डॉ. मंगल मिश्र
कोरोना संकट के कारण सारी दुनिया त्रस्त है। कोरोना के विस्तार, नियंत्रण आदि से संबंधित अनेक प्रकार की खबरें आ रही हैं। दुनिया भर की सरकारों ने अपने-अपने तरीके से कोरोना की जांच, लॉक-डाउन, कर्फ्यू, कोरेंटाइन, अनलॉक आदि अनेक कार्य किए हैं, जिनकी सफलता या असफलता के अनेक प्रकार के समाचार भी जारी हो रहे हैं। दुनिया के लगभग सभी देशों में कोरोना संक्रमण की शुरुआत होने पर सबसे पहले शिक्षण संस्थान बंद किए गए थे। स्वाभाविक है कि उन्हें खोला भी सबसे बाद में ही जाएगा।
हमारे देश में शिक्षा, संविधान की समवर्ती सूची में है। इसलिए केन्द्र के सभी निर्देश राज्यों पर यथावत लागू नहीं होते। कुछ राज्य सरकारें शिक्षण संस्थाएं खोलने की तैयारी में हैं और कुछ अभी बंद रखना चाहती हैं। मामले के प्रभारी केन्द्रीय मंत्री ने अगस्त के बाद शिक्षण संस्थाएं खोलने की बात कही है। सवाल यह है कि जब शिक्षण संस्थाएं बंद हैं तो परीक्षाएं क्यों करवाई जा रही हैं?
जिम्मेदार लोग भी विद्यार्थी जीवन से गुजरे हैं और वे भली प्रकार जानते हैं कि किसी भी परीक्षा में सभी विद्यार्थी सामाजिक दूरी का पालन करें- ऐसा संभव ही नहीं है। परीक्षा शुरू होने के पहले और परीक्षा खत्म होने के बाद विद्यार्थी अलग-अलग समूह में एकत्रित होते हैं और परीक्षा संबंधी चर्चाएं करते हैं। देश का कोई शिक्षण संस्थान किसी हालत में उस अवस्था में उन्हें सामाजिक दूरी के लिए निर्देशित नहीं कर सकता। वैसे भी उस समय शिक्षक परीक्षा कार्य में व्यस्त होते हैं।
यहीं नहीं, परीक्षा के दौरान विद्यार्थी की टेबल पर जाकर उसे उत्तरपुस्तिकाएं और प्रश्नपत्र पत्र देना होगा। पूरक उत्तरपुस्तिकाएं बार-बार देना होंगी। कई बार विद्यार्थी के पास जाकर हस्ताक्षर लेना और करना होंगे। न जाने कितने हाथों से गुजरे हुए कागजों का खुला आदान-प्रदान होगा। पेयजल, वॉशरूम, टेबल कुर्सियां, दरवाजे, फर्नीचर- सब कुछ तो शिक्षण संस्थाओं में सबके उपयोग के लिए ही होता है।
देश का कोई भी शिक्षण संस्थान उस स्तर का सेनेटाइजेशन नहीं कर सकता, जैसी संक्रमण से बचाव के लिए अपेक्षा है। यदि पूरे परीक्षा केन्द्र पर एक भी व्यक्ति, चाहे वह विद्यार्थी हो या स्टाफ सदस्य, संक्रमित हुआ तो वह पूरे केन्द्र को एक ही दिन में संक्रमित करने की ताकत रखता है। कौन जाने कितने साइलेंट कैरियर परीक्षा केन्द्र पर आएंगे, कितने संक्रमित होंगे और कितनी लाशें तैयार हो जाएंगी।
हम यह विचार करें कि जब मोटर साइकिल पर एक व्यक्ति के ही बैठने की अनुमति है, कार में दो ही व्यक्ति बैठ पा रहे हैं, विमान में बीच की सीटें खाली रखने के निर्देश हैं, तो परीक्षा केन्द्र पर सैंकड़ों विद्यार्थियों के एकत्रीकरण की अनुमति कैसे दी जा रही है? हम परीक्षाओं की वैकल्पिक पद्धति पर विचार क्यों नहीं कर सकते, जैसे-
1- द्वितीय और तृतीय वर्ष के विद्यार्थी को गत वर्ष के आधार पर प्रमोशन देना।
2- विद्यार्थियों को आंतरिक मूल्यांकन के आधार पर कक्षोन्नत करना।
3- पचास प्रतिशत अंक गत वर्ष के आधार पर और पचास प्रतिशत आंतरिक मूल्यांकन के आधार पर दे कर कक्षोन्नत करना।
