अजय बोकिल
याद करें साल भर पहले का नजारा। कोरोना नामक एक अजनबी और खूंखार वायरस के प्रकोप को लेकर दहशत थी। पहले दौर का लॉक डाउन 21 दिनों बाद यानी 14 अप्रैल को खत्म होने वाला था। देश में कोरोना संक्रमितों की कुल संख्या 11 हजार 439 थी और कोविड 19 से देश भर में हुई कुल मौतों का आंकड़ा 377 था। अब साल भर बाद यानी 13 अप्रैल तक देश में कोरोना संक्रमितों का कुल आंकड़ा 1 करोड़ 35 लाख को पार कर चुका है और मौतों की संख्या 1 लाख 70 हजार से अधिक हो चुकी है। इनमें एक तिहाई मौतें अकेले महाराष्ट्र में हुई हैं।
पहले कोरोना के बारे में हमें ज्यादा कुछ नहीं मालूम था, अब पहले की तुलना में ज्यादा मालूम है। कुछ दवाएं भी पता हैं। कोरोना वैक्सीन भी लगना शुरू हो चुकी हैं, लेकिन दहशत और काल का नंगा नाच भी उसी द्रुत गति से बढ़ रहा है। इतना सब होते हुए भी देश में उन मूढ़ लोगों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है, जो अभी भी आस्था को यमराज से ज्यादा पावरफुल माने हुए हैं। उधर देश में नेताओं का चुनावी उत्साह कोरोना से बेअसर है। गोया चुनावी जंग कोरोना जंग जीतने से ज्यादा अहम है।
बड़ी विचित्र स्थिति है। विचित्र इसलिए कि कोरोना 1 का जोर कम हो जाने पर पूरा देश इस रिलेक्स मूड में आ गया था कि कालरात्रि टल चुकी है। जिन्हें जाना था, वो चले गए। बाकी वक्त हमारा है। लेकिन कोरोना तो रक्तबीज राक्षस का भी बाप निकला है। वह रूप और तेवर बदल-बदल कर आ रहा है और आता रहेगा। कोरोना के इस उत्परिवर्तित स्ट्रेन का बिहेवियर वैज्ञानिक और डॉक्टर अभी ठीक से समझ नहीं पा रहे हैं। सो इलाज के पुराने तरीके अब उतने कारगर सिद्ध नहीं हो रहे हैं।
नया कोरोना स्ट्रेन कमांडो की तेजी से हमला कर फेफड़ों को तहस-नहस करना शुरू कर देता है। फेफड़ों के कितने नुकसान पर कौन सा और कितना इलाज करें, इस पर भी चिकित्सकों में एक राय नहीं बन पा रही है। कहा जा रहा है कि कोरोना के इस स्ट्रेन का पीक तो मई में आएगा। यानी अभी तो यह ट्रेलर ही है। डर यह भी है कि इस वायरस स्ट्रेन की घातकता को जब तक समझेंगे, तब तीसरा नया स्ट्रेन आने की भी पूरी आशंका है, वह कितना घातक होगा, कोई नहीं जानता।
स्थिति वाकई भयावह है। श्मशानों और कब्रिस्तानों में अंतिम संस्कार के इंतजार में लाइनें लंबी होती जा रही हैं। कौन किसका करीबी कब चल बसेगा, कहना मुश्किल है। कोरोना संक्रमण की तुरंत टेस्टिंग हो और रिपोर्ट समय रहते मिल जाए, इसकी कोई गारंटी नहीं है। पॉजिटिव मिले तो अस्पताल में बेड मिले जरूरी नहीं है। बेड मिल भी गया तो समय पर समुचित मात्रा में दवा मिले और दवा मिल भी गई तो प्राण बचाने के लिए तत्काल ऑक्सीजन मिल जाए, ऐसा मान लेना ‘मेडिकल स्वर्ग’ में जीने जैसा है।
कारण यह है कि संक्रमितों की संख्या इतनी तेजी से बढ़ रही है कि तमाम चिकित्सकीय व्यवस्थाएं ध्वस्त होने लगी हैं। यानी कि पंगत सौ की हो और खाने वाले हजार आ जाएं। तमाम डॉक्टर और मेडिकल स्टाफ भी घनचक्कर बन गया है। आखिर कितना दम मारें। आलम यह है कि अब किसी की सामान्य मौत गमजदा करने की जगह राहत देने लगी है। जानकार लगातार चेतावनी दे रहे हैं, लेकिन उन्हें सुनने वाले कम ही हैं।
