डॉ. जानकी पांडेय
“माँ, मुझे भी स्कूल जाना है”। पड़ोस में रहनेवाली रिया रोज नन्हे हाथों में छोटा सा बैग लिए हुए घर से निकलने का प्रयास करती है। घरवाले हाथ पकड़कर बड़े प्यार से उसे समझने का प्रयास करते हैं। बेटा, बाहर नहीं जाते हैं नहीं तो कोरोना पकड़ लेगा। रिया वापस सवालों की झड़ी लगा देती है- “मम्मी-मम्मी यह कोरोना क्या होता है। भैया को तो रोज बस में स्कूल भेजती थीं, फिर मुझे क्यों नहीं?”
यह कहानी सिर्फ रिया की ही नहीं है बल्कि उस जैसे हजारों-लाखों मासूमों की है। कोई थोड़े दिन स्कूल गया और किसी ने सिर्फ एडमिशन लेने के लिए स्कूल में कदम रखा। उन मासूमों के सपने घरों में कैद होकर रह गए हैं। कोरोना की तीसरी लहर की बात तो बच्चों के पेरेंट्स को सोचने पर मजबूर कर रही है। हमारे बच्चे कब स्कूल जाएंगे?
बच्चा जब माँ के आँचल से निकलकर पढ़ने के लिए जहां अपना पहला कदम रखता है वह जगह स्कूल ही होती है। नई टीचर, नए दोस्त, बिलकुल नया माहौल। यहाँ सब कुछ एक अनुशासन में बंधा होता है। कैसे अपने सामान को शेयर करते हैं। वह अपने दोस्तों में पेंसिल, रबर या टिफ़िन जैसी चीजों को शेयर करके सीखता है। सही मायनों में अनुशासन में रहते हुए, कैसे जिंदगी के एक-एक पायदान पर चढ़ा जाता है, यह बच्चों को स्कूल ही सिखाता है। परन्तु आज परिस्थितियां बिलकुल अलग हैं। एक अदृश्य वायरस ने सबको घरों में बांध रखा है।
बात यहाँ बच्चों की पढ़ाई को लेकर है। अगर हम तीन से छह साल के उम्र के बच्चों की बात करें तो इन सबकी जरूरतें और परेशानियां अलग-अलग है। कोई प्ले स्कूल में है तो कोई नर्सरी में और कोई केजी में, या किसी के कदम स्कूल जाने के लिए बेताब हैं। ऑनलाइन क्लासेज सभी के चल रहे हैं। फर्क इतना है कि पहले जहाँ स्कूल भेजने के बाद पेरेंट्स की जिम्मेदारियां थोड़ी कम हो जाती थीं वहीँ आज सारी की सारी उनके ऊपर हैं।
आजकल सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हो रहा है। स्कूल के सिलेबस के बोझ तले दबी एक छह साल की बच्ची प्रधानमंत्रीजी से बार बार ऑनलाइन क्लासेज की टाइमिंग और सिलेबस को लेकर हो रही अपनी परेशानियों का जिक्र कर रही है। सवाल यह उठता है कि स्कूल या पेरेंट्स बच्चों की परेशानियों को क्यों नहीं समझते। क्या हर छोटी-छोटी समस्याओं के लिए गवर्नमेंट को आगे आना पड़ेगा? खैर, कश्मीर गवर्नमेंट ने बच्चों की परेशानियों को समझते हुए ऑनलाइन क्लासेज का टाइम घटाकर उस जैसे हजारों बच्चों को राहत दी है। लेकिन क्या अन्य राज्यों में भी बच्चों को सोशल मीडिया के माध्यम से सरकार तक अपनी बात पहुँचानी पड़ेगी या समय रहते सरकार और स्कूल जागेंगे?
सवाल यह उठता है, इसमें गलती किसकी है। हमारे सिस्टम की, स्कूल की या हमारी। इन सबके लिए कहीं न कहीं हम सब जिम्मेदार हैं। सरकारी स्कूलों में ज्यादातर लोअर मिडिल क्लास के बच्चे पढ़ते हैं। बहुत कम लोगों के पास स्मार्ट फ़ोन हैं। अगर किसी के पास है तो भी पेरेंट्स को बच्चों के पास बैठने का समय नहीं होता हैं क्योंकि उन्हें काम पर जाना पड़ता है। इन सबसे अलग निजी स्कूलों में जहाँ फीस के रूप में एक मोटी रकम वसूल की जाती है, वहां के टीचर ऑनलाइन क्लासेज की जिम्मेदारी बखूबी निभा रहे हैं क्योंकि इन स्कूलों में पढ़नेवाले बच्चों के पेरेंट्स की उम्मीदें बहुत ज्यादा होती हैं। ऑनलाइन क्लासेज में कम समय देने पर उन्हें लगता है कि उनका पैसा पानी में जा रहा है। एक या दो घंटे में बच्चा क्या सीखेगा?
बच्चों की मनोदशा को समझें
बच्चा जब नन्हे-नन्हे क़दमों से पहली बार चलना सीखता है, उसके कदम बार- बार लड़खड़ाते हैं। इसी क्रम में कभी-कभी उसे चोट भी लग जाती है। माँ उसका ध्यान बंटाने के लिए कुछ खिलौने देकर चुप करा देती है और खेल-खेल में ही माँ उसे बहुत कुछ सिखा देती है। इसी सीखने-सिखाने के क्रम में बच्चे के कदम स्कूल की तरफ बढ़ते हैं। वहां हर चीज के लिए एक टाइम स्लॉट होता है- प्रेयर से लेकर पढ़ाई, लंच, खेल-कूद आदि के लिए। जहाँ तक ऑनलाइन क्लासेज की बात है बच्चों को लगातार एक ही मुद्रा में बैठकर पढ़ना होता है। जरा सा ध्यान भटका तब मम्मियां तुरंत पीछे से आँख दिखाना शुरू कर देती हैं।
न छीनो उनका बचपन
बचपन कभी लौटकर नहीं आता है। बच्चों को तीन-चार घंटे लगातार बैठाने के बजाय थोड़ा-थोड़ा करके सिखाएं। आपके किचन से लेकर खाने की टेबल तक और घर में बहुत सारे ऐसे सामान हैं जिनसे आप बच्चों को बहुत कुछ सिखा सकते हैं। ज्यादातर घरों में बहुत तरह के फूल-पौधे लगे होते हैं। इन पौधों को दिखाते हुए रंगों की पहचान के बारे में अच्छे से बताया जा सकता हैं। गार्डन में उड़ती हुई तितलियाँ, पेड़ों पर चहचहाती चिड़ियाँ और आसमान में दिखने वाले चाँद-तारे भी तो उनकी पढ़ाई के ही पार्ट हैं। फिर तीन या चार घंटे की समय सीमा क्यों?
कहने का तात्पर्य यह है कि उनके बचपन को अपनी नहीं बल्कि उनकी निगाहों से देखते हुए उन्हें परिंदों की तरह आसमान में उड़ने दें। आगे चलकर निश्चित ही वे अपनी मंजिल तक पहुँचने में कामयाब होंगे।(मध्यमत)
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