4- होम असाइनमेंट देना, ओपन बुक परीक्षा करना, जिसमें ऐसे प्रश्न पूछे जाएं जो सीधे-सीधे पुस्तकें पढ़कर हल न हो सके।
5- वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के द्वारा खुला साक्षात्कार लेकर उसके अंक देना तथा वीडियो रिकार्डिंग विश्वविद्यालय में जमा कराना
6- साधन संपन्न संस्था होने पर ऑनस्क्रीन वस्तुनिष्ठ प्रश्नों द्वारा मूल्यांकन करना, आदि।
हम इनमें से एक या एक से अधिक पद्धति के मिश्रण के द्वारा विद्यार्थियों के ज्ञान का मूल्यांकन कर सकते हैं और उसे अगली कक्षा में प्रमोशन देने के बारे में विचार किया जा सकता है।
जैसे ही तथाकथित परीक्षाएं समाप्त होंगी, वैसे ही संस्थाओं के प्रबंधक, कक्षाएं शुरू करने की कोशिश करेंगे। उन्हें स्टाफ को वेतन देना है। अतः फीस जमा होना जरूरी है। दक्षिणी कोरिया ने स्कूल शुरू किए थे, लेकिन एक ही दिन में स्थिति इतनी बिगड़ी कि तत्काल स्कूल बंद करना पड़े। यूरोप, अमेरिका और कनाडा के अनेक शैक्षणिक संस्थानों ने इस वर्ष अपनी संस्था को पूर्णतः बंद रखने का निर्णय लिया है।
हम सब जानते हैं कि चिकित्सा या सेनेटाइजेशन की सुविधाएं पश्चिम देशों की तुलना में हमारे यहां कैसी हैं। बच्चों से भरे हुए ऑटोरिक्शा, स्कूल बसें और अन्य परिवहन के साधन हम सब ने देखे हैं। छोटे-छोटे बच्चों को साथ में खेलने, कूदने, खाने-पीने और मस्ती करने से शिक्षक तो क्या दुनिया की कोई भी ताकत नहीं रोक सकती।
ऐसे में छोटे बच्चे, जो पहले से ही कोरोना के लिए सॉफ्ट टारगेट हैं, पूरे स्कूल को भी संक्रमित कर देंगे, जिसका प्रभाव परिवारों और अंततः पूरे देश पर पड़ेगा। इसलिए जब तक कोरोना के टीके का सफलतापूर्वक परीक्षण नहीं हो जाए और सभी विद्यार्थियों का टीकाकरण न हो जाय, तब तक सारी शिक्षण संस्थाएं बंद रखना चाहिए।
कहने को ऑनलाइन टीचिंग बड़ा अच्छा शब्द लगता है, लेकिन छोटे बच्चों की आंख पर इसके दुष्प्रभाव की खबरें सबने पढ़ी हैं। इसलिए इस वर्ष विद्यार्थियों को स्वाध्याय के लिए प्रेरित करना चाहिए। परिवार के लिए यह वर्ष शैक्षणिक नहीं, ‘संस्कार वर्ष’ के रूप में आयोजित हो, जिससे वे छोटे बच्चों को अपने परिवार के अनुसार संस्कारित कर सकें।
उच्च शिक्षण संस्थान के शिक्षकों को महाविद्यालय या विश्वविद्यालयों में बुलाकर उनसे ऑनलाइन टीचिंग अवश्य करवाया जा सकता है। उसका टाइमटेबल उसी प्रकार हो जैसे परंपरागत कक्षाओं का होता है। यद्यपि इसमें भी ऐसे हजारों विद्यार्थी होंगे, जिनके पास कम्प्यूटर या स्मार्ट फोन या इंटरनेट की सुविधा नहीं होगी। फिर भी यह मानकर कि 75 प्रतिशत से अधिक विद्यार्थी इंटरनेट का प्रयोग करते हैं, उच्च शिक्षा में इस वर्ष ऑनलाइन टीचिंग ही की जाना चाहिए।
अपने बच्चों और युवापीढ़ी की रक्षा करना हम सब की जिम्मेदारी है। आशा है कि जिम्मेदार निर्णयकर्ता इस दृष्टिकोण से भी विचार करेंगे।
(लेखक श्री क्लॉथ मार्केट कन्या वाणिज्य महाविद्यालय, इंदौर के प्राचार्य हैं, उन्होंने अपनी बात पत्र के रूप में लिखी है, उनका यह पत्र हमने सोशल मीडिया से साभार लिया है।)
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