अजय बोकिल
कभी देश के दिग्गज नेताओं में शुमार रहे जसवंतसिंह का 6 साल तक कोमा में रहने के बाद गुमनामी में निधन इस बात का सबक भी है कि एक समय खुद को वक्त पर सवार का मुगालता पालने वालों के साथ नियति और राजनीति कैसा सलूक करती है। इस मायने में जसंवत 21 वीं सदी में इस तरह रुखसत होने वाले राजनेताओं के उस त्रिकूट का हिस्सा हैं, जिन्हें दुनिया ने जीते जी भुला दिया। बाकी दो अन्य नेता हैं, जॉर्ज फर्नांडिस और प्रियरंजन दासमुंशी।
हालांकि बाकी दो की तुलना में जसवंत ने कम यातनाएं भोगी। वो 6 साल तक ही बिस्तर पर रहे, जबकि उन्हीं के समकालीन जॉर्ज फर्नांडिस और प्रियरंजन दासमुंशी को शारीरिक व्याधियां 9-9 साल तक भुगतनी पड़ीं। इस दौरान शायद ही किसी ने उनकी सुध ली हो।
बीते जमाने के दिग्गज नेता जसवंतसिंह का राजनीतिक अवसान यूं तो 6 साल पहले ही हो गया था, जब भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें पसंदीदा बाड़मेर सीट से लोकसभा चुनाव का टिकट नहीं दिया था। इसके बाद जसवंत ने इसी सीट से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में फार्म भर दिया। पार्टी ने जसवंत को नाम वापस लेने को कहा। जसंवत के इंकार पर उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया गया। जसवंत उन नेताओं में थे, जिन्हें भाजपा ने दो बार पार्टी से निकाला।
2009 में जसवंतसिंह की किताब- ‘जिन्ना-इंडिया, पार्टीशन, इंडिपेंडेंस’ प्रकाशित हुई। इसमें जसंवत ने जिन्ना की तारीफ की थी और देश विभाजन के लिए नेहरू को जिम्मेदार ठहराया था। इसके बाद भाजपा ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया। पार्टी ने उन्हें सफाई का मौका भी नहीं दिया, जबकि वो भाजपा की स्थापना के समय वाले नेताओं में से एक थे। तब जसवंत ने भाजपा पर संकुचित दृष्टि वाली पार्टी होने का आरोप लगाया था। हालांकि एक साल बाद ही भाजपा ने उन्हें वापस भी ले लिया था।
इस मायने में ‘जिन्ना सिंड्रोम’ का शिकार होने वाले जसंवत भाजपा के दूसरे बड़े नेता थे। पहला नाम जनसंघ और भाजपा के बड़े नेता और देश के उप प्रधानमंत्री रहे लालकृष्ण आडवाणी का है, जिन्होंने पाक यात्रा के दौरान जिन्ना की कब्र पर जाने का महापाप किया। उसके बाद उनकी वैचारिक निष्ठाओं पर ऐसा ग्रहण लगा कि आज वर्तमान की खिड़की से अपने ही अतीत को शून्य भाव से तकते रहने के अलावा कोई चारा इस नेता के पास नहीं बचा है। दरअसल इन दोनों नेताओं ने उन मोहम्मद अली जिन्ना को ‘धर्मनिरपेक्ष’ करार देने की कोशिश की थी, जो ज्यादातर भारतीयों की नजर में देश विभाजन के खलनायक हैं।
बावजूद इसके जसवंतसिंह इस सदी के पहले दशक तक देश के दिग्गज और बहुमुखी प्रतिभा वाले नेता रहे। एनडीए-वन सरकार के मुखिया अटलबिहारी वाजपेयी उन्हें अपना ‘हनुमान’ कहते थे। क्योंकि जसवंत ने कई दफा संकटमोचक की भूमिका निभाई। अटलजी जसंवत की बौद्धिक आभा से प्रभावित थे और उनकी विश्व दृष्टि से सहमत थे। जसवंत सेना में भी रहे थे और उन बिरले नेताओं में से थे, जिन्हें देश के वित्त, रक्षा और विदेश मंत्री के रूप में काम करने का अवसर मिला।
