नई दिल्ली। अनुच्छेद 142 (Article 142) लोकतांत्रिक ताकतों के खिलाफ परमाणु मिसाइल बन गया है, जो न्यायपालिका के लिए 24×7 उपलब्ध है। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ द्वारा न्यायपालिका के लिए दिया गया यह बयान चर्चा का विषय बन गया है। इसके पहले न्यायपालिका की इतनी तीखी आलोचना कभी नहीं की गई। जगदीप धनखड़ का यह बयान उस आदेश के बदले आया है जहां सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार राज्यपाल द्वारा भेजे गए विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए राष्ट्रपति के लिए 3 महीने की समय सीमा निर्धारित की।
पहले जानिए अदालत का वह निर्णय जिससे Article 142 पर बवाल हुआ :
सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए राष्ट्रपति के लिए 3 महीने की समय सीमा निर्धारित की है। यह निर्णय ‘तमिलनाडु राज्य बनाम तमिलनाडु के राज्यपाल, 2023’ केस में आया है। अदालत के फैसले के अनुसार, संविधान के अनुच्छेद 201 के तहत राज्यपाल द्वारा भेजे गए विधेयक पर राष्ट्रपति को 3 महीने की समय सीमा में निर्णय लेना होगा।
संविधान का अनुच्छेद 201 राज्यपाल को यह शक्ति देता है कि, राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित रख ले। राष्ट्रपति या तो विधेयक को स्वीकृति दे देंगे या फिर स्वीकृति नहीं देंगे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 201 में राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए कोई विशिष्ट समय-सीमा नहीं दी गई है और इस तरह की देरी विधायी प्रक्रियाओं को रोक सकती है।
अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि इस तरह की देरी संवैधानिक सिद्धांत का उल्लंघन करती है। इसके बाद अदालत ने राज्यपाल द्वारा भेजे गए विधेयक पर राष्ट्रपति कब तक निर्णय लें इसके लिए समय सीमा तय की। ऐसा इतिहास में पहली बार हुआ है जब अदालत ने इस तरह का निर्णय दिया।जिन शक्तियों का प्रयोग करते हुए अदालत ने समय सीमा निर्धारित की वह शक्तियां सुप्रीम कोर्ट को आर्टिकल 142 से प्राप्त होती है।
भारतीय संविधान के Article 142 के तहत शक्ति एक अंतर्निहित शक्ति है और इसका उपयोग “पूर्ण न्याय” करने के लिए किया जा सकता है। इस अनुच्छेद का उद्देश्य न्यायालय को कानून घोषित करने और ऐसे निर्देश या आदेश देने में सक्षम बनाना है जो पूर्ण न्याय करने के लिए आवश्यक हैं। संक्षेप में कहें तो जब कानून और संविधान चुप जो जाते हैं वहां अनुच्छेद 142 पूर्ण न्याय के लिए सुप्रीम कोर्ट को शक्तियां देता है।
अनुच्छेद 142 से जुड़े ऐतिहासिक मामले :
आईसी गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य और अन्य (1967) –
इस केस में न्यायालय ने माना कि संविधान के Article 142 के तहत शक्ति व्यापक है और इस न्यायालय को न्याय के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए कानूनी सिद्धांत तैयार करने में सक्षम बनाती है।
सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन बनाम भारत संघ (1998) –
सुप्रीम कोर्ट ने माना कि संविधान के अनुच्छेद 142 (Article 142) के तहत सुप्रीम कोर्ट की पूर्ण शक्तियां न्यायालय में अंतर्निहित हैं। ये शक्तियाँ बहुत व्यापक आयाम वाली हैं और पूरक शक्तियों की प्रकृति में हैं। इस प्रकार, यह पूर्ण क्षेत्राधिकार शक्ति का अवशिष्ट स्रोत है, जिसे सर्वोच्च न्यायालय आवश्यकता पड़ने पर उपयोग कर सकता है, जब भी ऐसा करना उचित और न्यायसंगत हो। विशेष रूप से कानून के अनुसार न्याय करते हुए, पक्षों के बीच पूर्ण न्याय करने के लिए, कानून की उचित प्रक्रिया का पालन सुनिश्चित करना हो तब इन शक्तियों का प्रयोग किया जाता है।
अब विवाद क्या है :
दरअसल, तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति की सहमति के लिए भेजे गए विधेयक लम्बे समय से लंबित है। राष्ट्रपति द्वारा बिल पर हस्ताक्षर न किए जाने से एक तरह से गतिरोध की स्थिति बनी।
संविधान के अनुच्छेद 201 में कहा गया है कि “जब कोई विधेयक राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित किया जाता है, तो राष्ट्रपति या तो विधेयक पर सहमति देगा या उस पर सहमति रोक देगा।” सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 201 राष्ट्रपति की सहमति के लिए कोई विशिष्ट समयसीमा प्रदान नहीं करता है, और इस तरह की देरी विधायी प्रक्रियाओं को रोक सकती है, जिससे राज्य के विधेयक “अनिश्चित और अनिश्चित स्थगित” हो सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने माना कि राष्ट्रपति अनिश्चित काल तक सहमति में देरी करके “पूर्ण वीटो” का प्रयोग नहीं कर सकते। निर्णय तीन महीने के भीतर किया जाना चाहिए, और किसी भी देरी का कारण बताना चाहिए और राज्य को सूचित करना चाहिए। सहमति रोकना ठोस और विशिष्ट आधारों पर आधारित होना चाहिए, मनमाने ढंग से नहीं किया जाना चाहिए। यदि राष्ट्रपति समय सीमा के भीतर कार्य करने में विफल रहता है, तो राज्य निर्णय लेने के लिए मजबूर करने के लिए रिट याचिका दायर कर सकते हैं, न्यायालय से परमादेश की रिट की मांग कर सकते हैं।
Article 142 की उप राष्ट्रपति ने की आलोचना :
“अनुच्छेद 142, जिसे न्यायिक न्याय के लिए बनाया गया था, आज लोकतंत्र के लिए खतरा बन चुका है। यह 24×7 न्यायपालिका के पास उपलब्ध एक परमाणु मिसाइल बन चुका है। हम ऐसी स्थिति नहीं बना सकते जहां आप (कोर्ट) भारत के राष्ट्रपति को निर्देश दें। संविधान के अनुसार केवल अनुच्छेद 145(3) के तहत ही संविधान की व्याख्या की जा सकती है, वह भी पांच या उससे अधिक न्यायाधीशों की पीठ द्वारा।”
बता दें कि, संविधान की व्याख्या का अंतिम अधिकार सुप्रीम कोर्ट के पास है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला भारत के फेडरल स्ट्रक्चर की रक्षा के लिए काफी अहम माना जा रहा है। लोकतंत्र में जनादेश से बढ़कर और कुछ नहीं और समय – समय पर अदालत द्वारा संवैधानिक मूल्यों की रक्षा की है। ऐसे में अदालत का यह आदेश एक्ट ऑफ बैलेंसिंग के रूप में देखा जा सकता है।