कई बार ऐसा होता है कि हम अपनी कमअक्ली के शिकार होकर या अधिकअक्ली के गुरूर में आकर समाज के भीतर चल रही धाराओं को या तो पकड़ नहीं पाते या उन्हें कम करके आंक लेते हैं। ऊपरी तौर पर लगता है कि समाज में परमार्थ की या जवाबदेही की सारी धाराएं सूख गई हैं, लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं है। समाज में अंदर ही अंदर ऐसी कई धाराएं प्रवाहित होती रहती हैं। हम ही उन झिरियों से निकलने वाला पानी ठीक से सहेज नही पाते।
सिंहस्थ में उज्जैन प्रवास के दौरान मैंने अपने अनुभव में आए खाद्य सामग्री के दुरुपयोग के मामलों को कई लोगों से साझा किया। उस पर कई लोगों ने अलग-अलग प्रतिक्रियाएं दी हैं। शाजापुर से मेरे एक पाठक जीतसिंह गंभीर की प्रतिक्रिया ने मुझे इस मुद्दे पर फिर कुछ लिखने को प्रेरित किया। 73 साल के जीतसिंहजी ने अपनी प्रतिक्रिया में खाद्य सामग्री की बरबादी का मामला उठाए जाने का स्वागत करते हुए जानकारी दी कि बोहरा समाज के धर्मगुरु ने पूरे विश्व के बोहरा समुदाय को निर्देश दिया है कि रमजान के दौरान समाज के सभी लोग एक ही तरह का भोजन पकाएं। इसके लिए बाकायदा भोजन का मैन्यू भी समाज के लोगों को वितरित कर दिया गया है। समाज में धर्मगुरु की ऐसी मान्यता है कि उनका कहा पत्थर की लकीर की तरह होता है। धर्मगुरु की यह पहल बहुत सारे व्यंजन बनाने की प्रवृत्ति को खत्म करने और खाद्य सामग्री का अपव्यय रोकने के लिहाज से की गई है।
इस जानकारी ने मुझे साल भर पहले अपने दक्षिण के दौरे की याद दिला दी। दक्षिण के मंदिरों में प्रथा है कि पुरुष वहां केवल अधोवस्त्र (अधिकांश जगहों पर धोती) पहन कर ही जा सकते हैं। बदन का ऊपरी हिस्सा खुला रहता है। मैंने जब एक मंदिर के पुजारी से इसका कारण पूछा तो उसने कहा कि ऐसा ईश्वर के दरबार में सबको बराबर मानने के लिहाज से किया जाता है। वरना मंदिर में दर्शन करने तो अमीर गरीब और हर वर्ग के लोग आते हैं। वहां भी यदि कोई राजसी ठाठबाट वाली वेशभूषा में आएगा तो वह असमानता का या दूसरों के मन में हीनता का भाव पैदा करेगा। देवता के सामने वस्त्र एवं आभूषणों के प्रदर्शन अथवा ऊंच नीच का कोई स्थान नहीं, वहां आपका शरीर ही आपका वस्त्र है, यह सब में बराबरी जगाने वाला भाव है।
इसी सिलसिले में कुछ दिन पहले भोपाल में सिंधी समाज की ओर से लिया गया ऐसा ही एक और फैसला ध्यान में आया। सिंधी पंचायत ने इसके तहत शादी और अन्य शुभ प्रसंगों पर आयोजित भोज में परोसे जाने वाले व्यंजनों की सीमा तय कर दी थी। पंडितों और किन्नरों को दान दक्षिणा देने के बारे में भी कुछ फैसले किए गए थे। इन फैसलों को न मानने वालों पर जुर्माने का प्रावधान भी रखा गया था।
यानी समाज में अलग अलग धाराओं के रूप में तो इस तरह के सोते फूटते रहते हैं। लेकिन दिक्कत यही है कि टुकड़ों टुकड़ों में किए जाने वाले ये प्रयास किसी बड़े अभियान अथवा आंदोलन का हिस्सा नहीं बन पाते। वरना क्या कारण है कि जो फैसला सिंधी या बोहरा समाज कर सकता है, वह अन्य समाज नहीं कर सकते, या कि जो कदम दक्षिण में उठाया जा रहा है, वह उत्तर में नहीं उठाया जा सकता। और चलिए, ऐसा करना अलग-अलग जगह पर संभव न भी हो, तो भी सिंहस्थ या कुंभ जैसे आयोजनों के अवसर पर, जब लाखों की संख्या में लोग जुटते हैं, तब उनके बीच यह संदेश फैलाने का ठोस प्रयास क्यों नहीं होता कि हमें प्राकृतिक संसाधनों की बरबादी को किसी भी कीमत पर रोकना होगा। उज्जैन में मेरे पुराने सहयोगी रहे, पत्रकार संदीप वत्स ने बताया कि सिंहस्थ के दौरान उज्जैन में निकलने वाले ठोस कचरे में से आधा वजन भोजन की जूठन का होता था। यह जानकारी खुद उन्हें सिंहस्थ में ठोस कचरे के निपटान में लगी कंपनी के सूत्रों ने दी थी। यानी धरम-करम करने या पुण्य लाभ लेने आए लोगों ने खाया कम,फैलाया ज्यादा। व्यवस्थापकों ने तो यह सोचकर व्यवस्था की होगी कि अतिथि न भूखा जाए, लेकिन अतिथि को भी तो इस बात का ध्यान रखना चाहिए था कि- मैं भी भूखा ना रहू, अन्न न फेंका जाए…
मुझे बचपन का एक प्रसंग याद आता है। हमारे पड़ोसी परिवार ने बहुत तंगहाली के दिन देखे थे। जब उस परिवार की हालत ठीक हुई, तब भी उसके सदस्यों ने अपनी एक आदत नहीं बदली। वो आदत यह थी कि वे खाना खाने के बाद अपनी थाली में पानी डालते और एक तरह से थाली धोकर वह पानी पी जाते। ऐसा वे किसी कंजूसी के कारण नहीं करते थे, वरन उसके पीछे यही कारण छिपा था कि, अन्न का एक भी दाना व्यर्थ नहीं जाना चाहिए। आज अन्न का दाना तो छोडि़ए, पूरी की पूरी थाली ही कूड़ेदान में चली जाती है। इसे तो हम रोक ही सकते हैं।
गिरीश उपाध्याय