क्या कमाल का देश है, क्या कमाल का लोकतंत्र है, क्या कमाल की राजनीति है और क्या कमाल का चुनाव है… इस चुनाव में ऊपर उठने की बात तो भूल जाइए, पर नीचे गिरने के इतने सारे रंग देखने को मिल रहे हैं कि पूछिये मत। और सिर्फ गिरने के ही नहीं, कई लोग तो इस मामले में गहरे और भी गहरे गड़ जाने की हद तक घटियापन में धंसे चले जा रहे हैं।
मुझे लगता है कि भारत का वास्तविक सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अध्ययन यदि करना हो तो उसके लिए चुनाव का समय सबसे उपयुक्त है। आदमी के और समाज के ऐसे-ऐसे रंग और ऐसे-ऐसे चेहरे देखने को मिलते हैं कि आप दंग रह जाएं। जो बात आपके खानदान तक को पता न हो और कई बार तो शायद आपको भी पता न हो, वो चुनाव में आपके या लोगों के सामने ऐसे उघाड़कर रख दी जाती है कि न उगलते बने न निगलते।
पिछले दिनों चुनाव में हम उघाड़ने पर आए तो अंडरवियर के रंग तक पहुंच गए थे। पता नहीं इस देश को और क्या-क्या दिन देखने बाकी हैं कि लोगों की बुनियादी जरूरतों के बजाय ऐसे-ऐसे विषय ढूंढ कर लाए जा रहे हैं जिनका न तो रोजगार से कोई लेना देना है और न ही शिक्षा या स्वास्थ्य से, न पीने के पानी से लेना देना है और न ही समय पर मिल सकने वाले सस्ते और बेहतर इलाज से…
चुनावी राजनीति का नया सबब बुर्का है। बुधवार को शिवसेना के मुखपत्र सामना में एक संपादकीय छपा जिसका शीर्षक है- ‘’प्रधानमंत्री मोदी से सवाल, रावण की लंका में हुआ, राम की अयोध्या में कब होगा?’’ जो लोग सिर्फ इस शीर्षक को पढ़ेंगे, उन्हें यह भ्रम हो सकता है कि चूंकि इसमें राम, अयोध्या, रावण और लंका का जिक्र हुआ है, इसलिए जरूर यह राम मंदिर से जुड़ा कोई मुद्दा होगा, लेकिन ऐसा नहीं है। आप संपादकीय को पूरा पढ़ें तो पता चलेगा कि सामना ने मुस्लिम महिलाओं द्वारा पहने जाने वाले बुर्के पर प्रतिबंध की मांग उठाई है।
सामना ने लिखा है- ‘’श्रीलंका में भीषण विस्फोट हुआ है मगर उसके झटके हिंदुस्थान को भी लगे हैं। पड़ोसी धर्म तो है ही लेकिन श्रीलंका से हमारा धार्मिक और भावनात्मक रिश्ता भी है। सरकारी आंकड़े जो भी हों फिर भी कोलंबो की बम विस्फोट शृंखला में 500 से अधिक मासूमों की बलि चढ़ी है। लिट्टे के आतंकवाद से मुक्त हुआ यह देश अब इस्लामी आतंकवाद की बलि चढ़ा है।‘’
‘’हिंदुस्थान, विशेषत: हिंदुस्थान का जम्मू और कश्मीर प्रांत उसी इस्लामी आतंकवाद से त्रस्त और जर्जर है। सवाल इतना ही है कि श्रीलंका, फ्रांस, न्यूजीलैंड और ब्रिटेन जैसे राष्ट्र जिस तरह सख्त कदम उठाते हैं, उस तरह के कदम हम कब उठानेवाले हैं? मौजूदा सरकार ने ‘ट्रिपल तलाक’ के खिलाफ कानून बनाकर पीड़ित मुस्लिम महिलाओं का शोषण आदि रोक दिया है, यह स्वीकार है, लेकिन भीषण बम विस्फोट के बाद श्रीलंका में बुर्का और नकाब सहित चेहरा ढंकनेवाली हर चीज पर प्रतिबंध लगा दिया गया है।‘’
‘’राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए यह निर्णय लिया गया है, ऐसा राष्ट्रपति मैत्रिपाल सिरिसेना ने घोषित किया है। हम इस निर्णय का स्वागत कर रहे हैं और प्रधानमंत्री मोदी को भी श्रीलंका के राष्ट्रपति के कदमों पर कदम रखते हुए हिंदुस्थान में भी ‘बुर्का’ और उसी तरह ‘नकाब’ बंदी करें, ऐसी मांग राष्ट्रहित के लिए कर रहे हैं।‘’