पूर्व अमेरिकी विदेश मंत्री स्ट्रोब टालबोट ने अपनी किताब में लिखा है कि जसवंत सिंह की सत्यनिष्ठा चट्टान की तरह है। भारत के दृष्टिकोण को उनसे ज़्यादा बारीकी से मेरे सामने किसी ने नहीं रखा। हालांकि कंधार विमान अपहरण प्रकरण में अपहृत भारतीयों को छुड़वाने के बदले तीन आतंकवादियों को रिहा करने के मामले में जसवंत की आलोचना भी हुई। यह भी कहा जाता है कि उन्हीं की सलाह पर आगरा में अटलजी और पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ की मुलाकात संभव हुई थी। हालांकि इससे कुछ खास नतीजा नहीं निकला और पाकिस्तान की पूंछ टेढ़ी की टेढ़ी रही।
जसवंत एक प्रभावशाली सांसद थे और सदन में उनकी बात को गंभीरता से सुना जाता था। आरएसएस पृष्ठ भूमि से नहीं होते हुए भी वो अटल सरकार और भाजपा में (मोदी शाह पूर्व युग में) में उदारवाद की पतवार थामे रहे। फौजी व्यक्तित्व वाले जसवंत सिंह 2014 के लोकसभा चुनाव के एक दिन पहले बाथरूम में गिर पड़े और फिर कभी बिस्तर से उठ नहीं सके। उन्हें इस बात की खबर भी नहीं लगी कि उनके ही दो समकालीन राजनीतिक मित्र जार्ज फर्नांडिस और अटल बिहारी वाजपेयी भी लंबी बीमारी के बाद इस दुनिया से चले गए हैं।
अटलजी की सरकार में रक्षा मंत्री रहे दिग्गज ट्रेड यूनियन लीडर, समाजवादी नेता और पत्रकार जॉर्ज फर्नांडिस ने एक तेज और बेहद सक्रिय जिंदगी जी, लेकिन उनका अंत भी गुमनामी में हुआ। 2004 में अटलजी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के सत्ता से बाहर होते ही जॉर्ज फर्नांडिस के भी बुरे दिन शुरू हो गए। वो जॉर्ज फर्नांडिस, जिसने कभी इंदिरा गांधी जैसी ताकतवर नेत्री से लोहा लिया और इमर्जेंसी के पहले रेलकर्मियों की वेतन वृद्धि की मांग को लेकर देश में 19 दिन तक भारतीय रेल के पहिए रोक दिए, (हालांकि अब कोरोना काल में पांच महीने से लगभग बंद पड़ी रेलवे के आगे यह कुछ भी नहीं है), जो उस जमाने में बहुत बड़ी बात थी।
दिलचस्प बात यह है कि जॉर्ज को परिवार चर्च में पादरी बनाना चाहता था, लेकिन उन्होंने बिल्कुल दूसरी राह पकड़ी और देश के धाकड़ ट्रेड यूनियन नेता बन गए। अपने पहले लोकसभा चुनाव में उन्होंने महाराष्ट्र के तत्कालीन दिग्गज नेता एसके पाटिल को हराया। जॉर्ज ने आपातकाल का जमकर विरोध किया। जनता पार्टी के शासन काल में उन्होंने आईबीएम और कोको कोला जैसी मल्टीनेशनल कंपनियों को देश छोड़ने पर मजबूर किया (आर्थिक उदारीकरण के दौर में वो वापस भी आ गईं)।
