मुठभेड़ों का लोकतंत्र

राकेश अचल 

लोकतंत्र और मुठभेड़ों का रिश्ता उतना ही पुराना है जितना कि हमारा-आपका। हम चंबल के लोग लोकतंत्र से ज्यादा मुठभेड़ शब्द को जानते हैं। हमारे यहां मुठभेड़ों का लंबा इतिहास है, इसकी वजह ये है कि हमारे यहां बीहड़ हैं,बागी हैं और वैसी ही पुलिस भी है। जहाँ ये तीनों होते हैं वहां लोकतंत्र हो या न हो लेकिन मुठभेड़ जरूर होती है।

मुठभेड़ों के मामले में भले ही हमारा चंबल अंचल बदनाम है लेकिन इस मामले में अनेक सूबों के बीच ‘कम्पटीशन’ चलता रहता है। किसी सूबे में बिना जंगल के मुठभेड़ें होती हैं, किसी में जंगल के चलते। जैसे यूपी को ही ले लीजिये यहां मुठभेड़ों की वजह बीहड़ और जंगल के अलावा जंगलराज भी रहा है। छत्तीसगढ़ में नक्सली मुठभेड़ों की जड़ में हैं तो गुजरात में सियासत। महाराष्ट्र तो महाराष्ट्र है यहां मुठभेड़ें ‘भाई’ लोगों की वजह से होती हैं।

मुठभेड़ में पुलिस कम अपराधी ज्यादा मारे जाते हैं। मुठभेड़ में मरने वाले अपराधी को सीधे स्वर्ग मिलता है, क्योंकि उसे सजा पाने के लिए अदालतों से तारीख पर तारीख नहीं लेना पड़ती। पुलिस ये काम सस्ते में और शीघ्र निबटा देती है। अदालतों और पुलिस के बीच सजा देने के इस तरिके को लेकर भी अक्सर मुठभेड़ होती है, लेकिन जीतती हर बार पुलिस ही है। हमारे देश में तो सबसे बड़ी अदालत ने मुठभेड़ों के बारे में बाकायदा लम्बे-चौड़े निर्देश दे रखे हैं। ये निर्देश पुलिस ने सम्हालकर ताक पर रखे हुए हैं। पुलिस भूलकर भी इन दिशा निर्देशों की तरफ नहीं देखती।

पुलिस तो पुलिस है, चाहे कहीं की पुलिस हो। उसका भरोसा ‘शुभस्य शीघ्रम’ में है, होना भी चाहिए। पुलिस मुठभेड़ों के जरिये अदालतों का बोझ कम करती है और आरोपियों का तनाव। कितना पुण्य का कार्य है ये, किन्तु देश में मानव अधिकारों के पैरोकार इसे भी नहीं पचा पाते। विरोध करते हैं और इतना करते हैं कि पगला जाते हैं। अच्छी बात ये है कि हमारी पुलिस इस विरोध का बुरा नहीं मानती और अपना काम करती रहती है। पुलिस अगर अपना काम न करे तो बेचारी आए दिन, अकारण शहीद हो।

मुठभेड़ का मूलमंत्र है ‘आत्मरक्षा’ पुलिस जनता की रक्षा करे या न करे किन्तु आत्मरक्षा जरूर करती है। जहाँ नहीं करती वहां कुत्ते की मौत मारी जाती है। पुलिस की आत्मा जागती ही तब है जब उसके कुछ साथी किसी बदमाश के हाथों कुत्ते की मौत मारे जाते हैं। सौभाग्य ये है कि एक बार पुलिस की आत्मा जाग जाये तो फिर आत्मरक्षा के लिए वो कुछ भी कर सकती है। भले ही बदमाश विधि-विधान से आत्मसमर्पण कर दे, अदालत उसे अभयदान दे दे, किन्तु पुलिस उसे नहीं छोड़ती।

अक्सर देखा गया है कि पुलिस और बदमाश के बीच जब सिंगल मुठभेड़ होती है तो आरोपी पुलिस से उसके हथियार छीन कर उन पर फायर झोंक देता है, भले ही आरोपी के हाथों में हथकड़ी लगी हो, या उसे दर्जन भर पुलिस वाले घेर कर बैठे हों। एक बार आरोपी ने पुलिस पर हमला किया और भागा कि बस मारा गया। पुलिस की आत्मरक्षार्थ चलाई गयी गोली सीधे आरोपी के मर्मस्थल पर लगती है और उसे मोक्ष प्रदान कर देती है।

यूं भी कहते हैं कि मुठभेड़ बहादुरी का काम है। एक बकरे को जिबह करना आसान है लेकिन एक ज़िंदा आदमी को मारना कठिन काम है। मुठभेड़ में पुलिस के कुछ लोगों को भी जख्मी होना पड़ता है, लेकिन ‘देशभक्ति और जनसेवा’ के लिए समर्पित पुलिस वाले मुठभेड़ की लाज रखने के लिए अपनी ही गोली खाकर जख्मी हो जाते हैं। अलबत्‍ता वे हमेशा खतरे से बाहर होते हैं।

मुठभेड़ का सामान्य अर्थ एक प्रकार का हिंसात्मक संघर्ष है। यह कभी-कभी दो गैर-क़ानूनी गुटों में, सेनाओं के बीच और साधारण रूप से पुलिस और अपराधियों के बीच होता है। किन्तु ‘मुठभेड़’ का कानूनी अर्थ है, ‘पुलिस या किसी अन्य सशस्त्र बल द्वारा, अपनी रक्षा करने के लिए, किसी गिरोहबाज अपराधी या आतंकवादी को मार गिराना।‘ असाधरण रूप से मुठभेड़ का अर्थ कुछ और ही होता है। बीसवीं सदी में मुंबई पुलिस ने मुठभेड़ों में न जाने कितने भूमिगत माफियाओं को मार गिराया था। तीन साल पहले जब उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार बनी तो सरकार बनने के बाद 10 माह में 1142 मुठभेड़ें हुईं।