जैसे ही सामना का यह संपादकीय सामने आया, देश की चुनावी राजनीति तुरंत इसके इर्दगिर्द इकट्ठी हो गई। मीडिया को मसाला मिला और राजनेताओं से सवाल पूछे जाने लगे। सबने अपने अपने चुनावी नफे नुकसान को ध्यान में रखते हुए जवाब दिए। जैसे भाजपा के प्रवक्ता जीवीएल नरसिंहराव ने इस मांग को खारिज करते हुए कहा कि इस तरह के बैन की भारत में कोई जरूरत नहीं है।
लेकिन भोपाल से भाजपा की प्रत्याशी प्रज्ञा ठाकुर ने इस मांग का एक तरह से समर्थन करते हुए कहा कि देश की सुरक्षा का जहां सवाल उठता है, वहां कोई भी परंपरा का दुरुपयोग न कर पाए, इस तरह का फैसला लोगों को खुद ले लेना चाहिए। एयरपोर्ट पर बुर्का पहनने वाली औरतों को सुरक्षा कारणों से अपना बुर्का हटाना ही पड़ता है, क्योंकि यह देश की सुरक्षा से जुड़ा मामला है।
उधर केंद्रीय मंत्री और बेगूसराय से भाजपा प्रत्याशी गिरिराज सिंह ने दो कदम और आगे जाते हुए कहा कि बुर्के में रहकर मतदान करने पर रोक लगनी चाहिए, क्योंकि बुर्के की आड़ में बोगस वोटिंग होती है। बुर्के की आड़ में ही श्रीलंका में धमाका हुआ जिसमें सैकड़ों लोगों की जान चली गई।
केंद्र में भाजपा की सहयोगी आरपीआई(आठवले) के नेता और मंत्री रामदास आठवले ने बुर्के पर प्रतिबंध का विरोध किया, उन्होंने कहा- शिवसेना की यह मांग गलत है। हर बुर्का पहनने वाली महिला आतंकवादी नहीं होती, यह उनकी पारंपरिक पोशाक है। उनका हक है, वे इसे पहन सकती हैं। ऐसा लगता है कि वे आतंकी हैं तो उनका बुर्का हटाया जा सकता है।
और जब बात निकली तो बहुत दूर तक चली गई। मुस्लिम समाज से जुड़ी बात हो और एआईएमआईएम नेता असदुद्दीन आवैसी चुप रहें ऐसा कभी हो सकता है भला… सो उन्होंने चिमटी काटते हुए बयान दिया कि बुर्का बैन पर बात करने वालों को पता होना चाहिए कि यह हर किसी का मौलिक अधिकार है। और बुर्के की ही बात है तो फिर वे (शिवसेना) घूंघट हटाने के बारे में क्या कहेंगे?
विवाद बढ़ा तो शिवसेना की ओर से सफाई दी गई कि सामना का संपादकीय पार्टी का आधिकारिक बयान नहीं है। यानी भाजपा और शिवसेना ने पार्टी के तौर पर सामना के संपादकीय से खुद को अलग दिखाने की कोशिश की है। पर इस मुद्दे ने चुनाव के दौरान एक सांप्रदायिक रग को तो छेड़ ही दिया। और संभवत: मकसद भी यही रहा होगा।
बुर्का पहना जाए या नहीं, इसका फैसला बेहतर होगा मुस्लिम महिलाओं पर ही छोड़ दिया जाए। राजनीतिक पार्टिंयां ऐसी मांग करें, या इस पर फैसला करें, वो ठीक नहीं है। दूसरे नजरिये से देखें तो यह सिर्फ सुरक्षा से नहीं, महिला आजादी से जुड़ा मामला भी है। जिस तरह तीन तलाक को लेकर खुद मुस्लिम महिलाओं ने आगे आकर बात रखी, वैसे ही यदि उन्हें लगता है कि बुर्का भी उनकी आजादी में खलल या मौलिक अधिकारों का हनन है तो अच्छा होगा कि यह बात वे खुद ही कहें और उसके लिए कदम उठाएं। इसके लिए राजनीतिक लठ चलाना ठीक नहीं…