गुजरात चुनाव को लेकर जब प्रचार का घमासान चल रहा था उसी दौरान इसी कॉलम में मैंने 29 नवंबर को सवाल उठाया था कि ‘’क्या दिग्विजय के ‘फार्मूले’ से गुजरात जीतेगी भाजपा?’’ और अब जब चुनाव परिणाम आ गए हैं तो मुझे लगता है कि मेरे इस सवाल का जवाब‘हां’ में मिला है। भाजपा ने सारे हथकंडे आजमा लेने के बाद अंतत: ‘दिग्विजय फार्मूले’ की ही शरण ली और अपनी संभावित हार को जीत में बदल दिया।
दिग्विजय फार्मूला यानी क्या? दरअसल आज से 14 साल पहले 2003 में मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान जब तत्कालीन मुख्यमंत्रीदिग्विजयसिंह से पूछा गया था कि उनकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी भाजपा तो विकास को मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ रही है, आप उसका मुकाबला कैसे करेंगे, तो इसके जवाब में सिंह का वह मशहूर और सार्वकालिक बयान आया था कि ‘’चुनाव तो चुनावी प्रबंधन के कौशल से जीते जाते हैं,विकास तो बाद की बात है।)elections are won through management skills, development is secondary) यह बात अलग है कि उसके बावजूद दिग्जियसिंह वह चुनाव हार गए थे।
गुजरात चुनाव के दौरान भी और चुनाव के बाद भी राहुल गांधी बार बार यह सवाल पूछ रहे हैं कि भाजपा ने गुजरात में विकास की बात क्यों नहीं की। आखिर क्यों मोदीजी इधर उधर के मुद्दों पर बातों को उलझाते रहे, उन्होंने ‘गुजरात मॉडल’ को अपने प्रचार का केंद्र क्यों नहीं बनाया। तो इसका जवाब यह है कि यदि सचमुच भाजपा ने अपनी रणनीति गुजरात के विकास के ही आसपास बुनी होती तो आज उसे जश्न मनाने का मौका नहीं मिल पाता।
भाजपा ने सही वक्त पर सही फैसला किया और चुनाव की दिशा को मोड़ते हुए सारा ध्यान माइक्रो और मैक्रो मैनेजमेंट पर केंद्रित कर दिया। खास तौर से चुनाव के दूसरे चरण में उसने कांग्रेस के अपने ही घर से भाजपा और उसके नेता नरेंद्र मोदी की ओर उछाले गए शोलों का मुंह कांग्रेस की ओर ही मोड़ दिया और कांग्रेस उन शोलों से बुरी तरह झुलस गई।
गुजरात चुनाव में कदम कदम पर बारूदी सुरंगें बिछी हुई थीं, हालत यह थी कि जरा सा कोई चूका नहीं कि उसके चिथड़े उड़ना तय था। और भाजपा ने खुद को ऐसी चूक करने से भरसक बचाए रखा। जबकि कांग्रेस ने जानबूझकर बारूदी सुरंगों पर नाचने की गलती कि और अपने चिथड़े उड़वा बैठी। पहले चरण की कमजोरी के बाद दूसरे चरण में भाजपा का बाजी मार लेना इस बात का साफ संकेत है कि उसने मणिशंकर अय्यर के ‘नीच’ वाले बयान, अय्यर के घर पाकिस्तानी अफसरों के साथ कांग्रेसी नेताओं की बैठक और राम मंदिर को लेकर दिए गए कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल के बयानों का बखूबी इस्तेमाल किया।
एक बात और ध्यान देने वाली है कि क्या देश में पिछले लंबे समय से जिन बातों को मुद्दा बताया जा रहा है वे वास्तव में मुद्दा हैं भी या नहीं। इस बात को समझने के लिए दो ही उदाहरण काफी हैं। पहला है नोटबंदी और दूसरा जीएसटी। नोटबंदी के बाद उत्तरप्रदेश के चुनाव हुए और मीडिया में यह घनघोर प्रचार हुआ कि नोटबंदी के कारण जनता को हुई परेशानी भाजपा को ले डूबेगी। लेकिन परिणाम न सिर्फ उलटे आए बल्कि लोगों ने भाजपा को बंपर बहुमत देकर जिताया।
