भ्रष्‍टाचार का ‘डोलो’ संस्करण

राकेश अचल

देश में भ्रष्‍टाचार के खिलाफ मुहिम का आव्हान करने वाले प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के लिए अवसर है कि वे भ्रष्टाचार के डोलो संस्करण से ही अपनी मुहिम का आगाज करें। डोलो एक साधारण सी दर्द निवारक दवा है जिसका कोरोना काल में जमकर इस्तेमाल किया गया। इस दवा की खपत बढ़ाने के लिए दवा निर्माताओं ने डाक्टरों को 1 हजार करोड़ के तोहफे और रिश्वत बाँट दी। अब मामला देश की सबसे बड़ी अदालत में है।

आप मानें या न मानें लेकिन दिया तले अन्धेरा तो हमेशा से रहता आया है। नेहरू और शास्त्री जी के जमाने का तो हमें पता नहीं किन्तु श्रीमती इंदिरा गाँधी के जमाने से लेकर माननीय नरेंद्र मोदी जी के जमाने तक एक भी दिया ऐसा नहीं जला जिसके नीचे अन्धेरा न हो। ‘ डोलो’ के प्रति हमारी श्रीमती जी भी बेहद आसक्‍त हैं। उनका फिजियशियन कुछ भी हो उन्हें दिन में तीन बार डोलो खाने के निर्देश जरूर देता है।

श्रीमती जी ही क्या देश की अधिकांश जनता आज भी डॉक्‍टर को अपना भगवान मानती है और वे जो दवा लिख देते हैं उसे देवाज्ञा समझकर बिना कोई सवाल किये खा लेती है। सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका में दावा किया गया है कि फार्मा कंपनी ने बुखार की दवा डोलो 650 एमजी मरीजों को सुझाने के लिए देश भर में डॉक्टरों को 1000 करोड़ रुपये के मुफ्त उपहार बांटे हैं। इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से 7 दिन में जवाब मांगा है।

गनीमत ये है कि अभी भी देश में सरकार से अदालतें जवाब मांग सकती हैं। जनता से, विपक्ष से जवाब मांगने का अधिकार कभी का छीना जा चुका है। सरकार अदालत को क्या जवाब देगी, क्या नहीं ये सात दिन बाद पता चलेगा। लेकिन आज ये पता चल चुका है कि भ्रष्‍टाचार की पहुँच कहाँ तक हो गयी है? फेडरेशन ऑफ मेडिकल एंड सेल्स रिप्रेजेंटेटिव एसोसिएशन ऑफ इंडिया की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता संजय पारिख ने सुप्रीम कोर्ट की बेंच के समक्ष बड़े दावे किए। पारिख ने अपनी जानकारी के सोर्स के रूप में केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड की एक रिपोर्ट का हवाला दिया।

इस मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने की। चंद्रचूड हाल ही में कोरोना संक्रमित हुए थे। उन्होंने सुनवाई के दौरान टिप्पणी की- ‘जो आप कह रहे हैं वो मुझे सुनने में अच्छा नहीं लग रहा। ये वही दवाई है,  जिसका कोविड के दौरान मैंने खुद इस्तेमाल किया। मुझे भी इसका इस्तेमाल करने के लिए बोला गया था। यानि रिश्वत के दम पर दवा निर्माता देश के आम आदमी के साथ देश के सबसे बड़े कोर्ट के अधिपति को भी ठगने में कामयाब रहे।

इस देश में भगवान को धोखा देने वाले लोग रहते हैं, वे इंसान को कैसे छोड़ सकते हैं भला? याचिका में कहा गया कि यूनिफॉर्म कोड ऑफ फार्मास्युटिकल मार्केटिंग प्रैक्टिसेज बनाए जाने की जरूरत है। कानून ना होने की वजह से मरीजों को ब्रांडेड कंपनियों की बहुत ज्यादा कीमत वाली दवाई खरीदनी पड़ती हैं। क्योंकि डॉक्टर अक्सर महंगे गिफ्ट के चक्कर में मरीजों को वही दवाएं पर्चे पर लिखते हैं।

एक जमाने में मैं खुद कम्पाउंडर था, उस जमाने में डॉक्टरों में रिश्वत लेकर दवाएं लिखने की लत नहीं थी। हमारे डॉक्‍टर सबसे सस्ती दवाओं का कम्पाउंड बनाकर मरीज को देते थे। बाजार से बहुत जरूरी होने पर ही दवा लिखते थे, लेकिन अब हालात बदल चुके हैं। अब डॉक्टर मरीज को जरूरत के बिना ही दवा लिखते हैं।

दुर्भाग्य की बात है कि ‘भ्रष्टाचार के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन’ के हस्ताक्षरकर्ता होने के बावजूद भारत में फार्मास्युटिकल मार्केटिंग प्रथाओं में भ्रष्टाचार अनियंत्रित है। मौजूदा नियमों के मुताबिक 500 एमजी के लिए दवा मूल्य निर्धारण प्राधिकरण द्वारा रेट तय किए जाते हैं। लेकिन जब आप इसे 650 मिलीग्राम तक बढ़ाते हैं तो ये रेट बेतहाशा बढ़ जाते हैं।  इसलिए इसे इतना बढ़ावा दिया जा रहा है। ये मुफ्त का एक उदाहरण था। अनेक एंटीबायोटिक्स हैं बाजार में जिन्हें अलग-अलग तरीकों से प्रचारित किया जा रहा है, भले ही उनकी जरूरत न हो। दवा निर्माण को नियंत्रित करने के लिए एक वैधानिक ढांचा होना चाहिए।

आपको बता दूँ कि वर्ष 2020 में ही भारत का दवा बाजार दुनिया के शीर्ष पांच बाजारों में शामिल हो चुका है। घरेलू मांग बढ़ने और उपभोक्ता का दवा खर्च बढ़ने से देश का दवा बाजार 2020 में ही दुनिया के पांच सबसे बड़े बाजारों में शुमार हो गया। आईएमसी के संस्थापक और प्रधान परामर्शदाता एजाज मोतीवाला ने कहा कि अगले पांच साल में दुनिया के दवा कारोबार में सात से आठ फीसद की बढ़ोतरी होने की उम्मीद है,  एक अनुमान के अनुसार देश में दवा कारोबार 1700 अरब डॉलर कि आसपास है। ये सब तब है जब हम हिंदुस्तानी दवा खरीदने के मामले में बड़े ही कृपण हैं। हम लोग अपनी आमदनी का मात्र एक प्रतिशत ही दवाओं पर खर्च करते हैं।

तो आइये दूसरे तमाम मुद्दों को छोड़कर दवाओं के नाम पर खुलेआम हो रही इस लूट-खसोट के खिलाफ जन आंदोलन शुरू कीजिये। चुनावी घोषणा पत्रों में इस मुद्दे को शामिल कराइये। जो डॉक्टर बिना जरूरत दवाएं लिख रहे हैं, उनका बहिष्कार कीजिये, क्योंकि सरकार से तो ज्यादा उम्मीद की नहीं जा सकती। सरकार तो भ्रष्टाचार की जनक और संरक्षक दोनों है। यदि सरकार ईमानदार हो गयी तो बेईमानों को पलायन नहीं करना पडेगा? इस काले धंधे को रोकने में देश की सबसे बड़ी अदलात भी शायद ही कुछ कर सके। क्योंकि डोलो वालों की तरह पूरा दवा उद्योग देश की सरकार के सिंहासन को डोलने से बचाता आया है।
(मध्‍यमत)
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