मतदाताओं में पछतावे का भाव न पनपने दें

मुझे पता नहीं कि इस किस्‍से को सुनने वाले इसे किस रूप में लेंगे, लेकिन मुझे लगता है कि इसे शेयर जरूर करना चाहिए। हम पत्रकार अपने आसपास होने वाली घटनाओं से बहुत कुछ ग्रहण करते हैं। कई बार घटनाएं हमारी धारणाओं को बनाती हैं तो कई बार बिगाड़ती भी हैं। इस बनने-बिगड़ने की प्रक्रिया में अकसर ऐसा होता है कि हमें घटना का वह पक्ष भी जानने को मिलता है जिसे हम या तो देख नहीं पाते या फिर अपनी पूर्वधारणाओं के हावी होने के चलते उसे नजरअंदाज कर देते हैं।

शुक्रवार को मैं अपनी गाड़ी ठीक करवाने गया था। वहां मुझसे पहले कुछ गाडि़यां ठीक होने आ चुकी थीं इसलिए सर्विस सेंटर वालों ने कहा आप बैठिये, एक दो घंटे लग सकते हैं। इस तरह अपनी बारी का इंतजार करने वालों के लिए वहां अलग से कक्ष बना था जिसमें टीवी भी लगा हुआ था। मैं वहां जाकर बैठ गया। मुझसे पहले आए कुछ और लोग भी वहां बैठे हुए थे, शायद अपनी गाड़ी ठीक होने के इंतजार में।

टीवी पर एक न्‍यूज चैनल चल रहा था और संयोग से उसमें लोकसभा का वह सीधा प्रसारण आ रहा था जिसमें भोपाल की सांसद प्रज्ञासिंह ठाकुर, नाथूराम गोडसे को लेकर की गई अपनी विवादास्‍पद टिप्‍पणी को लेकर बयान दे रही थीं। उनका बयान पूरा हो पाता इससे पहले ही सदन में हंगामा होने लगा। जब टीवी का शोर बढ़ा तो आसपास बैठे लोगों में से एक ने, जो अब तक वहां रखे अखबार पढ़ रहा था, टीवी की ओर देखते हुए पूछा- क्‍यों चिल्‍ला चोट मचा रहे हैं ये लोग…?

उसके सामने वाले सोफे पर बैठे व्‍यक्ति ने जवाब दिया, अरे वही प्रज्ञा वाला मामला है। इस पर सवाल पूछने वाला बोला- ‘’अब खतम करो यार… जो होना था हो गया… कब तक घसीटेंगे इस मामले को… कोई काम धाम नहीं है क्‍या… संसद में बैठकर बस ये ही सब करते रहते हैं…’’ इस पर दूसरे व्‍यक्ति की प्रतिक्रिया आई- ‘’लेकिन इनको भी तो अपना मुंह बंद रखना चाहिए। अरे जनता ने चुनकर सांसद बना दिया, आप संसद में हो, हर बात पर बीच में बोलना जरूरी है क्‍या?’’

दोनों व्‍यक्तियों में इस मुद्दे पर बहुत लंबी बात हुई। इसी दौरान काफी देर से इन दोनों की बातें खामोशी से सुन रहे तीसरे व्‍यक्ति की प्रतिक्रिया आई, वह बोला- ‘’पहले भी इन्‍होंने यही किया था और अब संसद में भी वही कर रही हैं। लगता है गलत चुन लिया…’’

तीनों लोगों की बातचीत बता रही थी कि वे भोपाल के ही बाशिंदे थे, उसी भोपाल के जहां से प्रज्ञासिंह ठाकुर सांसद हैं। मैं चुपचाप उनकी बातें सुनता रहा। वहां और भी बहुत सी बातें कही गईं। जिनका लब्‍बोलुआब यह था कि प्रज्ञासिंह ठाकुर को आखिर हर बार ऐसी बातें बोलने की जरूरत क्‍या है? क्‍या उन्‍होंने चुप रहना नहीं सीखा? लेकिन तीसरे व्‍यक्ति का एक वाक्‍य मेरे दिमाग में बहुत देर तक गूंजता रहा, जिसने कहा था- ‘’लगता है गलत चुन लिया…’’ इस कमेंट से यह भी संकेत मिल रहा था कि संभवत: वह भाजपा का वोटर है।

