लोकतंत्र की हत्या तो उसी दिन हो गई थी

लोकतंत्र की हत्या तो उसी दिन हो गई थी जब 1946 में मौलाना अबुल कलाम आजाद को हटाकर, बहुमत के बावजूद पटेल की जगह नेहरू कांग्रेस अध्यक्ष और बाद में प्रधानमंत्री बने। (कुछ पुराना ऐतिहासिक साहित्य, कुछ आत्मकथाएं खंगालने पर जो तथ्य निकल कर सामने आये, आप लोगों के सामने प्रस्तुत हैं। मुझ पर विश्वास न करके आप भी खोजियेगा, शायद कुछ और नए तथ्य निकलें)

मामला कुछ यूं है,

1946 में यह लगभग तय हो गया था कि ब्रिटिश अब भारत छोड़कर जाएंगे। उस समय कांग्रेस ही सबसे बड़ा और प्रभावशाली दल था और अंग्रेजों के सबसे ज्यादा सम्पर्क में भी वही था। इसलिए यह भी तय था कि जाते समय अंग्रेज सत्ता उन्ही के हाथ सौंप कर जाएंगे। स्वाभाविक भी था कि जो कांग्रेस अध्यक्ष है वही प्रधानमंत्री बनेगा।

उस समय कांग्रेस अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आजाद थे और तमाम दिखावे के बावजूद एक देशभक्त मुसलमान को भारत देश का प्रधानमंत्री बनाना तब के नीतिनियन्ता पचा नहीं पाए, इसलिए आजाद से इस्तीफा मांग लिया गया। यदि मौलाना अबुल कलाम आजाद अध्यक्ष बने रहते तो देश का पहला प्रधानमंत्री मुसलमान होता और जिन्ना-नेहरू का देश विभाजन का फॉर्मूला सफल नहीं होता।

15 प्रांतीय समितियों से नए अध्यक्ष के लिए नाम बुलाये गए। 12 कांग्रेस प्रांतीय समितियों ने पटेल का नाम आगे रखा और 3 ने कोई भी नाम नहीं रखा था। नेहरूजी इस बात को स्वीकार नहीं कर पाए और गांधीजी भी अपने सबसे प्यारे बन्दे को प्रधानमंत्री बनाने का मोह न छोड़ पाए। गांधीजी के कहने पर आचार्य कृपलानी ने cwc मेंबर्स से नेहरू जी का नाम आगे रखवाया था और फिर गांधीजी के कहने पर पटेल ने अपना नाम वापस ले लिया।

पटेल द्वारा नाम वापस लेने के बाद गांधीजी के ही निर्देश पर प्रांतीय समितियों ने नेहरू के नाम का अनुमोदन कर दिया। (यहीं से पार्टी हाईकमान का सिस्टम शुरू हुआ था) (यह विवरण कलाम, कृपलानी और राजगोपालाचारी की पुस्तकों के अलावा तत्कालीन इतिहास में भी उपस्थित है) इसके पहले भी 1929 और 1937 में गांधीजी ने कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर पटेल की जगह नेहरू को तरजीह दी थी।

यदि उसी समय लोकतंत्र की स्वस्थ परम्पराओं का पालन किया जाता तो आज देश का इतना बड़ा दल एक परिवार की सम्पत्ति न बनता। देश में सिर्फ भाजपा, जनता दल यूनाइटेड और वामपंथी दल ही ऐसे है जिन पर एक ही व्यक्ति या एक ही परिवार का शासन नहीं रहा। अन्य सभी दल सदैव किसी एक ही व्यक्ति या परिवार के ही अधीन रहे हैं।

उस समय लोकतांत्रिक परम्पराओं का पालन किया गया होता तो पार्टियों में हाईकमान का फंडा शुरू नहीं होता। नेता थोपे जाने की प्रवृत्ति न पनपती। अयोग्य या अलोकप्रिय को उपकृत करने की नीति शुरू न होती। अब लोकतंत्र को पुनर्जीवित करने की कवायद है और थोपा हुआ या तिकड़म से किसी दल अथवा सरकार का नेता चुनना इतना आसान नहीं। आप देखेंगे कि अंत में कर्नाटक में लोकतंत्र ही जीतेगा।

(डॉ. पीयूष सक्‍सेना की फेसबुक वॉल से)

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