जॉर्ज के नाम कई साहसिक फैसले हैं। वीपी सिंह सरकार में रेल मंत्री के रूप में उन्होंने कोंकण रेलवे प्रोजेक्ट शुरू किया। रक्षा मंत्री रहते हुए कारगिल युद्ध उनके कार्यकाल में ही जीता गया और पोखरण परमाणु विस्फोट भी हुआ। हालांकि जार्ज का नाम कई विवादों में भी घिरा। इमरर्जेंसी के वक्त तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने उन्हें बड़ोदा डायनामाइट केस में फंसाया था। तहलका मामले, बराक मिसाइल कांड में भी जॉर्ज का नाम आया। लेकिन जॉर्ज के जुझारूपन पर इसका कोई असर नहीं हुआ। वे जननेता के रूप में अपना मिशन पूरा करते रहे।
यूपीए वन के समय से ही जॉर्ज के राजनीतिक जीवन की ढलान शुरू हो गई थी। 2010 में उन्हें पार्किंसन बीमारी ने घेर लिया। इस दौरान उनकी पारिवारिक जिंदगी का विवाद भी कोर्ट तक गया। नौ साल बिस्तर पर गुजारने के बाद सियासी अखाड़े में दहाड़ने वाला ये शेर अंतिम वक्त में स्वाइन फ्लू का शिकार होकर फानी दुनिया से रुखसत हो गया। जॉर्ज 88 बरस की उम्र में चुपचाप दुनिया छो़ड गए। मोदी सरकार ने उन्हें मरणोपरांत पद्म विभूषण से सम्मानित किया।
इसी तरह प्रियरंजन दासमुंशी भी एक जमाने में पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के धाकड़ नेताओं में गिने जाते थे। लेकिन उन्होंने अपनी जिंदगी के आखिरी नौ साल कोमा में गुजारे। मनमोहन सरकार में कुछ विदेशी टीवी चैनलों और सोनी टीवी नेटवर्क पर बैन लगाने जैसे फैसले दासमुंशी ने किए। बंगाल में उन्हें घोर वामपंथ विरोधी नेता के रूप में जाना जाता था। राजनीतिक जीवन में उन्होंने कई उतार-चढ़ाव देखे। लेकिन उनके इस जुझारूपन में उन्हें शरीर का अपेक्षित साथ नहीं मिला। दासमुंशी को तगड़ी डायबिटीज तो थी ही, 2008 में वो लकवे के भी शिकार हो गए। 2017 में जब उनकी मौत की खबर आई तो उसमें चौंकाने जैसा कुछ नहीं था। चंद औपचारिक श्रद्धांजलियां जरूर आईं।
जसवंत के निधन पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित कई नेताओं ने श्रद्धांजलि दी, उन्हें याद किया। लेकिन यह लोकाचार ही था। हकीकत यह है कि बरसों सियासत के नंदा दीप जलाने वाले जब ऐसी मुश्किलों और असाध्य रोगों में घिरते हैं तो वो तंत्र भी उन्हें खारिज कर देता है, जिसे गढ़ने में कभी उनका योगदान हुआ करता था। दरअसल राजनेताओं को नियति का यह ऐसा झटका है, जिसे शायद ही कोई नेता मन से स्वीकार करता हो।
सत्ता का नशा होता ही कुछ ऐसा है कि व्यक्ति अपने चारों ओर हरा ही हरा (रंग अपनी सुविधा से बदल भी सकते हैं) नजर आता है। वह मान बैठता है कि ईश्वर ने सत्ता की सौगात उसे जन्म-जन्मांतर के लिए सौंप दी है। वह अजर है, अमर है। बाकी सब गौण हैं। लेकिन नियति के कंट्रोल पैनल में एक डिलीट का बटन भी होता है, जो कब और किस रूप में दब जाए, कहा नहीं जा सकता। कब उसके अपने आंखें फेर लें, कहना मुश्किल है। लेकिन सत्ता का चश्मा उसे तस्वीर का दूसरा पहलू देखने ही नहीं देता। जानते हुए भी कि अकृतज्ञता और उपेक्षा का ये जहर उसके हिस्से में भी आ सकता है।