बहस करने वालों को एक तरह से करेक्ट करते हुए कहा कि ‘’वह व्यक्ति रोज 200 रुपए कमाकर घर ले जा रहा है यह तो किसी रजिस्टर में दर्ज नहीं होगा।‘’
बिलकुल ठीक… मुझे लगता है कि इस ‘पकौड़ा चर्चा’ को यहीं से पकड़ कर बात करनी चाहिए। मेरे हिसाब से मूल रूप से प्रधानमंत्री का वक्तव्य कहीं गलत नहीं है। देश में कोई व्यक्ति चाहे चाय का ठेला लगाए या पकौड़े की दुकान, वह कोई कामधंधा तो कर रहा है ना। और चूंकि उस काम से उसकी आजीविका चल रही है इसलिए यह भी कहना गलत नहीं होगा कि उसके पास रोजगार नहीं है।
जब प्रधानमंत्री का पकौड़े वाला बयान आया तो उसके जवाब में देश के पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने एक तरह से मोदी सरकार का मजाक बनाते हुए पूछा कि ‘’अगर पकौड़े बेचना नौकरी है तो फिर भीख मांगना भी रोजगार है। और इस तरह देखा जाए तो देश में भीख मांगने वाले सभी लोगों के पास रोजगार है।‘’
सोमवार को राज्यसभा में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने सांसद के रूप में अपना पहला भाषण देते हुए चिदंबरम के इस बयान का माकूल जवाब दिया। शाह ने कहा कि ‘’बेरोजगारी से अच्छा है कि कोई युवा पकौड़ा बेच रहा है। पकौड़ा बेचना शर्म की बात नहीं है, इसकी भिखारी के साथ तुलना ना करें। यदि चाय वाले का बेटा पीएम बन सकता है तो पकौड़े वाले का बेटा आगे जाकर उद्योगपति भी बन सकता है।‘’
ऐसे ही इस पकौड़ा प्रकरण पर देश भर में बहुत सारे राजनैतिक- गैर राजनैतिक बयान आए हैं। लेकिन मेरा मानना है कि यह सारा जाल मूल समस्या से ध्यान बंटाने के लिए बुना जा रहा है। चर्चा जानबूझकर पकौड़े पर केंद्रित कर दी गई है, जबकि उसे बेरोजगारी पर केंद्रित होना चाहिए था। निश्चित रूप से इस दलील से कोई असहमत नहीं होगा कि कोई भी काम छोटा नहीं होता। भले वह चाय और चने बेचने का हो या पकौड़ा अथवा पानी पूरी बेचने का। इसके लिए न तो चाय बेचकर प्रधानमंत्री बनने वाले मोदी का उदाहरण देने की जरूरत है और न ही पकौड़े बेचकर देश का अग्रणी उद्योगपति बनने वाले धीरूभाई अंबानी का हवाला देने की।
जिस इंटरव्यू से यह विवाद उठा उसमें मोदी ने कहा कि उनके द्वारा शुरू की गई प्रधानमंत्री मुद्रा योजना में गरीबों या रोजगार चाहने वालों को बिना गारंटी के बैंक लोन दिया जा रहा है। योजना के तहत 10 करोड़ लोगों को चार लाख करोड़ रुपए का लोन दिया जा चुका है और इसमें से तीन करोड़ लोग तो ऐसे हैं जिन्होंने बैंक से कभी एक रुपया तक नहीं लिया।
प्रधानमंत्री यदि ऐसा दावा कर रहे हैं तो देश का फर्ज बनता है कि उनकी बात पर भरोसा करे। यदि चार लाख करोड़ रुपए लोगों में बंटे हैं तो वे कोई न कोई काम धंधा जरूर कर रहे होंगे और उनमें से कई ऐसे भी हो सकते हैं जो अपने परिवार का पेट पालने के साथ साथ एक दो लोगों को अपने यहां रोजगार भी दे रहे हों।
लेकिन मेरा सवाल दूसरा है। मैं इस चाय पकौड़े की फालतू बहस में नहीं पड़ना चाहता। मैं सरकार और उसके पैरोकारों के तमाम तर्कों को मंजूर करते हुए सिर्फ इतना जानना चाहता हूं कि क्या हमें बी.टेक, एमटेक, एमबीए या और कोई पोस्ट ग्रेजुएट डिग्री हासिल करने वाला नौजवान, पकौड़े बेचकर अपनी आजीविका चलाता हुआ स्वीकार है?
बात को घुमाने की दृष्टि से यह हरकत अच्छी लग सकती है या गले उतारी जा सकती है कि पकौड़े या और कोई भी चीज बनाकर बेचने से व्यक्ति कम से कम भूखा तो नहीं मरेगा। लेकिन क्या विश्वगुरू और दुनिया की बड़ी ताकत बनने का दावा करने वाला देश यह चाहेगा कि उसके डॉक्टर, इंजीनियर या बड़ी बड़ी डिग्रियां हासिल करने वाले नौजवान चाय पकौड़े के ठेले लगाकर अपना जीवन बिता लें।
संकट किस हद तक है इस बात का पता इसीसे चल जाना चाहिए कि आज देश के कई हिस्सों में चपरासी या स्वीपर जैसे पदों के लिए भी ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट और पीएचडी किए हुए उम्मीदवार आवेदन कर रहे हैं। क्या इसे देश की तरक्की की निशानी कहा जा सकता है? चाहे पक्ष हो या विपक्ष, राजनीतिक लाभ के लिए रोजगार की ‘पकौड़ेबाजी’ नेताओं को भले ही सूट करती हो लेकिन क्या देश की तरक्की के लिए ऐसे कुतर्क चल सकते हैं?
हम बेरोजगारी की कड़ाही में अपनी प्रतिभाओं को इस तरह कब तक तलते रहेंगे। उनकी उम्मीदों के पकौड़े कब तक बनाते रहेंगे… याद रखिए, ज्यादा पकौड़े खाना भी सेहत के लिए अच्छा नहीं है, पेट खराब हो जाता है…