देश में आपको कई सरकारी और सार्वजनिक इमारतें ऐसी मिल जाएंगी जहां सीढि़यों और गलियारों के कोने पान या तंबाकू की पीक से रंगे हुए हों। हालांकि सरकार ने स्वच्छ भारत अभियान चलाया हुआ है और देश में स्वच्छ शहरों के बीच एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा विकसित करने के भी प्रयास हो रहे हैं, लेकिन उसके बावजूद सरकारी या सार्वजनिक इमारतों में पीक की पच्चीकारी बदस्तूर जारी है।
लोगों की इस आदत को रोकने और भवनों एवं सार्वजनिक स्थलों को स्वच्छ रखने के लिए तरह-तरह के प्रयोग भी हुए हैं। ऐसा ही एक प्रयोग कई साल पहले हुआ था जब कुछ लोगों ने पीक का ठिया बन चुके कोनों, दीवारों और सीढि़यों के किनारों को बदरंग होने से बचाने के लिए एक अनूठा उपाय किया। उन्होंने उन जगहों पर देवी देवताओं के चित्र वाली टाइल्स लगवा दी। मंशा यह थी कि देवी देवताओं के चित्र को देखकर लोग कम से कम उस पर तो नहीं थूकेंगे और इस तरह दीवारें पीकदान बनने से बच जाएंगी। पर यह तरीका भी कुछ खास काम नहीं आया, जिन्हें थूकना था वे बदस्तूर थूकते रहे, बस इतना हुआ कि उन्होंने थूकने की जगह बदल दी।
यह घटना आज मुझे स्वच्छता अभियान या कोरोना वायरस के कारण याद नहीं आई। इसके याद आने का कारण देश में हो रहे वे घटनाक्रम हैं जिनमें राष्ट्रीय प्रतीकों और महापुरुषों को ठीक उसी तरह इस्तेमाल किया जा रहा है जिस तरह ऊपर बताई गई घटना में देवी देवताओं के चित्रों को लोगों की पीक से दीवारों को बचाने के लिए इस्तेमाल किया गया। इन दिनों चाहे वह भारत का संविधान हो या फिर राष्ट्रीय ध्वज, चाहे वे महात्मा गांधी हों या फिर भारत माता इन सभी को अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ ऐसी ही टाइल्स की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है।
देश में एक अजीब तरह का माहौल है। यहां राष्ट्रगीत या फिर जय श्रीराम के नारे राष्ट्रभक्ति अथवा श्रद्धाभाव के चलते नहीं लगाए जा रहे। वे लक्षित लोगों पर हमला करने या अपनी गैर कानूनी गतिविधि को ढांकने अथवा उसका औचित्य सिद्ध करने के लिए इस्तेमाल किए जा रहे हैं। और इसमें सबसे ज्यादा इस्तेमाल गांधी, संविधान और तिरंगे का हो रहा है। कहने को हर कोई गांधी का गुणगान कर रहा है, संविधान की सर्वोच्चता बता रहा है या फिर तिरंगे के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त कर रहा है, लेकिन असलियत में वह ऐसा कुछ नहीं कर रहा, वह बस इन प्रतीकों को अपने लिए इस्तेमाल कर रहा है ताकि दूसरों की पीक उसके कपड़ों पर न गिरे।
सबसे ताजा उदाहरण भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद का है। चंद्रशेखर आजाद पहले रावण उपनाम से जाने जाते थे लेकिन बाद में उन्होंने रावण नाम से परहेज करना शुरू कर दिया। इन्हीं चंद्रशेखर ने 18 फरवरी को बॉम्बे हाईकोर्ट में याचिका लगाई थी कि उन्हें नागपुर के रेशम बाग में एक रैली आयोजित करने की इजाजत दी जाए। आप पूछेंगे कि इसमें ऐसी कौनसी खास बात है, तो खास बात यह है कि नागपुर के रेशम बाग इलाके में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का मुख्यालय भी है और इसी इलाके के मैदान में संघ हर साल अपना कार्यक्रम आयोजित करता है। यही वजह थी कि चंद्रशेखर को स्थानीय प्रशासन ने पहले रैली करने की इजाजत नहीं दी और उन्हें इसके लिए कोर्ट तक जाना पड़ा।
