ऐसा लगता है कि ‘कथनी और करनी’ में अंतर हमारे समाज का स्थायी भाव बन गया है। यह सिर्फ निजी या सामूहिक मामलों में ही नहीं हो रहा, कानून और नीतियां बनाने और उन पर अमल करने के मामले में भी हो रहा है। सरकारें विभिन्न समस्याओं को लेकर पहले तो बरसों बरस उदासीन रहती हैं या उन्हें लटकाए रखती हैं। जब पानी सिर से गुजर जाता है तो फिर मनमसोसकर उस पर विचार करने को राजी होती हैं।
उसके बाद जब भी कोई कानून या नीति बनती है उसमें सामाजिक के साथ साथ राजनीतिक एंगल आड़े आ जाता है। शाहबानो केस से लेकर तीन तलाक तक और एससी-एसटी एक्ट से लेकर मोटर व्हीकल एक्ट तक हर मामले में आपको यही कहानी मिलेगी। पहले मामले का हौवा खड़ा किया जाता है, फिर नीति या कानून बनते हैं और उसके बाद उनमें संशोधन या फिर उन्हें कमजोर बनाने की साजिशें शुरू हो जाती हैं।
यह बात समझना मुश्किल है कि जब किसी मुद्दे पर नीति या कानून बनते हैं तो उस समय यह सब कुछ क्यों नहीं सोच लिया जाता। माना कि कोई भी नीति या कानून स्थायी भाव लिए हुए नहीं होता, लेकिन यह क्या बात हुई कि विशेषज्ञों की समिति के निष्कर्ष, मंत्रिमंडलीय समिति अथवा राज्यों के मंत्रियों के समूह के मंथन और उसके बाद लोकसभा और राज्य सभा की सिलेक्ट व स्टैंडिंग कमेटियों के छन्ने से होता हुआ कोई बिल संसद में पास हो जाने के चंद दिनों बाद ही खारिज किया जाने लगे।
19 सितंबर को मैंने इसी कॉलम में नए मोटर व्हीकल एक्ट की फजीहत को लेकर बात की थी। आज उसी बात को आगे बढ़ाते हुए एक और मसले पर बात करना चाहूंगा। और यह मसला है सिंगल यूज प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाने का। दरअसल यह मुद्दा 15 अगस्त को लालकिले से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण के बाद फिर गरमाया है। प्रधानमंत्री ने स्वतंत्रता दिवस के अपने संबोधन में लोगों से कहा- ‘’मेरे प्यारे देशवासियो, मैं एक छोटी-सी अपेक्षा आज आपके सामने रखना चाहता हूं। क्या हम सिंगल यूज प्लास्टिक को विदाई देने की दिशा में 2 अक्टूबर को पहला मजबूत कदम उठा सकते हैं?’’
प्रधानमंत्री ने 2022 तक देश को सिंगल यूज प्लास्टिक मुक्त करने की बात भी कही। मामला चूंकि खुद प्रधानमंत्री की मंशा का था इसलिए सरकार सक्रिय हुई और सितंबर माह के शुरुआत में पर्यावरण मंत्रालय ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को एक एडवाइजरी जारी की। इसमें कहा गया कि सरकारी, पब्लिक और प्राइवेट कंपनियों के ऑफिसों में प्लास्टिक के उत्पाद जैसे- कृत्रिम फूल, बैनर्स, फ्लैग, फूल लगाने के पॉट्स, प्लास्टिक की पानी की बोतलें, प्लास्टिक स्टेशनरी आइटम्स आदि का इस्तेमाल न किया जाए। राज्यों को इस मामले में जागरूकता अभियान चलाने को कहा गया। खुद प्रधानमंत्री ने 11 सितंबर को मथुरा के एक कार्यक्रम में प्लास्टिक कचरे को बीन कर जागरूकता संदेश दिया।
सरकार की मंशा के मद्देनजर केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय प्लास्टिक कचरा प्रबंधन नियमावली (2016) में बदलाव कर चुका है। नए नियमों के मुताबिक देशभर में प्लास्टिक और उनसे बने उत्पाद बनाने, आपूर्ति करने और बेचने वालों को दो साल के अंदर इस तरह का उत्पादन बंद करना होगा। स्वास्थ्य मंत्रालय अलग से प्लास्टिक मैनेजमेंट और रिसाइक्लिंग ईकोसिस्टम के बारे में जागरूकता फैलाने की कोशिश कर रहा है।