मुठभेड़ों का दुर्भाग्य ये है कि आम जनता इन्हें कभी असली नहीं मानती। पत्रकार और टीवी वाले तो मुठभेड़ को लेकर न जाने कहाँ-कहाँ से सबूत जुटाते रहते हैं, ताकि मुठभेड़ को फर्जी साबित कर सकें। लेकिन पुलिस भी कम नहीं होती। अक्सर हर मुठभेड़ के सीने पर चिपका फर्जी का लेबिल हटा देती है।

आपको याद होगा कि गुजरात में 19 साल की कॉलेज छात्रा इशरत जहां साल 2004 में सुनियोजित तरीके से अंजाम दी गई एक ‘फर्जी मुठभेड़’ में मारी गई थी। गुजरात पुलिस और राज्य के सब्सिडियरी इंटेलिजेंस ब्यूरो (एसआईबी) की संयुक्त कार्रवाई में इस फर्जी मुठभेड़ को अंजाम दिया गया था। लेकिन क्या हुआ? कुछ भी नहीं। एक-दो बदनसीबों को छोड़कर सब मौज में हैं।

हमारे मध्यप्रदेश में तो मुठभेड़ों के जरिये सैकड़ों सूरमा राष्ट्रपति का वीरता पदक हासिल करने में कामयाब रहे। अनेक सिपाही से इंस्पेक्टर और इंस्पेक्टर से डिप्टी एसपी तक बने। हमारे यहाँ कोई भी आईपीएस चबंल में आता ही मुठभेड़ों के जरिये वीरता का राष्ट्रपति पदक पाने के लिए था। मेरे पास तो ऐसे सभी अफसरों की फेहरिस्‍त है। वो तो अच्छा ये हुआ कि सूबे की सरकार ने इस धंधे पर रोक लगा दी। वरना इधर मुठभेड़ हुई और उधर बारी से पहले पदोन्नति और वीरता के पदक मिले।

एक जमाने में मुठभेड़ों से चिढ़ने वाली सरकार ही अब मुठभेड़ों के लिए कमर कस कर खड़ी है। आपको बता दूँ कि गुजरात की तत्कालीन सरकार सोहराबुद्दीन और तुलसीराम प्रजापति एनकाउंटर केस की जांच सीबीआई से कराये जाने को लेकर नाराज थी। गुजरात सरकार का मानना था कि अन्य प्रदेशों में जहां मुठभेड़ों की संख्या गुजरात से काफी ज्यादा है, वहां ऐसे मामले सीबीआई को नहीं सौंपे जाते।

गुजरात सरकार ने न्यायालय में दायर की गई अपनी याचिका में कहा था कि मानवाधिकार कार्यकर्ता देश के अलग-अलग हिस्सों में होने वाली फर्जी मुठभेड़ों को लेकर अपनी आँखें बंद किए हुए हैं। मोदी सरकार ने अपनी याचिका में यह भी कहा था कि 1998 से 2000 के बीच मुंबई में अंडर वर्ल्ड के 300 लोगों के एनकाउंटर किए गए, यानी एक वर्ष में सौ से ज्यादा लोगों को मारा गया। लेकिन उसको लेकर किसी भी प्रकार की जांच नहीं की गई।

मैदान में ही नहीं पुरस्कार और समय पूर्व पदोन्नति के चक्कर में आनन-फानन में मुठभेड़ों को गैर जिम्मेदाराना ढंग से अंजाम दिए जाने की हजारों दास्तानें असम में भी दर्ज हैं। पूर्वोत्तर के अशांत राज्यों में हुई मुठभेड़ों को लेकर सुप्रीम कोर्ट कई बार सवाल उठा चुका है और मानवाधिकार संगठन भी फर्जी मुठभेड़ों के खिलाफ आवाज बुलन्द करते रहते हैं। एक जनहित याचिका में मणिपुर में वर्ष 2000 से 2012 के बीच सुरक्षा बलों और मणिपुर पुलिस द्वारा 1528 न्यायेतर हत्याओं के मामले की जांच और मुआवजे की मांग की गई थी।

अदालत ने इस जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान मानवाधिकारों का ही पक्ष लिया था और फर्जी मुठभेड़ों की जांच के लिए जस्टिस संतोष हेगड़े की अगुवाई में तीन जजों की समिति का गठन किया। हेगड़े आयोग ने 1528 मामलों में से 62 की जांच की और जांच में पाया गया कि 62 में से 15 मामले फर्जी मुठभेड़ के हैं।

हाल ही में विकास दुबे को मुठभेड़ में मार गिराने वाली यूपी की पुलिस सचमुच बहादुर है। उसके आठ जवान तो झांसे में आकर विकास के हाथों मारे गए थे, इसलिए विकास को भी झाँसी के पास लाकर मारा गया। अब आप इसे फर्जी मुठभेड़ कहेंगे तो आप राष्ट्रद्रोही माने जायेंगे। आपसे पूछा जाएगा कि- ‘आप उस दिन कहाँ थे जब आठ पुलिस वाले मारे गए?’ मेरी मानें तो आप खामोश बैठिये, मुठभेड़ की सराहना कीजिये, यूपी पुलिस को बधाइयां भेजिए। क्योंकि लोकतंत्र और आत्मरक्षा के लिए मुठभेड़ें अनिवार्य हैं, अपरिहार्य हैं। हां, यदि आप चाहें तो इनकी जांच कराई जा सकती है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here