शुक्रवार को खबर आई कि बॉम्बे उच्च न्यायालय की नागपुर पीठ ने चंद्रशेखर को 22 फरवरी को रेशमबाग में अपने कार्यकर्ताओं के साथ कार्यक्रम करने की इजाजत दे ही है। न्यायमूर्ति सुनील बी. शुक्रे और माधव जे. जामदार की पीठ ने कहा कि उन्हें शर्तों के साथ इजाजत दी जा सकती है। शर्त ये कि इसे सार्वजनिक प्रदर्शन या सार्वजनिक विरोध में परिवर्तित नहीं किया जाएगा और भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर आजाद को लिखित में देना होगा कि वे शर्तों का पालन करेंगे।
अदालत ने आदेश में कहा, ‘’बैठक में भाग लेने वाले किसी भी व्यक्ति द्वारा कोई भी भड़काऊ या ऐसा कोई भी भाषण नहीं दिया जाएगा जो हिंसा को उकसाए या नागरिकों के बीच नफरत फैलाए या सांप्रदायिक दुर्भावना पैदा करे या जो नागरिकों और राष्ट्र की गरिमा और प्रतिष्ठा को कम करे या भारत अथवा सार्वजनिक व्यवस्था की संप्रभुता और अखंडता को प्रभावित करे।’ अदालत ने कहा कि कार्यकर्ता रैली का किसी भी राजनीतिक उद्देश्य के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाएगा।
स्पष्ट है कि अदालत को भी कहीं न कहीं यह आशंका रही होगी कि इस रैली का मूल उद्देश्य उसके घोषित उद्देश्य से अलग है। यदि ऐसा नहीं होता तो अदालत इतनी सारी शर्तें क्यों लगाती और चंद्रशेखर को क्यों कहती कि ’रैली शुरू होने से पहले याचिकाकर्ता और मुख्य वक्ता चंद्रशेखर आजाद लिखित में देंगे कि वे इस अदालत के रजिस्ट्रार के जरिए अदालत की उपर्युक्त शर्तों का पालन सुनिश्चित करेंगे।’
लेकिन ऐसा लगता है कि चंद्रशेखर ने अदालत की मंशा की अनदेखी करते हुए आयोजन से पहले अपने इरादे स्पष्ट कर दिए हैं। उन्होंने शुक्रवार को ट्वीट किया- ‘’मैं कल 2 बजे रेशमबाग नागपुर आ रहा हूँ। फर्जी राष्ट्रवादियों का संगठन आरएसएस जिसने आज तक तिरंगे को सम्मान नही दिया कल हम उनके हेडक्वार्टर के सामने तिरंगा फहराएंगे। मैं चाहूंगा कि कल सभी साथी रेशमबाग तिरंगा लेकर पहुंचे और बता दें कि इनके भगवे पर हमारा तिरंगा भारी है।‘’
यह ट्वीट ही बताता है कि मकसद तिरंगे का सम्मान करना या उसके प्रति आदरभाव प्रदर्शित करना नहीं बल्कि उसे एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना है। और यह बात केवल चंद्रशेखर या उनकी भीम आर्मी के संदर्भ में हो ऐसा भी नहीं है। उनका जिक्र तो इसलिए हुआ क्योंकि यह सबसे ताजा प्रसंग है, वरना तो आप पिछले कुछ दिनों के घटनाक्रम उठाकर देख लीजिए चाहे जय श्रीराम के नारे हों या वंदे मातरम के, भारत माता की जय हो या फिर संविधान की प्रस्तावना का प्रदर्शन ये सब के सब सिर्फ और सिर्फ एक दूसरे पर प्रहार करने, एक दूसरे को लहूलुहान करने के लिए ही इस्तेमाल किए जा रहे हैं।
हमने इन राष्ट्रीय प्रतीकों और महापुरुषों को राजनीति के कुरुक्षेत्र में शिखंडी बनाकर खड़ा कर दिया है। इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है कि शांति का संदेश देने वाले गांधी आज अशांति पैदा करने वालों की हरकतों को जायज ठहराने का जरिया बन गए हैं। गांधी ने सोचा भी नहीं होगा कि उनकी ‘अहिंसा’ एक दिन उनके ही भारत में अलग तरह की ‘हिंसा’ का माध्यम बन जाएगी…