जीवन संवाद
दयाशंकर मिश्र
हमारे आसपास इस समय तरह-तरह के संकट तैर रहे हैं। आर्थिक-मानसिक और इन सबसे बढ़कर स्वयं के प्रति दुविधा। अपने होने पर संदेह। अपनी काबिलियत पर तरह-तरह के प्रश्न हम स्वयं ही करने लगते हैं। इसके कारण हमारे मन में अनिश्चितता, संशय के बादल गहरे होने लगते हैं। इसका असर यह होता है कि हम अपने होने पर सवाल खड़े करने लगते है। एक छोटी-सी कहानी इस बारे में आपसे कहता हूं। संभव है, इससे मेरी बात अधिक स्पष्टता से आप तक पहुंच सके।
एक बार एक व्यक्ति अपने होने पर बहुत अधिक दुविधा से घिर गया। उसके भीतर तक यह बात घर कर गई कि उसके होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। बहुत दिनों तक परेशान रहने के बाद किसी ने उसे महात्मा बुद्ध के पास जाने की सलाह दी। वह बुद्ध के पास पहुंचा। उनसे निवेदन किया, ‘मैं किसी काम का नहीं हूं। संसार को मेरी कोई जरूरत नहीं। मेरा कोई मूल्य नहीं। कुछ ऐसा कीजिए, जिससे मैं अपने होने को महसूस कर सकूं। अभी तो ऐसा लगता है कि मेरे होने से दुनिया को कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं अपनी कीमत खो चुका हूं।’
महात्मा ने उसे प्यार से अपने पास बुलाया और एक चमकदार पत्थर (जो असल में कीमती रूबी रत्न था) देते हुए कहा, ‘इसे किसी को बेचना नहीं। बस चार अलग-अलग तरह के लोगों से इसकी कीमत पूछकर आओ। किसी भी हालत में इसे किसी को देना नहीं!’ उसने ऐसा ही करने का भरोसा दिया। उस व्यक्ति को कुछ दूरी पर ही एक सब्जी वाला मिला। उसने अपनी हथेली पर चमकदार पत्थर रखते हुए, सब्जी वाले से कहा कि इसका मूल्य बताओ। उसने कहा, ‘मुझे इसकी कीमत तो नहीं पता, लेकिन चमक रहा है, तो कुछ काम आ सकता है। तुम इसके बदले में पांच किग्रा मनचाही सब्जियां ले लो।’
जब उस व्यक्ति ने ऐसा करने से मना कर दिया, तो उसने कुछ और सब्जियां देने का प्रस्ताव किया। लेकिन दूसरे का उद्देश्य तो कीमत पता करना था। आगे चलकर उसे अनाज का व्यापारी मिला। उसने बदले में एक बोरी गेहूं की पेशकश कर दी। क्योंकि उसे लगा यह अवश्य कोई कीमती पत्थर है। कुछ दूर और जाने पर उसे एक थोड़े पढ़े-लिखे सज्जन दिखे। उनके सामने भी जब यही प्रस्ताव रखा गया, तो उन्होंने कहा, मैं इसके बदले सौ स्वर्ण मुद्राएं दे सकता हूं!
कीमत पता करने निकले व्यक्ति को लगा कि अब और अधिक लोगों से पूछने का अर्थ नहीं। इसका मूल्य किसी जौहरी से पूछना चाहिए। वह सीधे जौहरी की दुकान पर गया। पारखी जौहरी देखते ही समझ गया कि यह कीमती रूबी रत्न है, लेकिन उसने सोचा कहीं ऐसा न हो कि इसे लालच आ जाए। इसलिए उसने उसकी कीमत दस हजार रुपये बताई। कीमत सुनकर वह जाने को हुआ तो व्यापारी को लगा अच्छा सौदा हाथ से निकल जाएगा। उसने दो गुना दाम बता दिया।
उसके बाद भी जब उसने कहा कि वह तो केवल कीमत पूछने आया था, तो व्यापारी उसके सामने जाकर खड़ा हो गया और उससे कहा, ‘तुम इसकी मुंहमांगी कीमत मुझसे ले लो, क्योंकि यह तुम्हारे काम का नहीं है। यह मेरे काम का है।’ कीमत पूछने निकले व्यक्ति ने किसी तरह उससे पीछा छुड़ाया!
बुद्ध के पास पहुंचकर उसने सारा किस्सा सुनाया। बुद्ध ने मुस्कराते हुए कहा, ‘ठीक इस रत्न की तरह ही मनुष्य की कीमत है। जिसे लोग अपनी समझ, जरूरत और अवसर के अनुरूप तय करते हैं। यह तय करते हुए असल में हमारी कीमत कम और उनकी जरूरत अधिक होती है। जो ऐसा नहीं करते, असल में वही सच्चा प्रेम रखते हैं। इसलिए, दूसरों के मूल्यांकन से दुखी नहीं होना है। अपने होने का एहसास दूसरों से अधिक खुद के भीतर सहेजना होगा। ऐसा न होने पर हम हर किसी को खुद को दुखी करने का अवसर देते रहेंगे!’
इस कहानी को जीवन से जोड़कर देखें, तो हम पाते हैं कि इसके किरदार जरूर बदल गए, लेकिन संकट जस का तस है। जैसे ही हमारे बीच किसी की अच्छी नौकरी लगती है। हमारे लिए उसका मूल्य बदल जाता है। जैसे ही उसकी नौकरी छूटी, हम तुरंत कीमत घटाने लग जाते हैं। जितना संभव हो ऐसा करने से बचें। संबंधों में प्रेम, करुणा को स्थायी भाव दें। जब तक हम अपने मूल्य से परिचित नहीं होंगे, अपने होने को हासिल करना बहुत मुश्किल होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, यह आलेख उनकी विचार श्रृंखला जीवन संवाद से साभार)
इसी कहानी को गुरुनानक देव की भी पढ़ा है अब सच कहाँ है, ये तलाशना होगा शायद।