दिल्ली एम्स के डायरेक्टर डॉ. रणदीप गुलेरिया ने कहा कि कोरोना महामारी फैलाने वाले सार्सकोव-2 का नया स्ट्रेन संक्रमण फैलाने की रफ्तार के लिहाज से पुराने या मूल स्ट्रेन से कहीं ज्यादा खतरनाक है। इसमें यूके, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका वाला कोविड वेरिएंट सबसे ज्यादा खतरनाक है। उन्होंने चेताया कि यदि स्थिति में बदलाव नहीं हुआ तो बढ़ती संक्रमण दर की वजह से हमारे समूचे हेल्थ सिस्टम को इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। एक मरीज पहले की तुलना में दोगुने ज्यादा लोगों को संक्रमित कर रहा है। लिहाजा लोग हर हाल में सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करें।
इधर यह हाल है, उधर देश में धार्मिक और राजनीतिक आयोजनों के उत्साह में कहीं कोई कमी नहीं है। यूपी में कोरोना का प्रकोप फिर तेजी से बढ़ने लगा है, लेकिन कुंभ मेले में श्रद्धालुओं की भीड़ पर कोई नियंत्रण नहीं है। एक तरफ काल महाकाल के पुजारियों को भी नहीं बख्शा रहा, दूसरी तरफ यह भोली आशा कि गंगास्नान कोरोना से बचा लेगा। वही हाल रमजान में इबादत को लेकर भी है। लोग धार्मिक आयोजनों पर ज्यादा से ज्यादा जुटना चाह रहे हैं, जब कि कोरोनासुर इसे ही अपने आंतक का सबसे आसान टारगेट मान कर चल रहा है।
समझदार लोग अपीलें कर रहे हैं कि भई अभी आस्था के सार्वजनिक प्रदर्शन पर काबू रखें। ईश्वर के प्रति श्रद्धा का इजहार घर में रहकर ही करें, लेकिन उन्हें ‘धर्म का दुश्मन’ करार दिया जा रहा है। सबसे क्षुब्धकारी हाल सियासत के मोर्चे पर है। जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए या हो रहे हैं, वहां चुनाव जीतने का जुनून कोरोना की दहशत को भी लील गया लगता है। विधानसभा चुनाव को संवैधानिक बाध्यता मानकर छोड़ भी दें, लेकिन उन उपचुनावों को भी हर हाल में करवाने की कौन सी मजबूरी है, जिनमें हार-जीत से सरकारों की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ने वाला है। अरे, जब जम्मू कश्मीर के विधानसभा चुनाव बरसों टाले जा सकते हैं तो कोरोना काल में उपचुनाव तो स्थगित किए ही जा सकते हैं।
यह बड़ी विरोधाभासी स्थिति है। एक तरफ सोशल डिस्टेसिंग के उपदेश तो दूसरी तरफ चुनाव सभाओं और रैलियों को कामयाब बनाने ज्यादा से ज्यादा भीड़ जुटाने की जिद। इसे आप क्या कहेंगे? हमारा लोकतंत्र प्रेम या फिर कोरोना के क्रूरतंत्र को पीले चावल? मूर्खताएं यहीं तक सीमित नहीं हैं। महाराष्ट्र के जलगांव से खबर आई है कि एक पिंजारे ने फेंके गए मास्क इकट्ठाकर उन्हें खोल में भर कर सस्ती रजाइयां बनाने का धंधा शुरू कर दिया था। उपयोग किए गए मास्क का दोबारा इस्तेमाल खतरनाक होता है। यहां तो रजाइयां बनाने का कारोबार ही शुरू हो गया। हांलाकि पकड़े जाने पर पुलिस ने उसके खिलाफ कार्रवाई की है।
उधर पूर्वी एशिया के देश फिलीपींस में तो कोरोना से बचने लोगों ने वो दवा लेनी शुरू कर दी है, जो घोड़ों को दी जाती है। सरकार चेतावनी दे रही है लेकिन लोग सुनने को तैयार नहीं है। ऐसा नहीं है कि हमारे देश में सरकार कुछ कर ही नहीं रही है। वैक्सीन लगाने का काम जारी है, बावजूद इसके कि उनका भी टोटा पड़ गया है। इस बीच एक रूसी वैक्सीन को भी सरकार ने मंजूरी दे दी है। वैक्सीन कमी को लेकर मचे बवाल के बाद उसके निर्यात को अब जाकर रोका गया है।
ऐसा नहीं लगता कि कोरोना से लड़ने के लिए हमारे पास कोई सुनियोजित दीर्घकालिक योजना है। उधर कोरोना का डर और गहराता जा रहा है। सरकारें असमंजस मे हैं कि पूर्ण लॉकडाउन करें या न करें। क्योंकि मुश्किल दोनों स्थितियों में है। उधर लॉकडाउन से डरे हुए मजदूर फिर घरों को लौटने लगे हैं। सरकारें कोरोना चेन तोड़ने के रास्ते खोज रही हैं, गरीब वो चेन जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं, जो पेट और वायरस के बीच कहीं फिर गुम होती जा रही है।