अनुशांत सिंह
ग्रामीण भारत आज भी साइकिल पर सवार होता है। ग्रामीण भारत की कच्ची गलियों में आज भी साइकिल के चिन्ह दिखाई देते हैं। भारत के ग्रामीण अंचलों में साधन के रूप में साइकिल की परंपरा बहुत पुरानी है। वैसे तो शहरों में भी साइकिल की जबरदस्त धमक है लेकिन ग्रामीण अंचलों में दिखाई देने वाली साधारण साइकिल ही शुरुआत में आई थी। एटलस उन बड़ी कंपनियों में शुमार है जो प्रतिवर्ष लाखों साइकिल उत्पादन करती हैं। वैसे तो देश में और भी साइकिल निर्माण कंपनियां हैं, लेकिन एटलस सबसे ज्यादा साइकल उत्पादक कंपनी थी जिससे हजारों लोगों की रोजी रोटी और भावनायें जुड़ी हैं।
लेकिन भारत में साइकिल बनाने की इस बहुत बड़ी कंपनी एटलस के गेट पर इन दिनों ताला लटका है। हर महीने दो लाख साइकिल बनाने वाली एटलस का सफर 1989 में साहिबाबाद से शुरू हुआ था जो इकतीस साल बाद थम गया। इन इकतीस सालों में एटलस ने लाखों लोगों को सडक और साइकल से जोडे रखा और हजारों लोगों को रोजगार दिया। लेकिन अब सड़क और साइकल को जोड़कर रखने वाली और रोजी रोटी की कड़ी बनने वाली एटलस खुद टूट गई।
देश की फिजाओं में इन दिनों कोरोना का जहर घुला है। तमाम औद्योगिक गतिविधियाँ ठप पड़ी हैं। उद्योग पैसों की तंगी का सामना कर रहे हैं। इसी तंगी ने एटलस के चक्के भी जाम कर दिये। भारत के ग्रामीण अंचल में इसके महत्व को इस बात से समझा जा सकता है कि आज भी अंचल का किसान खेत से घर और घर से खेत के लिये साइकल का ही इस्तेमाल करता है।
इन इकतीस सालों में इसने अपने कलेवर को बदला। साधारण सी साइकल से गियर वाली साइकल तक का सफर इसने तय किया लेकिन इसके बावजूद उसने अपनी पुरानी परंपरागत साइकिल के निर्माण को नहीं छोड़ा जिसे अंचलों में आज भी सवारी के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।
लॉकडाउन में हमने अनेक कहानियां देखीं। कुछ कहानियां साइकिल से जुड़ी थीं। बिहार की लडकी ज्योति ऐसी ही एक साइकल से अपने पिता को हजारों मील का फासला तय कर बिहार ले आई। सैकड़ों परिवार दिल्ली, मुम्बई से ऐसी ही साइकिल के सहारे अपने घर पहुंच गये।
कैसी विडंबना है कि ‘जीरो कार्बन जीवनशैली’ की फेहरिस्त को लेकर इस बार का पर्यावरण दिवस आया। लेकिन जीरो कार्बन की थ्योरी को पूरा करने में सहायक साइकल की एक कंपनी पर इन्हीं दिनों ताला पड गया। अमेरिका, लंदन, ब्रिटेन जैसे देशों में कोरोनाकाल में साइकिल के इस्तेमाल के लिये लोगों को प्रोत्साहित किया जा रहा है, ताकि कोरोना और बंदी से तबाह हुई आर्थिक स्थिति में थोड़ी राहत मिल सके और पर्यावरण का भी ख्याल रखा जा सके। लेकिन ऐसे देश में जहां साइकिल लोगों के जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। उसी देश की एक बड़ी साइकिल फैक्ट्री में ताला पड गया।
इसने लोगों को रास्ते से जुड़ना सिखाया है। इसके कैरियर पर बैठकर लाखों बचपन गुजरे हैं। इसने खेत और किसान को जोड़ा है। आज भी भारत के गरीब तबके का यह सहारा है। यह डाकियों के आवागमन का प्रमुख साधन रही है। भारत के गावों में आज भी पुरानी एटलस साइकिल दिख जायेगी। कोरोना के प्रभाव से पहले ही लोगों की जेब खाली है और ऐसे में एक बड़ी साइकिल कंपनी के बंद होने का मतलब बड़ी तादाद में बेरोजगारी है।
(अनुशान्त सिंह, आईटीएम विश्वविद्यालय ग्वालियर में पत्रकारिता के विद्यार्थी हैं)