यही बात जीएसटी के बारे में लागू हुई। जीएसटी के कारण व्यापारी समुदाय की परेशानी और उस परेशानी के चलते व्यापारियों में पनपे कथित असंतोष और गुस्से का हवाला देते हुए कहा जा रहा था कि व्यापारी बहुल गुजरात में जीएसटी भाजपा के गले में फांसी का फंदा बन जाएगा। लेकिन यहां भी परिणाम इसके ठीक विपरीत रहे। और तो और सूरत व अहमदाबाद जैसे जीएसटी विरोध के बड़े व्यापारिक केंद्रों तक से भाजपा के पक्ष में बंपर समर्थन की लहर मतपेटियों से निकली।
यानी मीडिया में जो दो प्रमुख मुद्दे नोटबंदी व जीसएटी, भाजपा के लिए भारी नुकसानदेह बताते हुए प्रचारित किए जा रहे थे उनका असर तो चुनाव में कहीं दिखाई नहीं दिया। जिस जनता को या जिस वर्ग को इन दोनों फैसलों से परेशानी की बात बार बार उठाई जा रही थी, जनता ने तो सरकार का फैसला करते वक्त इन पर उस तरह ध्यान नहीं दिया।
इसका मतलब क्या समझा जाए? क्या यह माना जाए कि चुनाव गैर गंभीर बातों और गैर मुद्दों की जमीन पर लड़े जा रहे हैं। जिन्हें मुद्दा बताया जा रहा है वे न तो मुद्दा हैं न ही लोग उन्हें उस तरह गंभीरता से ले रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि वे कौन लोग हैं जो नॉन सीरियस और नॉन इश्यू को सीरियस इश्यू बनाकर उसका हौवा खड़ा कर रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि यह मामला शोले फिल्म के जय की जेब में पड़े रहने वाले सिक्के की तरह है जिसके दोनों ही तरफ ‘हेड’ है।
लेकिन यदि ऐसा नहीं है और भ्रम का यह वातावरण विपक्षी दलों द्वारा खड़ा किया जा रहा है तो फिर भाजपा को विपक्ष द्वारा खड़े किए जा रहे ऐसे हौवों की ट्रैप में फंसने से बचना होगा। यह सावधानी इसलिए जरूरी है क्योंकि गुजरात में शहरी और व्यापारी क्षेत्र की नाराजगी के हल्ले को देखते हुए सारा ध्यान शहरी क्षेत्र के मतदाताओं को रिझाने और पटाने पर लगा रहा और उधर ग्रामीण इलाकों में जमीन खिसक गई।
ध्यान दीजिएगा… गुजरात में यदि भाजपा की जीत और कांग्रेस की बढ़त जैसी स्थिति निर्मित हुई है, यदि यह जीत भाजपा के लिए कसक लेकर और हार कांग्रेस के लिए पुलक लेकर आई है तो उसका मुख्य कारण ग्रामीण मतदाताओं का भाजपा से बेरुखी जताना है। शहरों के फेर में पड़ी भाजपा को यह नहीं भूलना चाहिए कि ग्रामीण क्षेत्रों में कांग्रेस की पकड़ हमेशा से रही है। यदि वहां भाजपा की पकड़ ढीली हुई तो लेने के देने पड़ जाएंगे।
चिंता की बात यह है कि ये संकेत केवल गुजरात में ही नहीं बल्कि मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान जैसे परपंरागत केसरिया प्रदेशों से भी मिल रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्र या किसानों की नाराजगी यदि बरकरार रही तो 2018 में होने वाले विधानसभा और 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव में भाजपा को यह बहुत भारी पड़ेगी…