जैसाकि मैंने पहले ही कहा, मुझे नहीं मालूम कि इस किस्‍से को कौन किस रूप में लेगा, लेकिन मुझे लगता है भारतीय जनता पार्टी को यदि सचमुच अपनी भलाई चाहिए तो उसे ऐसे नेताओं की जबानों पर लगाम कसनी ही होगी। इन दिनों तमाम तरह के सर्वेक्षणों का चलन है, ऐसे में यदि मैं मेरे सामने घटी इस घटना को एक छोटा मोटा सर्वेक्षण मान लूं तो प्रज्ञासिंह के अपने संसदीय क्षेत्र के तीन में से तीनों यानी शत प्रतिशत लोग इस बात पर करीब करीब सहमत थे कि प्रज्ञा ठाकुर को आखिर ऐसी बातें बोलने की जरूरत क्‍या है?

क्‍या लोगों के ये मनोभाव भाजपा पढ़ पा रही है? हो सकता है इस किस्‍से को बहुत मामूली मानकर खारिज कर दिया जाए, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए किसी भी पहाड़ के दरकने में एक छोटे से पत्‍थर का खिसकना भी बहुत बड़ा कारण बन सकता है। लोक में बनने वाली ऐसी छोटी छोटी धारणाओं का समूहन, सत्‍ता के सिंहासन को धराशायी करने का कारण बन सकता है।

लोकतंत्र में जनता जब अपना उम्‍मीदवार चुनती है तो उसके पीछे हरेक के अलग अलग कारण होते हैं। आमतौर पर व्‍यक्ति या तो अपने चुने हुए प्रत्‍याशी की आलोचना या निंदा करके अपनी भड़ास निकाल लेता है या फिर वह सिस्‍टम को कोस लेता है। लेकिन सबसे खतरनाक स्थिति वह होती है जब वह इस स्थिति के लिए खुद को ही जिम्‍मेदार मानने का अहसास करने लगता है। इसीलिए तीसरे व्‍यक्ति का यह कहना मैं ज्‍यादा गंभीर मानता हूं कि- ‘’लगता है गलत चुन लिया…’’

गलती यदि दूसरे की हो तो उससे प्रभावित होने के बावजूद व्‍यक्ति के मन में यह भाव होता है कि यह काम उसने नहीं किया। वह गलती करने वाले को कोस सकता है, उसे उपदेश या नसीहत दे सकता है। लेकिन जब वह यह मानने लगे कि दूसरे ने जो गलती की है उसके लिए वह खुद जिम्‍मेदार है तो फिर वह अगली बार अपनी उस गलती को दोहराता नहीं।

प्रज्ञा ठाकुर का बार बार इस तरह की बातें करना और विवादों को जनम देना, कहीं भोपाल के मतदाताओं में ऐसी धारणा न बना दे कि उन्‍हें चुनकर उनसे कोई गलती हो गई। भाजपा के लिए यह चिंता की बात होनी चाहिए कि लोग ऐसी गलती हो जाने की बात या उसका अहसास करने लगे हैं। लोगों में बनने वाला इस तरह का भाव किसी भी पार्टी के लिए बहुत खतरनाक संकेत है।

भाजपा कह सकती है कि प्रज्ञा ठाकुर ने अपने बयान के लिए माफी मांग ली है। लेकिन ऐसी माफी तो वे पहले भी कई बार मांग चुकी हैं। सवाल यह है कि क्‍या भाजपा अपने एक सांसद को इस तरह हर बार पार्टी की छीछालेदर करवाने और फिर माफी की लीपापोती करने का अवसर प्रदान करती रहेगी या फिर इस समस्‍या का कोई स्‍थायी निदान भी खोजेगी?

जो कुछ हो रहा है वह एक वायरस की तरह है। मतदाताओं में धारणाओं का यह वायरस बहुत तेजी से फैलता है। चुनाव भले ही अभी काफी दूर हों लेकिन कभी न कभी तो वे होंगे ही ना… ऐसे में यह भाव यदि लोगों के मन में बना रहा कि भाजपा प्रत्‍याशी को चुनकर उनसे कोई गलती हो गई तो याद रखिये राजनीति में आपकी लुटिया डूबने से कोई नहीं बचा सकता।

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