यानी सरकार चौतरफा इस बात का माहौल बना रही है कि सिंगल यूज प्लास्टिक के उपयोग को पूरी तरह खत्म कर दिया जाए। अब कायदे से देखें तो एक बार फैसला हो गया, प्रधानमंत्री ने अपना निश्चय प्रकट कर दिया तो फिर इस बात में कोई हीलहवाला नहीं होना चाहिए। वैसे भी प्लास्टिक पर प्रतिबंध की बात सिर्फ भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में हो रही है। प्लास्टिक को पर्यावरण प्रदूषण के सबसे बड़े कारणों में से एक माना जाता है।
पर इन तमाम उपायों के समानांतर वही ‘कथनी और करनी’ में अंतर वाली बात भी सामने आ रही है। एक तरफ सिंगल यूज प्लास्टिक को प्रतिबंधित करने के ताबड़तोड़ प्रयास हो रहे हैं, दूसरी तरफ अलग-अलग दलीलें देते हुए इस अभियान को पलीता लगाने की कोशिश भी हो रही है। और इसके उदाहरण के तौर पर 18 सितंबर को देश के खाद्य आपूर्ति एवं उपभोक्ता मामलों के मंत्री रामविलास पासवान के उस बयान को नोट किया जाना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा है कि ‘’एक बार इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक का विकल्प मिलने तक, प्लास्टिक से बनी पानी की बोतल बंद नहीं होगी।‘’
मंत्री का कहना है कि फिलहाल पानी की बोतल का जो विकल्प बताया जा रहा है, वह महंगा है। बोतलबंद पानी पर तुरंत रोक लगाना संभव नहीं है, क्योंकि इससे जुड़े उद्योगों में बड़ी तादाद में लोगों को रोजगार मिला हुआ है। प्रतिबंध से हजारों लोगों की नौकरियां जा सकती हैं। उधर पेट पैकेजिंग एसोसिएशन का कहना है कि देश भर में 70 लाख से ज्यादा लोग इस उद्योग से जुड़े हैं और इस उद्योग का आकार करीब 4000 करोड़ रुपए का है।
अब सवाल यह है कि जब लाखों की संख्या में इस्तेमाल होने वाली प्लास्टिक की बोतलें अभी प्रतिबंधित नहीं होंगी तो फिर प्लास्टिक बैन के नारे का अर्थ ही क्या रह जाता है। मान लिया कि इस उद्योग से लाखों लोग जुड़े हैं लेकिन ऐसे में तो फिर पर्यावरण बचाने के किसी भी कदम का यह कहकर विरोध हो सकता है कि फलां उद्योग से लोगों को रोजगार मिल रहा है, इसलिए उसे चालू रहने दिया जाए।
बेहतर होगा सरकारें इस तरह की घोषणाएं करने या नीति व कानून बनाने से पहले उनके सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक परिणामों के साथ साथ निजी नफे नुकसान के बारे में पहले अच्छी तरह सोच विचार कर ले। यदि लोगों के रोजगार छिनने का प्रश्न है तो उसके विकल्प पर भी समानांतर रूप से विचार हो जाए। और उसके बाद जब फैसला हो तो उसे पूरी तरह लागू करने की हिम्मत दिखाई जाए।
आज सड़क यातायात नियमों का उल्लंघन करने पर मोटर व्हीकल एक्ट का विरोध हो रहा है, पर्यावरण संरक्षण के लिए सिंगल यूज प्लास्टिक प्रतिबंधित करने का विरोध हो रहा है। कहीं ऐसा न हो कि कल को आप ड्रग्स का धंधा करने वालों या खाद्य पदार्थों में मिलावट करने वालों पर कार्रवाई करने जाएं और उनका समूह इस कुतर्क के साथ खड़ा हो जाए कि यह तो इतने हजार करोड़ की इंडस्ट्री है और इससे इतने लाख लोगों के परिवारों का पेट पल रहा है…, तब आप क्या करेंगे?